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शरणागति स्वीकार करली । पुराने जमाने में शक्कर (खाँड ) में घास प्राती थी । श्रतः कवि ने कहा, "हे प्रभो मैं तो आपकी गाय हूँ ।" ऐसा कह कर मुंह में तृरण लेकर शरण लेली । शक्कर में घास के तृरण होने से कवि ने कल्पना की कि प्रभु की वारणी के समक्ष शवकर भी घास खाती है ।
पद आगे बढ़ता है, कवि की कल्पना और सजग हो जाती है
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'अमृत मीठु स्वर्गे दीठु"
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अमृत मीठा तो है पर वह भी समझ गया कि इस धरती पर प्रभु की वाणी के समक्ष मेरा मीठास फीका लगेगा, जिन वारणी से मोर्चा लेने में आनन्द नहीं है इसलिये भय से घबरा कर अमृत भी स्वर्ग में चला गया ।
वचन योग
वाणी चार प्रकार की होती है परा, पश्यंती, मध्यमा और वैखरी । वैखरी की एक उपमा दी गई है कि जैसे मक्की की धानी फूटती है तब फटफट की आवाज होती है, वैसे ही जो बात मुंह से फटाफट बिना सोचे विचारे निकलती जाये और कान में जाकर समाप्त हो जाये, वह वैखरी Parti | इस वाणी का प्रायुष्य बहुत ही कम होता है, मात्र कुछ मिनिटों का । आजकल लोगों को बोलने का शौक इतना बढ़ गया है कि शब्द का मूल्य बहुत कम हो गया है। वैखरी वाणी मात्र शब्दों की भरमार होती है पर अर्थ का कोई अतापता नहीं होता । श्रर्थ का अनर्थ हो जाता है ।
उपरोक्त वाणी के वक्ता कई भाई 'एसो पंचनमुक्कारो' को जल्दी जल्दी में 'एपाचारो मुह 'कालो' ऐसा बोल जाते हैं। संसार दावानल का एक पद है- 'चूलावेलं गुरुगममरिण' उसे वैखरी वारणी वाले 'चूलावेलरण गुरुगमणी' कर देंगे और 'पही गजरमरणा' को पीहर जाकर मरणा' कर देंगे ।
एक प्रार्थना है:
'महावीरे तीजे पाट जन्म मरण से बला काट ।'
वैखरी वाणी वाले इसका उच्चारण करते हैं:
'महावीरे तीजे पाट जन्म मरण से बकरा काट ।'
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इसी प्रकार 'हरडे बेहडा प्राँवला' को वैखरी जुबान वाले 'धरड़ा बेरा प्रांधला' कह देते हैं ।