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(त) अरिहंत पद
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परमपंच परमेष्ठियां परमेश्वर भगवान्
चार निक्षेपे ध्याइए नमोनमो श्री जिनभाए ||
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पंच परमेष्ठि भगवान में श्री अरिहंत भगवान सबसे प्रथम हैं, उन्हें हमारा नमस्कार हो । परमेष्ठि किसे कहा जाता है ? जिस वस्तु को प्राप्त करने के बाद उसे दुबारा प्राप्त करने की इच्छा हो उसे इष्ठ कहते हैं । जिस वस्तु की प्राप्ति के बाद तृप्ति हो जाय, उसे फिर से प्राप्त करने की दच्छा जागृत न हो उसे परम इष्ट कहते हैं ।
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अरिहंत कितने प्रकार के होते हैं ? तीन प्रकार के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और ग्रन्तराय, इन घातक कर्म शत्रुत्रों का जिन्होंने नाश कर दिया है वे अहित कहे जाते हैं ।
मोक्ष कर्मक्षयादेव स चात्म ज्ञान तो भवेत् ।
ध्यानं साध्यं मतं तच्च तद् ध्यानं हितात्मन: ।।
सामान्य केवली और अरिहंत में क्या अंतर है ?
चार काति कर्मों का सर्वथा नाश कर आठ महाप्रतिहार्य एवं ३४ प्रतिशय से जो युक्त हैं और जिन्हें तीर्थंकर नामकर्म का विपाकोदय हो उन्हें अरिहंत तीर्थ कर कहते हैं। जिनमें उपरोक्त बातें न हो उन्हें सामान्य केवली कहा जाता हैं । उनका समावेश साधु पद में होता है ।
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मोक्ष कार्य के क्षय से होता है । कर्म का क्षय श्रात्म ज्ञान से होता है । ध्यान से आत्मज्ञान साध्य है । अतः जो प्रात्मा अपना हित चाहती है, उसे ध्यान करना चाहिये ।
जन्म और कर्म की परंपरा को तोड़ने के लिये पहले क्या करना चाहिये ? जन्म का क्षय या कर्म का क्षय ? दोनों श्रृंखला की कड़ियों के समान हैं । आपका जन्म तो हो ही चुका है जो श्रापको प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है, अतः श्रापको प्रथम कर्म क्षय करना ही उचित है । क्यों कि दान, शील, तप, भावना एवं गुरू, धर्म की पूजा उपासना प्रादि सभी प्रकार का धर्माचरण ध्येय महल में पहुँचने के द्वार हैं । ध्येय तो कर्मक्षय का ही है । इसलिये ध्येय स्वरूप अरिहत का ध्यान प्रावश्यक है ।