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अहिसा
धना स्वरूप है । सम्यक्त्व मूल के दो विभाग हैं अणुव्रत और शिक्षाव्रत । अणुव्रत में से ही गुरगवत निकले हैं क्योंकि गुरगव्रत प्रण व्रतों का विशेष पालन करवाते हैं ।
प्रमाद के कारण से त्रस एवं स्थावर जीवों के प्राणों का नाश नहीं करने को अहिंसा व्रत माना गया है जैसे संसार में अणु परमाणु से सूक्ष्म कोई पदार्थ नहीं है और आकाश से विशाल भी कोई पदार्थ नहीं है, वैसे ही विश्व में अहिंसा के समान कोई ब्रत नहीं है ।
साधनों के पाँच महाव्रतों में पहला महाव्रत अहिंसा है और श्रावकों के बारह व्रतों में सबसे पहला स्थूल प्रारणातिपात-विरमरण (स्थूल-प्राणियों की हिंसा नहीं करना है) प्राणों का अतिपात या विनाश दो प्रकार से हो सकता है-- (१) सकल्प जन्य और (२) प्रारंभ जन्य। श्रावक को सकल्प जन्य (जान बूझ कर) हिंसा नहीं करनी चाहिये। प्रारभ जन्य हिंसा का त्याग श्रावक नहीं कर सकता क्योंकि उसे खेती व्यापार उद्योग और खाने पकाने के सभी काम करने पड़ते हैं, जिसमें प्रारभ जन्य हिंसा होती है ।
समस्त हिंसा को चार विभागों में विभक्त किया जा सकता है१. संकल्पी हिसा : सकल्प पूर्वक की जाने वाली हिंसा। २. प्रारंभी हिंसा : भोजन आदि बनाने में होने वाली हिंसा । ३. उद्योगी हिंसा : असि मसि, कृषि (युद्ध, व्यापार, खेती) आदि __ में होन वाली हिंसा । ४. विरोधी हिंसा: आत्म रक्षार्थ होने वाली हिंसा ।
इन चार प्रकार की हिंसाप्रों में गृहस्थ सकल्प पूर्वक द्रव्य पौर भाव से हिंसा न करने का त्याग करता है। क्योंकि द्रव्य से हिंसा होने पर भी यदि उसका भाव हिंसा की तरफ नहीं है तो उसे पाप बंध नहीं होता।
हिसा के अन्य तीन प्रकार भी हैं -- (१) हेतु हिंसा, (२) स्वरूप हिंसा और (३) अनुबंध हिंसा ।
मैत्री भाव के अभाव के कारण जो हिंसा होती है उसे हिंसा कहा जाता है। यदि कोई मनुष्य किसी अन्य प्राणी को मारने के इरादे से
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