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दर्शन योग
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सांशयिक और अनाभौगिक । मिथ्यादर्शन की पकड़ को रखने वाला, पौद्गलिक सुखों में प्रानंद मानने वाला जीव अभिग्रहिक मिध्यात्वी होता है | जो यह कहे कि सभी धर्म अच्छे हैं, सभी दर्शन अच्छे हैं, वह अनभिग्रहिक मिथ्यात्वी है। जिसको तत्त्व के सूक्ष्म या प्रतिन्द्रिय विषय में संशय हो और उस संशय को दूर करने के लिये सद्गुरु की संगति करने की इच्छा भी न हो, उसे सांशयिक मिथ्यात्वी कहते हैं । सूक्ष्म और बादर निगोद, वेन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरेन्द्रिय, अंसज्ञी मनुष्य, तिर्यच, सज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्य, जिन्होंने एक बार भी सम्यग्दर्शन प्राप्त न किया हो, ऐसे जीवों को अनाभौगिक मिथ्यात्व होता है ।
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संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों ने यदि एक बार भी सम्यग्दर्शन प्राप्त किया हो किंतु फिर से मिथ्यात्वी हो गया हो तो उसे अनाभौगिक के अतिरिक्त चार में से कोई भी एक मिथ्यात्व होता है ।
संयम - सदाचाररूपी स्वर्ण मुकुट भौतिक अर्थात् द्रव्य कंचन - किरीट से भिन्न है । भौतिक स्वर्ण मुकुट नाशवान् है, क्षणिक है । संयमरूपी स्वर्ण मुकुट शाश्वत है |
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काल की अपेक्षा से मिथ्यात्व तीन प्रकार का है - ( १ ) अनादि ग्रनन्त, (२) अनादि सांत और (३) सादि सांत । प्रभव्य श्रात्मा को मिथ्यात्व अनादि काल से है, वह कभी दूर होने वाला भी नहीं है, अतः उसे अनादि अनन्त कहते हैं । जाति भव्य के प्रतिरिक्त भव्य प्रात्मा को अनादि काल से मिथ्यात्व होता है, परंतु उसका अंत श्राता है, अतः उसे अनादि सांत कहते हैं । जो भव्य सम्यक्त्व को छोड़ कर मिथ्यात्व को प्राप्त हुए हैं, उनके मिथ्यात्व का अंत श्राने वाला है, अतः उनका मिथ्यात्व सादिसांत कहा जाता है ।