Book Title: Yogshastra
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir

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Page 61
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वचन योग । ४७ ___एक बहरा अपने बीमार मित्र से मिलने गया, कितु उसके पहुँचने के पहले ही मित्र मर चुका था। बहरे ने उपस्थित लोगों से पूछा कि 'भाई का स्वास्थ्य कैसा है ?'' लोगों ने कहा "वह तो मर चुके हैं।" बेहरे ने सुना तो कुछ नहीं पर अपने मन से ही सोच लिया कि ये लोग स्वास्थ्य में सुवार की बात कर रहे होंगे। बेहरे ने कहा “अच्छी बात है, भगवान ने अच्छा ही किया, इलाज किसका चल रहा है ?' मित्र के लड़कों ने कहा "यमराज का" । बेहरे ने कहा, "यह डाक्टर बहुत अच्छा है. उसके हाथ में खूब यश है, पथ्य क्या दिया ?" औरतों ने कहा "पत्थर'' बेहरे ने समझा दलिया खिचड़ी दी होगी। बोला, “पथ्य बिल्कुल ठीक है, सभी इसी का उपयोग करते हैं, खैर भाईजी सोले कहाँ हैं ?'' लोगों ने कहा 'श्मशान में' बेहरे ने समझा पास वाले कमरे में । बोला "हाँ, हाँ, बाल बच्चों को भी वहीं सुला देना' लोगों को गुस्सा ग्राया, गला पकड़ कर घर से बाहर किया। वैखरी के साथ जब पगवरणी की गूज हो जाये और सुनने वाला भी सावधान चित्त वाला हो तो थाड़े से शब्दों में अधिक काम हो जाता है । तेज चाल वाला घोड़ा इशारे मात्र से समझ जाता है । मध्यमवाणी में रटे गये सूत्र का अर्थ तो समझ में प्राता है, परन्तु वह हृदयस्पर्शी नहीं बन पाता , अर्थ तो समझ गया पर गूढ़ अर्थ नहीं समझा, अत: कभी कभी अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है। पिता ने पुत्र को शिक्षा दी:--- 'मातृवत् परदारेष परद्र व्याणि लोष्टुवत् । प्रात्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पंडितः ।।' हे पुत्र ! परस्त्री को माता के समान, परद्रव्य को मिट्टी के समान तथा सबको अपने समान समझना चाहिये । पुन ने जवाब दिया, "पिताजी तब तो मेरो स्त्री आपकी माता के समान हुई । हलवाई को मिठाई मिट्टी के समान हुई तथा सबको अपना समझने से तो परस्त्री और परधन भी अपना ही हुया, पराया तो फिर कुछ है ही नहीं।" देखा आपने, कितना स्वार्थपूर्ण अर्थ का अनर्थ हुअा है । पश्यन्ती वाणी अर्थात् देखने वाली वाणी सूत्रों को स्मरण करते समय अन्तप्रज्ञा को प्रकाशित करती है । मन को प्रांखों के समक्ष साक्षात् चित्र For Private And Personal Use Only

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