Book Title: Vidyankur
Author(s): Raja Shivprasad
Publisher: Raja Shivprasad

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Page 30
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्यांकुर तक चाड़ी तिलियां होती हैं। केसी हिकमत हे उस मालिक पैदा करने वाले को कि उन कुडोल बिढंगे अंडों से सुडौल सुंदर तितलियां बन जाती हैं । देखो रेशम कैसो बढ़िया चीज़ है और उस मे कैसे केसे उमदा कपड़े बनते हैं। लेकिन वह उसी तरह के कीड़ों का घर है जैसे मकड़ी जाला तनती है ये अपने रहने के लिये रेशम के कोये वना लेते हैं। इन्हीं कायों को पानी में उबालने से जब तार तार सब अलग हो जाते हैं चखों पर मत को तरह कात लेते हैं। और फिर बुनकर मखमल अतनस चेवनी दर्यायो पितम्बर मुटका कोरा गुलबदन मशरूअ कमख़ाब तरह तरह के रेशमी कपड़े बनाते हैं । निदान यह चार किसमें जान्दारों को बड़ी बड़ी बतला दी हैं। नहीं तो इन की सारी किस में कोन गिन सकता है जिस पर भी सवा लाख के ऊपर गिनतो में आ गयी हैं ॥ जेसी जैसी खेाज और तलाश होतो जाता है । दिन दिन नयी नयी वात इन को जानने में आता है ॥ पांच इन्द्रिय जानदार आंख से देखते हैं। कान से सुनते हैं। नाक से संघते हैं। जीभ से चखते हैं ॥ और चमड़े से छते हैं। इन्ही पांचों को पांच इन्द्रिय कहते हैं ॥ इन्हो के वसीले से सब जाना जाता है । जो यह न हो तो इन का काम दूसरे से नहीं निकलता है ॥ अांख बहुत नाजुक होती है। इसी लिये उस मालिक पेदा करने वाले ने बचाव के लिये जिस में गर्ट गबार कोड़ा For Private and Personal Use Only

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