Book Title: Yogshastra
Author(s): Yashobhadravijay
Publisher: Vijayvallabh Mission

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Page 314
________________ २८८] अपरिग्रह भौतिक स्तर पर परिग्रह का त्याग अत्यन्त कठिन है । मानव कई बार बातें बहुत बड़ी-बड़ी कर लेता है परन्तु उस से धन, वैभव का त्याग नहीं होता । बहुत से लोग तप करके शरीर को सुखाते हैं, प्रतिदिन सामायिक, प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं के द्वारा समय-यापन करते हैं, परन्तु जब दान देना पड़े. कुछ छोड़ना पड़े, तो उन के लिए कठिन होता है। सामायिक करने वाले का, सम की आराधना करने वाले का मन क्या धनादि सम्पत्ति में फंसा रह सकता है ? पौषध करने वाला व्यक्ति क्या थोड़ा भी निःसंग नहीं हो सकता? वर्तमान में तो सामायिक पौषध में धन, आभूषण आदि को स्पर्श किया जाता है ? आभूषण तथा घड़ी भी शरीर से उतारे नहीं जाते, यह सब धर्मार्थ जीव की मोह सूचक दशा है । साधु के लिए यहां सम्पूर्ण निषेध है, जब कि श्रावक के लिए, 'समणो इन सावओ'-सामायिक पौषध में श्रमणवत् सम्पूर्ण का निषेध है। उपधान तप भी समणत्व का अभ्यास करने के लिए ही है परन्तु इन समस्त क्रियाओं के पीछे जो श्रमणत्व साधना का लक्ष्य था, वह विस्मृत कर दिया गया है । हेमचन्द्राचार्य के द्वारा यह पंच महाव्रत-निरूपण प्रसंग में अपरिग्रह का जो विवरण प्रस्तुत किया गया है वह श्रमण के लिए है । श्रावक के व्रतों में स्थित परिग्रह परिमाण व्रत इस से बहुत पृथक् है। ___ साधु की संयम यात्रा को अपरिग्रह की सहचरी कहा गया हैं। जो साधु अपरिग्रही होता है, उस की संयम यात्रा निधि रूप से चलती है। न उस साध को चिंता होती हैं न तनाव । वह तो आत्मीय मस्ती, आनंद-धन की मस्ती में झूमता रहता है। जब उस के पास में कुछ है ही नहीं तो वह 'पर' में रमण करेगा क्यों ? भौतिक रूप से परिग्रह का त्याग हो जाने के पश्चात् ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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