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योग शास्त्र
] १३१ उत्थान होता है ? धर्म पत्नी धर्म में जोड़ती है या धर्म से विमुख करती है ?
"भावना तो है ही, इस उत्तर का श्रवण कर वज्रबाह मंज़ाक ही में बोल पड़ा, “जीजा जी ! यदि भावना है, तो विलम्ब किस बात का है ? आप दीक्षा ले लो, 'हम सब आप के साथ हैं।" एक छोटा सा व्यंग्य-बाण वज्रबाहु के कर्म रोग तथा मोह-ज्वर को समाप्त करने में पूर्णतः सफल रहा । वज्रबाहु के मुख के हावभाव कुछ दढ़ निश्चय की प्रतीति करा रहे थे । वज्रबाह रथ से उतरते ही पर्वत की ओर चलने लगे। वे सब से आगे थे । उन के कदम मानो मुक्ति रमणी से मिलने की इच्छा की अभिव्यक्ति कर रहे थे। उन्होंने पीछे मुड़ कर भी न देखा । पर्वत पर वे काफी आगे निकल चके थे।
उदय सम्दर के मन में कुछ विचार आया तथा वह सिर से पैर तक कांप उठा। उसने बहन मनोरमा के आभावान् मुख मंडल की ओर देखा, न जाने वह कितने स्वप्नों को हृदय में संजोए हुए थी । उदयसुन्दर को अपनी गल्ती का अहसास हुआ। वह बज्रबाहु. के पास पहुंचा तथा बोला, "जीजा जी ! आप तो मेरे मजाक का बुरा मान गये।" "नहीं, उदय सुन्दर ! तूने कुछ भी गलत नहीं कहा । तू तो मेरा उपकारी है।" "उपकारी ? लेकिन आप इस तीव्र गति से क्यों चले रहे हैं।" "अभी क्या तू समझा नहीं ? तेरा मज़ाक तो मेरे लिए विरक्ति का कारण बन गया।" "तो क्या सचमुच आप दीक्षा अंगीकार करने ही जा रहे हैं ?" "हां, क्या अभी भी संशय है ?" वज्रबाहु के उत्तर में दृढ़ता का भाव था। मज़ाक ने विपरीत परिणाम दिखाया था। .. बस फिर उदय सुन्दर की आंखों से अश्रुधारा बह निकाली। वह बोला, "जीजा जी ! छोटी सी गल्ती की इतनी बड़ी सज़ा । नहीं ! नहीं ! मुझे क्षमा कीजिए, और वापिस चलिए।" उसे
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