________________
२५४]
ब्रह्मचर्य तक यदि मैं भी तुम्हें आवाज़ दू तथा द्वार खट-खटाऊं तो भी द्वार मत खोलना।"
एक दो चार घंटे तो आराम से बीते । अब शिष्य राज के मन-मन्दिर में भगवान के दर्शन के बदले उस यवति के दर्शन होने लगे। किसी भी तरह उस सुन्दर षोडशी की स्मति असह्य आती जा रही थी। वे विचार करने लगे, "क्या ही अबला थी। परन्तु मेरे जैसे व्यक्ति के ज्ञान-बल को क्षीण कर रही है । क्या उस का रूप था ? एक बार अपूर्ण दृष्टि से उसे देखा । अरे ! मैं भी मुर्ख रहा जो उस से दो मिनट बात भी न कर सका । अब यदि..... ।” वे व्यथित हो उठे। उन का धर्म ‘टने लगा। उन के मन में वेगपूर्ण विचारों को यातायात आरम्भ हो गई । “मैं उस से पूछ लेता कि वह कहां जाएगी, तो ठीक होता । मैं उस से २ बात ही कर लेता । एकांत भी तथा रात्रि भी थी। मदमाता यौवन था, कजरारी आंखें थीं...एक अवसर हाथ से चूक गया।"
उस ने निश्चय किया कि वह एक बार द्वार खटखटा करके देखेगा । सभवतः द्वार खुल जाए।
दिवा पश्यति नो लूकः, रात्रौ काक: न पश्यति ।
अपूर्वः नरः कामांधो, दिवानक्तं न पश्मति ॥ उल्लु दिन में नहीं देखता तथा कौआ रात्रि में नहीं देखता। परन्तु कामांध व्यक्ति न दिन में देखता है न रात में ही।
उसे कामावेग में यह स्मरण भी न हो पाया कि उस ने स्वयं ही तो उसे कहा था कि वह स्वयं द्वार खट खटाए तो भी वह द्वार न खोले। खट्-खट-खट् !! खट-खट-खट् !!! परन्तु द्वार न खुल सका । एक-दो घंटे तक भी जब द्वार न खुल पाया तो आप ने एक नई विधि के बारे में सोचा। भीत में छोटे-छोटे छिद्र थे, वे उन्हीं में झांक-झांक कर देखने लगे। परन्तु जब उन्होंने बहत ध्यान से देखा तो पाया कि अन्दर वह कन्या नहीं, गुरुदेव महर्षि व्यास बैठे हैं। वे आश्चर्य चकित हो गए। इतने में गुरुदेव
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org