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पहला हिस्सा
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उस्ताद - समुद्र कभी नहीं बढ़ेगा जितना पानी उस में नदियों का आवेगा उतना ही सदा सूरज की गर्मी से भाफ हो कर उड़ता रहेगा || समुद्र का पानी इतना खारा कि हर्गिज़ पीने के काम में नहीं आसक्ता है । हां जो उस को आग पर किसी बरतन में जला डालो तो नमक अलबत्ता अच्छा सफ़ेद हाथ लगता है ॥ समुद्र स्थिर कभी नहीं रहता उस की लहरें छ घंटे ज़मीन की तरफ़ आती है। और फिर छ ही घंटे उलटी चली जाती हैं | इसी चढ़ाव उतार को जुआरभाटा कहते हैं । वह पच्चीस घंटे में दो बार आता है और सबब उस का चांद बतलाते हैं | क्योंकि पूर्णमासी के दिन समुद्र को लहरें बहुत ऊंची उठती हैं । जहाजवालों को कभी ऊपर कभी तले पहुं चाती हैं | जहाज़ पाल के ज़ोर से चलते हैं । और पतवार से मुड़ते हैं | लेकिन दुखानी यानी धुएं के जहाज़ पालों की परवा नहीं रखते। सामने को हवा से भी कभी नहीं रुकते
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जहाज़ वालों को चारों तरफ समुद्र ही ममुद्र दिखलायी देता है । ऊपर आसमान और नीचे पानी रहता है । तारे भी सदा दिखलायी नहीं देते हैं । एक निरे कंपास यानी ध्रुवमत्स्य के सहारे से अपनी गह चले जाते हैं । अगर द्वारा भी राह भूलें । पानी में छिपे हुए पहाड़ों से टकरा कर उन के जहाज़ टुकड़े टुकड़े हो जावें ॥ यह ध्रुवमत्स्य घड़ों को शकूल पर बनता है । उस में चुम्बक को एक सुई ऐसी होती है कि उम का मुंह सदा उत्ता को रहता है । इसी से उत्तर दक्खन पूरब पच्छम और उन के कोने जान लेते हैं । और जिवर जी चाहता है वे टपाल उडाये या धूम के नये आग जलाये चले जाते हैं
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