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दर्शन योग
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विराधक ? यों जिसको अपने काव्यत्व के विषय में शंका हो वह अभव्य है।
"पापी अभव्य तजरे न देखे' सिद्ध गिरि की स्पर्शना द्वारा भव्यत्व निश्चित होता है ।
श्रद्धा के भी दो रूप होते हैं: --- (१) सम्यक् श्रद्धा और अन्धश्रद्धा । इन दोनों में जमीन आसमान का अन्तर है क्योंकि दोनों ही परस्पर विरोधी हैं । सम्यक् श्रद्धा में विनय गुण का समावेश होता है, जो गुरू द्वारा प्रदत्त ज्ञान को प्राप्त कराती है। अथश्रद्धा में अहंकार और जिद्द होती है, जो ज्ञान प्राप्ति में बाधक है । यह कर्मो के भार को बढ़ाती है । कहा भी है -
'अश्रद्धा परमं पाप, श्रद्धा, पाप विसोचनि । जहाति पापं श्रद्धावान् सर्पा जीवित्त्वचम् ।"
अश्रद्धा उत्कृष्ट पाप है और श्रद्धा पाप नाशक है । श्रद्धावान् व्यक्ति पाप को इस प्रकार छोड़ दते है, जैसे सर्प अपनी पुरानी केचुल का त्याग कर देता है । श्रद्धा, विश्वास और तपस्या जीवन के मुख्य निर्माणक हैं ।
अवंतिका नगर में विक्रमादित्य राजा का राज्य था। नगर के बाहर एक धर्मशाला थी, जिसमें जब कोई यात्री ठहरता था, भोजन करने के बाद जब वह सोता तो मर जाता । यह सुनकर विक्रमादित्य वेष बदल कर धर्मशाला में आया । मुर्दे को तो उसने कपड़े से ढ़क दिया और स्वयं नंगी तलवार लेकर छिपकर बैठ गया । धर्मशाला के एक कोने से धुपा निकला, फिर प्रकाश हुमा और एक भयंकर नाग प्रकट हुा । वह यात्रियों से पूछने लगा कि पात्र कौन ? एक ने कहा धर्म, दूसरे ने कहा रूप, तीसरे ने कहा कीति । सर्प ने सबको मार डाला । तब विक्रमादित्य प्रकट हुआ। विनय पूर्वक बोला, "श्रद्धा से पवित्र वना मन ही परम पात्र है।" सपं बहत प्रसन्न हुप्रा । विक्रमादित्य की विनती पर उसने सब मृत यात्रियों को पून: जीवित कर दिया।
दिल्ली का प्राचीन नाम इन्द्रपस्थभा, वहां अनंगपाल राजा राज्य करता था। एक दिन अनंगपाल की अध्यक्षता में ज्योतिषी ने नये किले की स्थापना के लिये जमीन में एक मत्रित कील गडवाई। वह कील शेषनाग के फरण पर लगी, अत: ज्योतिषी ने कहा कि यहाँ राज्य सुस्थिर होगा। होगा। पर राजा को ज्योतिषी की बात पर विश्वास नहीं हमा, अतः कील को वापस निकलवाया, देखा कील रक्त से सनी हुई थी, तब जाकर राजा
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