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योग शास्त्र
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मन जाए तो जाए, परन्तु वाणी एवं शरीर को असंयम के मार्ग पर मत जाने देना । मन का भटकान कभी तो समाप्त होगा । मन रूपी वानर की चंचलता कभी तो समाप्त होगी । एक English writer के शब्दों में
Character is a looking glass, broken once, is gone alas. !
चारित्र एक दर्पण है, जिस के टूट जाने पर यह समाप्त हो जाता है । दर्पण का पुनः संधान शक्य है, परन्तु चारित्र का पुनः संधान शक्य नहीं । वस्त्र पर लगा हुआ धब्बा दूर हो सकता है परन्तु चारित्र में लगा हुआ धब्बा कभी दूर नहीं होता । मन वचन का व्यवहार पूर्णतः शुद्ध होना चाहिए । काया का व्यवहार दूषित हो तो कैसा संयम होगा ? कैसा चारित्र होगा ? काया की शद्धि के साथ मन की शुद्धि आवश्यक है । वस्तुतः शुभ मन ही चारित्र का रूप है । यदि मन वचन काया की शुद्धि नहीं होती तो भी उस के लिए परम पुरुषार्थ करना पड़ेगा -
Be hard with yourself.
स्वयं के साथ सख्ती से पेश आओ तथा फिर देखो कि क्या अशक्य है । हो सके तो चारित्र को स्वल्प भी स्वीकार करना चाहिए, यदि न कर सके तो अनुमोदन अवश्य करना चाहिए । क्योंकि यदि आप अनुमोदन करेंगे, तो आगामी जन्म में भी चारित्र की प्राप्ति दुरुह हो जाएगी ।
आचार, विचार तथा व्यवहार की शुद्धि भी चारित्र ही है । जिस का आचार शुद्ध है, वह संयमी होता है । जिस का विचार शुद्ध होता है, उसे संयम ( चारित्र) को ग्रहण करते देर नहीं लगती । विचारों की शुद्धि से ही तो आचार का सम्बन्ध है । यदि विचार ही शुद्ध हो गया, तो अशद्ध आचार रह भी कैसे सकेगा ? विचारों पर ही आचार आधारित है ।
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