Book Title: Yogshastra
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir

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Page 21
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir योगशास्त्र दूरी से पढ़ने के लिये आया हूँ, हाथी देखने नहीं । आप पाठ पढ़ा रहे हैं तब मैं बीच में ही उठकर हाथी देखने कैसे जाता।" जैसे पाठ पढ़ते हुए बीच में नहीं उठना चाहिये, वैसे ही प्रवचन को प्रधबीच में छोड़कर नहीं उठना चाहिये। योगा शास्त्रवाणी को पूर्ण प्रादर के साथ संपूर्ण सुननी चाहिये। एक सेठ को पूण्ययोग से अच्छी सेवाभावी सेठानी मिली। वह सेठ बहुत आलसी था । सेठ के प्राने पर सेठानी पटिया लगाती, उस पर प्रासन बिछाती, भोजन की थाली परोसती, फिर रोटी का कौर तोड़कर उसके मुह में देती। इतनी सेवा करने पर भी सेठ का मुह चढ़ा हो रहता । एक दिन सेठानी ने कह दिया, "मुह थोड़ा हँसता हुअा रहे तो मुझे भी सेवा में कितना प्रानन्द प्राये। मैं रोटी का कौर तक अपने हाथ से तुम्हारे मुह में 'देकर तुम्हें खाना खिलाती हूँ, फिर भी तुम अपने मुह पर हास्य की एक रेखा भी नहीं बिखेर सकते, इसका क्या कारण है ?" सेठ ने धीरे से कहा, "यह सब तो ठीक है, पर मुंह में दिये हुए कौर को चबाता कौन है ? मैं या तुम?" श्रोताओं ! कहीं आपका भी तो यही हाल नहीं है। प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि तो ज्ञानामृत के भोजन इस योगशास्त्र को पुस्तक के अमर पात्र में रखकर चले गए है, किंतु इस अमृत का पान आप सरलता से नहीं कर सकते । यह अमृत संस्कृत भाषा में है। इसका पान करने के लिए आपको इन भाषामों का ज्ञान हासिल करना पड़ेगा। किन्तु इस समय तो आपको इस अमृतपान का स्वर्ण अवसर प्राप्त हुआ है, क्योंकि प्रवचनकार महात्मा प्रापकी भाषा में इसे प्रापको समझा रहे हैं। ऐसा अवसर तो महान् पुण्य से ही प्राप्त होता है, अतः इसे सार्थक करना प्रब आपके हाथ में है ।। एक दृष्टान्त और सुनिये। एक बीमार रास्ते में पड़ा था। उसी समय एक तरफ से एक वैद्य आया और दूसरी तरफ से एक सेठ आया । वैद्य ने बीमार की नाड़ी देख कर कहा, मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें औषधि देकर स्वस्थ कर दूंगा।" तभी सेठ ने उससे कहा, "यहाँ पड़ा क्या कर रहा है ? चल मेरे साथ चल । For Private And Personal Use Only

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