Book Title: Vidyankur
Author(s): Raja Shivprasad
Publisher: Raja Shivprasad

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Page 42
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " विद्याकुर झेलता है। उतना ही जानकार और हाशयार होता है। इसी लिये लड़कों से जवान और जवानों से बुड्डा बढ़कर जानकार और होश्यार गिना जाता है। और छोटा हमेशा बड़े का अदब और ताज़ोम करता है | पर जिस ने किताबें देखों वह तो सेकड़ों बलकि हज़ारों बरस को उमर का हो गया वह तो सब को ताज़ीम और अदब के लाइक ठहरा ॥ काग़ज़ पर सीसे की पिसिल से भी लिखा जाता है। पर वह रबर से जो एक दरन के गोंद या लासे से बनता है मिट जाता है। जब तक छापने को तर्कीब नहीं मालम थी। पोथो हाथ ही से लिखी जाती थी। और इसी लिये कम और महंगी मिलती थो । बलकि जिस किताब को नकल बहुत नहीं फैलतो थी भाग पानी लूट लड़ाई में खो जाने और बर्बाद हो जाने के सबब दुनया से उठ जाती थी। सन् १४३० ईसवी यानी सम्बत १४६४ में जर्मनी यानी अलीमान देम के रहनेवाले जान गटनबर्ग ने छापने को तर्कीब निकाली। तभी से किताब अमर होकर ऐसी सस्ती बिकने और सारी दुनया में फैलने लगी । ढले हुए सीसे के बराबर टुकड़ों पर उभरे हुए उलटे अक्षर जोड़ कर और बेलन से तेल की सियाही लगाने के बाद उन पर काग़ज़ रखकर कल में दबा देते हैं। और फिर हाथों से घुमा घुमा कर छापते चले जाते हैं। लेकिन अब फरंगिस्तान में धुएं के ज़ोर से कलों को घुमाते हैं। हज़ारों आदमियों का काम एक एक कल से ले लेते हैं। लन्दन में इसी धुएं को कल की बदौलत वहां का टाइमज अखबार हर सुबह दो घंटे भर में पचास साठ हज़ार छपकर बट जाता है। जो कोई लिखनेको बेठे तो उमर भर में भी इतना कहां लिख सकता है । अब मोसे के अक्षरों के बदले एक किस्म के नर्म और चिकने पत्थरों For Private and Personal Use Only

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