Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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संपादकों
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भारतीय संस्कृति में गुरु का विशिष्ठ स्थान है। अनुकरणीय गुणों से समलंकृत होने से गुरु लोक वंदनीय और पूज्य बनते हैं। गुरु की व्याख्या करते हुए 'कुमारपाल प्रबंध' में कहा गया है- सत्वेभ्य: सर्वशास्त्रार्थ देश को गुरुरुच्यते।।
जो एकान्त हितबद्धि से जीवों को सभी शास्त्रों | का सच्चा अर्थ समझाते हैं, वे गुरु हैं।
वास्तविक गुरु वही है जो शास्त्र से सत्य को पाते हैं, उस सत्य को पाकर वे प्रथम अपनी आत्मानुभूति का विषय बनाते हैं, उसे आत्मसात करते हैं और फिर संसार को उस शास्त्र-सत्य का उपदेश देकर उस ओर संसार को मोड़ देते हैं।
तीर्थंकरों द्वारा प्रसृत शास्त्र-मार्ग का अनुसरण और पालन जैन श्रमण के जीवन का अहम् अंग है। शास्त्र-वचन जिनेश्वरों की आज्ञा है और इस आज्ञा का पालन ही मुनियों का धर्म है । इन शास्त्रों के बाह्य विषय या इन शास्त्रों से विरुद्ध आचरण मुनियों केलिए कदापि आचरणीय और ग्राह्य नहीं हो सकते । शास्त्र-आज्ञा के पालन में कहीं दुराव-छिपाव या किसी गोपनीयता को कोई स्थान नहीं होता।
शास्त्रों के वास्तविक अर्थों का अनुशीलन, शास्त्र की आज्ञा का परिपालन और शास्त्र-शिक्षा का उपदेश यदि जैनाचार्य की प्रथम पहचान है तो इस पहचान के साकार रूप हैं- विश्व वंद्य विभूति, महान ज्योतिर्धर, न्यायाम्भोनिधि आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरिश्वरजी
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