________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७२ ]
दर्शन योग
(७) अपमत्ते -- अप्रमत्त सयत गुणस्थान, (८) निअट्टि = निवृत्ति बादर गुणस्थान, (६) अनिअट्टि - अनिवृत्ति बादर गुरगस्थान, (१०) सूहुम= सूक्ष्म संपराय गुणस्थानक, (११) उवसम = उपशांत मोहनीय गुरणस्थानक, (१२) वीणे = क्षीण मोहनीय गुरणस्थानक, (१३) जोगि-सयोगी केवली गुणस्थानक और (१४) अजो ग = अयोगी वे वली गुरणस्थानक ।
जो संख्या दो से बड़ी हो उस में प्रादि, मध्य और अन्त होता है । इस दृष्टि से प्रथम गुणस्थानक प्रादि है, २ मे १३ नक मध्य है और १४ वां गुणस्थानक अंतिम है । क्रम दो प्रकार का होता है एक उन्नत और दूसरा अवनत । रात, दिन, सप्ताह, पक्ष, माह, ऋतु, वर्ष यह उन्नत क्रम है, इसमें कोल उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। ब्रह्मांड, विश्व, देश, प्रांत, जिला तहसील, गांव यह अवनत क्रम है, इस में उत्तरोत्तर क्षेत्रफल कम होता है। गुरणस्थानक का क्रम उन्नत क्रम है, क्योंकि उनमें प्रात्मा की विकसित अवस्थाएं बताई जाती हैं।
मिथ्यात्व में स्थित प्रात्मा की अवस्था विशेष को मिथ्यात्व गुरणस्थान कहा जाता है। मिथ्यात्व शब्द से व्यक्त मिथ्यात्व समझना चाहिये। इस गुणस्थानवी जीव राग द्वेष के गाढे परिणाम वाले होते हैं । भौतिक सुख में ही संतुष्ट रहते हैं। उनकी सभी प्रवृत्तियों का लक्ष्य सांसारिक सुख का उपभोग तथा उससे संबंधित साधनों का संग्रह करना होता है । उनको मोक्ष की बात अच्छी नहीं लगती। मोक्ष के साधनों के प्रति उसे घृणा. तिरस्कार और अनादर होता है ।
आप पूछेगे कि जहाँ मिथ्यात्व अर्थात् श्रद्धा के विपरीत आचरण होता है वहाँ गुणस्थान कैसे हो सकता है ? यह बात सत्य है कि व्यक्त मिथ्यात्वी को श्रद्धा से विपरीतपन होता है, फिर भी उनमें प्रात्मा के ज्ञान आदि गुणों का अमुक अंश में अस्तित्व होता है, इसीलिये इसे गुरणस्थान कहा गया है। क ख ग सीखने वाले बालक में विद्या के कौन से गुरण होते हैं ? फिर भी उसे विद्यार्थी तो कहा जाता है न ? अागम में कहा है कि सभी जीवों को प्रक्षर के अनन्तवें भाग जितना ज्ञान का अंश तो निरंतर खुला ही रहता है। यदि ज्ञान का यह सूक्ष्मतम अंश भी ढ़क जाय तो फिर जीव अजीव बन जायगा ।
मिथ्यात्व पाँच प्रकार के हैं आभिग्रहिक, अनभिग्राहक,अभिनिवेशिक
For Private And Personal Use Only