Book Title: Yogshastra
Author(s): Yashobhadravijay
Publisher: Vijayvallabh Mission

View full book text
Previous | Next

Page 299
________________ योग शास्त्र [२७३ मन भौतिक पदार्थों में जाता है, उन्हें पाने के लिए पौनः पुण्येन संकल्प विकल्प करता है तो आप में अपरिग्रह की अल्पता है । "मच्छा परिग्गहोवत्तो", म. (ममता) रखना ही परिग्रह है। मा असत् में भी हो सकती है। जो नहीं है-उस की अभिलाषा, असत् द्रव्य की मर्छा है। वह जहां नदी है वह वहां करने की सोचते रहना, असत् क्षेत्र की मूर्छा है । जो जब नहीं है उसे उस भविष्यादि काल में करने की सोचते रहना, असत् काल की मूर्छा है। अपरिग्रह वर्तमान विश्व की सब से बड़ी आवश्यकता है। आज का संसार परिग्रह-लोभ से दुःखी हो रहा है । जो व्यक्ति परिग्रही लोभी बन जाता है, उस को न दिन में चैन होती है, न रात को नींद आती है। उस का सारा कार्यक्रम Up Set हो जाता है। परिग्रह को छोड़ने के लिए ममता को छोड़ना अनिवार्य है । आप ने सब कुछ छोड़ा, परन्तु उस से ममता न छटी तो त्याग भी निरर्थक है। मूर्छा की सब से बड़ी हानि क्या है ? मूर्छा ममता से मानव अस्थिर हो जाता है । जब मन अस्थिर हो जाता है तब समभाव समाप्त हो जाता है । विषय-कषाय बढ़ जाते हैं। मममता से व्यक्ति चंचल हो उठता है। वह सोचता है कि मैं यहाँ वहां जाऊं तो मेरी इच्छाएं पूर्ण हो सकती हैं। मेरी लोभ वृत्ति को पोषण मिल सकता है। यह सोच कर बिना किसी जाति भेद से प्रत्येक व्यक्ति आठों प्रहर उसी के पीछे लगा रहता है। परिणामतः वह चंचल बन जाता है । अस्थिर हो जाता है। जिसका चित्त अस्थिर होता है, उसे समता संतोष की प्राप्ति नहीं होती । शांति नहीं मिल सकती। शांति का रहस्य निर्लोभिता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330