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योगी किसे कहते हैं ?
प्रयोग भी गूढ़ अर्थ में होता है, सामान्य में नहीं । ब्रह्म अमृत रूपी कला को इस संसार में कोई नहीं पी सकता, पर योगी तो ब्रह्म अमृत के घूट भर-भर कर पीता है ।
जहाँ कोई नहीं पहुंच सकता ऐसे स्थान में भी योगी पहंच जाते हैं । परम पद रूपी अगम्य स्थान को भी योगी पहुंच जाते हैं, इसीलिये तो योगी को अगम्यगामी कहा गया है । योगी पुरुष ही वास्तव में ब्रह्मचारी होते हैं । प्रात्मा का ही पयार्यवाची शब्द ब्रह्म है । ब्रह्म में ही रमण करने वाले, अष्ट प्रहर ब्रह्म का ही चितन करने वाले योगी ही वास्तविक ब्रह्म चारी होते हैं।
एक साधक स्थान-स्थान पर जाकर कहता था कि मुझे चेतना खिला दो। यह सुनकर सभी उसके समक्ष अपनी अपनी मान्यता से चेतना की व्याख्या करने लगे, पर उस साधक को किसी के कथन से संतोष नहीं हुप्रा । आखिर एक योगी उसे मिल ही गया । इस विषय पर आनन्दधनजी ने कहा है'मत मत भेदे रे जो जइ पूछिये, सहु थापे अहमेवा।
अभिनंदन जिन दरशन तरसिये।" साधक ने योगी से कहा "मैं जहाँ जहाँ गया, सभी अपने अपने मत की स्थापना करने में लगे हुए दिखाई दिये । आप ही मुझे चेतना खिला दीजिये। योगी ने विचार किया कि यह साधक बहुत भटक चुका है। यदि मैंने इसे चेतना का सीधा-सा अर्थ बताया तो शायद इसकी समझ में भी न पाये अतः उसने प्रत्यक्ष दृष्टांत द्वारा समझाना ही उचित समझा । उसने कहा, "यहाँ से थोड़ी दूर पर सरोवर है, उसमें एक मच्छ रहता है, उसके पास चला जा, वही तुझे समझायेगा।" साधक उस सरोवर पर गया और मच्छ से बोला, "मुझे चेतना खिला दो।" मच्छ ने गर्दन उठाई और कहा, "मेरा एक काम करो, मुझे बहुत जोर की प्यास लगी है, पहले पानी 'पिला दो।' साधक बोला, “अरे तू पानी में तो है, थोड़ी गर्दन नीचे कर तो पानी ही पानी है, जी भरकर पीले ।" इस पर मच्छ बोला, “सुन रे, साधक ! तू पूरे विश्व में भटकता फिरता रहेगा तो भी तुझे कहीं चेतना नहीं मिलेगी, क्योंकि जिसे तू खोज रहा है, उस चेतना से ही तो तू जीवित है। मात्र दृष्टि को घुमाने की अावश्यकता है । वह तो तेरे पास ही है । भीतर डुबकी लगाते ही तू चेतनामय हो जायेगा।"
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