Book Title: Vichar Pothi
Author(s): Vinoba, Kundar B Diwan
Publisher: Sasta Sahitya Mandal

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Page 5
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाचाऋण-परिहार चिन्तनमें से प्रयोग और प्रयोगमेंसे चिन्तन, ऐसी मेरी जीवन की गढ़न बन गई है। इसीको मैं निदिध्यास कहता हूं। निदिध्यासमेंसे विचारोंका स्फुरण होता रहता है। उन विचारोंको टांक लेनेकी वृत्ति सामान्यतया मुझे नहीं होती। परन्तु मनकी एक विशिष्ट अवस्थामें एक समय यह वृत्ति उगी थी। सभी विचार नहीं लिखता था। थोड़े लिखता था। उनकी यह विचार-पोथी बनी है । सौभाग्यसे यह प्रेरणा बहुत दिन नहीं टिकी। थोड़े ही दिनोंमें अस्त हई। विचार-पोथी छापनेकी कल्पना नहीं थी। इसलिए वह 'पोथी' ठहरी । विचार भी बहुत-कुछ स्व-संवेद्य भाषामें उतरे । फिर भी जिज्ञासुमोंने पोथीकी नकलें करना शुरू किया । इस तरह करीब डेढ़सी नकलें इन बारह बरसोंमें लिखी गई होंगी। किंतु इन दिनों अशुद्ध लेखनका तथा खराब अक्षरों का प्रचार होने के कारण और मूल प्रतिका आधार सभी नकलोंको न मिलनेके कारण एक-एक नकलमें अपपाठ दाखिल होते गये । फलतः कुछ वचन अर्थहीन हुए । इसलिए आखिर यह छपी प्रावृत्ति निकालनी पड़ी। ये विचार सुभाषित के समान नहीं हैं । सुभाषित के लिए प्राकारकी आवश्यकता होती है। ये तो करीब-करीब निराकार हैं। ये सूत्रके जैसे भी नहीं हैं। सूत्रमें तर्कबद्धता की आवश्यकता होती है । ये मुक्त हैं । फिर इन्हें क्या कहें ! मैं इन्हें अस्फुट पुटपुटाना कहता हूं। इन विचारों को पूर्व श्रुतियों का आलम्बन तो है ही। फिर भी वे अपने ढंग से निरालम्ब भी हैं। ज्ञानदेवकी परिभाषा प्रयुक्त करना अगर क्षम्य माना जाय, तो इसे एक वाचाऋण अदा करनेका प्रयत्न कह सकते हैं। नालवाड़ी २१.१-४२ विनोबा For Private and Personal Use Only

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