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सम्यक् चारित्र वस्तु है । उस की तुलना किसी दान पुण्य के साथ नहीं की जा सकती। यदि कोई व्यक्ति समस्त रत्न जड़ित पृथ्वी का स्वर्ण के पर्वतों सहित दान दे दे, तो वह भी चारित्र की आराधना करने वाले महाव्रत धारी साधु की तुलना नहीं कर सकता । एक व्यक्ति समस्त अर्पित करे तथा एक व्यक्ति कुछ भी अर्पित न करे, मात्र संयम को स्वीकार करे तो संयम को स्वीकार करने वाला व्यक्ति उत्कृष्ट होता है।
साम्राट् श्रेणिक के समय आर्य सुधर्मा स्वामी के पास एक भिखारी द्रमुक ने दीक्षा ली थी। उसे दीक्षित देख कर जनसमूह ने चारित्र धर्म की अवहेलना करनी प्रारम्भ कर दी। परिणामतः आचार्य सुधर्मा स्वामो नगर से विहार करने लगे । जब श्रति तीन से तीव्रतर हो ही रही थी। लोग कह रहे थे, कि कोई भी व्यक्ति जिस को भोजन न मिलता हो, जैन साधु बन सकता है। लोग जैन साधुओं का उपहास करने लगे तथा निम्न वचनों से सम्बोन्धित करने लगे।
मूंड मुंडाए तीन गुण, सिर की मिट जाए खाज ।
खाने को हलुआ मिले, लोग कहें महाराज ॥ आचार्य श्री के विहार के समाचार सुन कर अभय कमार गरुदेव के पास आया तथा उन से विहार का कारण पूछा तो गुरुदेव ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि जहां साधुओं का अपमान होता हो, वहां साधु को रहना नहीं चाहिए। . अभय कुमार ने कहा 'गुरुदेव ! आप मात्र दो दिन और स्थिरता कीजिए, मैं सब कुछ ठीक कर दूंगा।
आगामो दिन अभय कुमार ने नगर में घोषणा करबाई कि कल समस्त नगर जन बड़े-बड़े वस्त्र लेकर राज्य सभा में पहुंचें, कल सब को हीरे, मोती तथा मणिक्त वितरित किए जाएंगे। अगले दिन समस्त प्रजा बड़े-बड़े वस्त्र लेकर राज्य सभा में एकत्र
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