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सम्यग्यदर्श : मोक्ष का प्रथम सोपान
तीर्थंकर के किसी भी सिद्धांत की उत्सूत्र प्ररूपणा सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट कर देती हैं, तो समस्त तत्व ज्ञान की अश्रद्धा मिथ्यात्व कैसे न होगी ?
एक समय ७ या & निहत्व, तीर्थंकर की वाणी के एकमात्र अंश का अपलाप कर रहे थे, मर कर वे निहन्व कहलाए । यदि उत्सूत्र प्ररूपणा हो भी जाए, तो भी सद्यः प्रत्यावर्त्तन कर लेना चाहिए ।
ज्ञान को श्रद्धा से तोलना चाहिए, तर्क आवश्यक है, परन्तु तर्क की सही परख किस को है ? तर्क करते-करते तार्किक जब कुतर्क कर जाते हैं, तो उन का सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति का प्रयास ही समाप्त हो जाता है ।
वर्तमान युग तर्क का युग है। तर्क-कुतर्क से मानो हर व्यक्ति अपनी बात की सिद्धि करने बैठा है । क्या तर्क का कहीं अन्त है ? यदि तर्क से किसी बात को मानना है, तो अपनी मानी हुई बात के विरूद्ध तर्क की स्फुरणा न हो, परिणामतः आप सत्य को ही असत्य मान बैठे ।
श्रद्धा का सम्बन्ध अन्ध विश्वास से भी नहीं है ? श्रद्धा का सम्बन्ध तर्क कुतर्क से भी नहीं है। श्रद्धा तो हृदय के विश्वास पर जीवित रहती है ।
श्री सिद्धर्षि गणि २१ बार जैन धर्म से बौद्ध धर्म में गये । जैन गुरु ने कहा था, वे कि यदि तुम बौद्ध धर्म पर श्रद्धा युक्त हो जाओ, तो मेरा वेष मुझे दे जाना । वह जब वेष वापिस लौटाने आया, तो जैन गुरु ने उसके बौद्ध तर्कों का समाधान किया । अब वह जैन धर्म में श्रद्धालु हो कर बौद्ध गुरु को बौद्ध वेष देने जाता है, वहां पुनः उनके तर्कों से उनके धर्म का श्रद्धालु बन जाता है । पुन: जैनगुरु का वेष लौटाने के लिए वापिस आती है । इस प्रकार २१ बार उसने यह नाटक किया, परन्तु अन्त में आचार्य हरिभद्र
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