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मन योग
आवश्यकता होती है, यह शरीर के विष को निकाल देती है। प्राणवायु यदि दीर्घ श्वासी श्वास से लिया जाय तो वह अन्दर तक पहुँचता है । इसीलिये प्राणायाम आवश्यक है। प्रारम्भ में धोरे धीरे दीर्घा श्वास खींच कर शीघ्रता से छोड़ना चाहिये । ५ से प्रारम्भ कर प्रतिदिन बढ़ाते हुए १ माह में ५० प्राणायाम प्रतिदिन तक करना चाहिये। इससे शरार की विद्युत शक्ति प्रदीप्त बनती है। शरीर चेतनावत् बनता है।
मन क्या है ? स्थूल या सूक्ष्म ? उसका निवास शरीर में कहां है ? मादि प्रश्नों पर गहराई से गंभीर चिंतन मनन कर गंभीर विचार प्रस्तुत किये गये हैं । मन अणु है फिर भी उसमें विराट शक्ति है । वह सूक्ष्म तत्त्व है जिसको अांख नहीं देख सकती। भगवती सूत्र में एक महत्वपूर्ण प्रश्न पाता है । गणधर गौतम भगवान महावीर से पूछते हैं "भन्ते ! आत्मा और मन दोनों एक हैं या पृथक पृथक ?" महावीर भगवान ने कहा “मन दो प्रकार का है, द्रव्य मन और भाव मन । भाव मन को अंतःकरमा कहते हैं, वह प्रत्येक संगारी प्रागो के होता है । द्रव्य मन पौद्गनिक है वह सभी को नहीं होता, केवल सज्ञो पचेन्द्रिय को होता है । श्वेतांबर मान्यतानुसार द्रव्य मन संपूर्ण शरीर में व्याप्त है। दिगंबर मान्यतानुसार वह मात्र हृदय में रहता है । अनेक प्राचार्यों ने मन को परिभाषा करते हुए कहा हैं:
'सकल्प विकल्पात्मकं मन:। जिसमें संकल्प विकल्प उत्पन्न होते हों वह मन है ।
एक व्यक्ति भट्टालिका बनाने का कार्य करता है । उसका निर्माण कार्य जैसे-जैसे बढ़ता जाएगा, वैसे हो वैसे वह भूमि से उपर उठता जायेगा दूसरा व्यक्ति कुप्रा खोदने का काम करता है, उसका निर्माण जैसे जैसे बढ़ता जायेगा, वैसे-वैसे वह भूमि तल से नीचे उतरता जायेगा। ऐसी ही स्थिति मानव जीवन की भी है । सत्कर्म करने वाले मानव का जीवन ऊंचा चढ़ता जाता है और दुष्कर्म करने वाले का जीवन नीचे उतरता जाता है। जैसे मिस्त्रियों को काम करने के लिये औजार की आवश्यकता होती है. वैसे ही मानव को भी काम करने के लिये मन, वचन और काया के तीन औजार मिले हैं । ये तीनों कर्म के साधन हैं। जैसे मिस्त्रो अपने अौजारों से अट्टालिका भी बना सकता है और कुप्रा भी खोद सकता है, वैसे ही मनुष्य भी अपने मन, वचन और काया के योग से सत्कर्म भी कर सकता है और दुष्कर्म भी कर सकता है।
मन, वचन काया से दस प्रकार के सुकर्म या दस प्रकार के दुष्कर्म
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