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योग शास्त्र
[१८१ ये पांच भावना आचार्य हेमचन्द्र जी ने आप के समक्ष रखी हैं जिस से आप अहिंसा का पालन सरलतया कर सकें । अहिंसा को समझ सकें तथा पाप के बन्धन से बच सकें।
इस हिंसा अहिंसा के प्रकरण में दान में से अभयदान का वर्णन आता है। प्रथम दान अभयदान का वर्णन यहां प्रकरण संगत ही होगा।
अभयदान :-अभयदान सर्वोपरि दान है । इस का अर्थ है-- किसी के प्राणों की रक्षा करना। किसी मरते हुए जीव की रक्षा करना । जीव को अभय देना। सब से बड़ा दान अभयदान है। जो अभय दे देता है उसे भी अभय मिल जाता है। वह किसी प्रसंग में फंस जाए. या कोई कत्ल का आरोप लग जाए तो वह स्पष्ट रूप से बच कर निकल जाता है। यह तभी हो सकता है जब कि हम ने किसी को अभय दान दिया हो । अभय दान पर एक सुन्दर दृष्टांत है रूपवती रानी का । इस प्रसंग का बहुत सुन्दर चित्र हमारे आचार्यों ने किया है।
एक राजा ने एक चोर को पकड़ लिया तथा फांसी का निर्णय सुना दिया। राजा की चार रानियां थीं। उन्होंने राजा से कहा, "यह चोर अब थोड़े दिनों में मरने वाला है। अतः हमें थोड़े दिन उस की सेवा कर लेने दीजिए।" राजा ने स्वीकृति प्रदान की। . पहली रानी चोर के लिए बहुत स्वादिष्ट भोजन तैयार कराती है। चोर जब भोजन खाता है तो देखता है कि स्वादिष्ट एवं सुन्दर पकवान उस के सम्मुख हैं । राजा के घर का भोजन बढ़िया ही होता है। लेकिन उस भोजन में उस का मन नहीं लगा। इतना स्वादिष्ट भोजन वो खाता है परन्तु उसे भोजन का स्वाद नहीं आता। भोजन करने में कोई मजा नहीं आता। ऐसे मजा आएगा क्या ? मस्तक पर मौत की तलवार रखी हुई है। अतः स्वादिष्ट
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