Book Title: Yogshastra
Author(s): Yashobhadravijay
Publisher: Vijayvallabh Mission

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Page 322
________________ २९६] अपरिग्रह अर्थ :- १. विचार करके स्थानादि की याचना करना, २. बारंबार स्थानादि की याचना करना, ३. स्थान की मर्यादा. . करना, ४. सार्मिक (साधुओं) से स्थान की याचना करना, ५. गुरु से आज्ञा लेकर अन्न जल आदि का उपयोग करना ये ५ भावनाएं अचौर्य व्रत की है। चतुर्थ महाव्रत की भावनाएं :स्त्री षंढ पशुमद् वेश्मासन कूड्यांतरोज्झनात् । सरागस्त्रीकथा त्यागात्, प्राक्कृतस्मृति वर्जनात् ॥३०॥ स्त्रीरम्यांगेक्षण स्वांग संस्कार परि-वर्जनात् । प्रणीतात्यशन त्यागात् ब्रह्मचर्य तु भावयेत् ॥३१॥ अर्थ :- १. स्त्री नपुंसक तथा पशु वाले स्थान, आसन तथा भीत्यन्तर का त्याग, २. रागपूर्ण स्त्री कथा का त्याग, ३. पूर्व स्मृति का त्याग, ४. अंग निरीक्षण त्याग, ५. शृगार तथा सरस एवं अधिक भोजन का त्याग, इन के. द्वारा ब्रह्मचर्य व्रत को भावित-पुष्ट करे। पंचम महावत की भावना :स्पर्शे रसे च गंधे च, रूपे शब्दे च हारिणि । पंचस्विंद्रियार्थेषु गाढं गाय॑स्य वर्जनम् ॥३२॥ एतेष्वेवामनोज्ञेषु सर्वथा द्वेष वर्जनम् । . आकिंचन्य व्रतस्यैवं भावना: पंच कीर्तिताः ॥३३॥ अर्थ :-रम्य स्पर्श, रस, गंध, रूप तथा शब्द में अनासक्ति (अराग) तथा अरम्य स्पर्शादि में अद्वेष, यह पंचम महावत की ५ भावनाएं हैं। पूज्य गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् इन्द्र दिन्न सूरीश्वर जी महाराज के आज्ञानुवर्ती विद्वान् मुनिराज श्री हेमचन्द्र विजय जी महाराज के शिष्य-रत्न मुनि श्री यशोभद्र विजय जी के द्वारा 'योग शास्त्र के हिन्दी विवेचन" का प्रथम भाग समाप्त हुआ। ॥ इतिशम् ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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