Book Title: Yogshastra
Author(s): Yashobhadravijay
Publisher: Vijayvallabh Mission

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Page 317
________________ योग शास्त्र [२६१ रामतीर्थ ने कहा कि, "यह मार्ग इतना सरल नहीं है । यह तो कांटों का पथ है । तुझे तो हर प्रकार की सुख सामग्री चाहिए। तू संन्यास के कठिन मार्ग पर न चल पाएगी।" परन्तु पत्नी ने अपनी दृढ़ता बताई । रामतीर्थ बोले, देखो ! तुम्हें यदि साथ में चलना हैं तो तुम्हारी परीक्षा होगी। परीक्षण में उत्तीर्ण होने के बाद ही तुम साथ में चल सकोगी। .."पहले तुम सोना, चांदी, वस्त्र आदि समस्त सामान एकत्र करो तथा उन समस्त मूल्यवान् या मल्यहीन पदार्थों की एक गठड़ी बाँधकर मकान के बाहर नाली के किनारे पर रख आओ।" वास्तव में पत्नी के लिए यह कार्य अत्यन्त कठिन था। उस ने न जाने कितने परिश्रम के पश्चात कितनी बार याचना करने के पश्चात् यह जखीरा एकत्र किया था। इस सामान का यं ही त्याग कर देने के लिए उस का दिल न माना । अनमने मन से ही सही, उस ने गठड़ी उठाई तथा चल दी सड़क के किनारे पर रखने के लिए। ___ "चलिए पतिदेव ! अब संन्यास धारण करने के लिए जंगल की ओर" आते ही उस ने मानो मन का बोझ उतारते हुए कहा । : "अभी नहीं ! एक परीक्षा और ! दोनों छोटे बच्चों की अंगुलि पकड़ कर बाजार में ले जाओ तथा जहाँ पर भी बहुत भीड़ का दर्शन हो, वहीं पर इन को छोड़ कर, जानबूझ कर गुम करके चली आओ।" यह कार्य तो 'दुष्कर, दुष्कर' था। जो बालक स्वयं उदर से जन्म ले कर बड़े हुए, जिन के साथ में अपार वात्सल्य है, उन के साथ यह आततायिता ! गज़ब ढह जाएगा ! इन बालकों का पालन पोषण करने वाला कौन मिलेगा? भीड़ में...पराए लोगों में, अजनबियों के मध्य ये बालक अश्रुपूरित नेत्रों से...... रुदन, शोक, हाहाकार मचाते हुए वात्सल्यमयी मां को ढूंढेंगे... Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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