Book Title: Vastu Chintamani
Author(s): Devnandi Maharaj, Narendrakumar Badjatya
Publisher: Pragnyashraman Digambar Jain Sanskruti Nyas Nagpur
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वास्तु चिन्तामणि
XXIX
इसी प्रकरण में पृथ्वी की चुम्बकीय धाराओं एवं उत्तर दक्षिण ध्रुवों का उल्लेख किया गया है। ये चुम्बकीय धाराएं पृथ्वी के समस्त पदार्थों पर अपना असर डालती हैं। इस कारण उनकी अनुकूलता एवं प्रतिकूलता तथा उनका शुभाशुभ फल वास्तु शास्त्र का ही विषय है इस प्रकरण में वैज्ञानिक विचारधारा की चर्चा से यह स्पष्ट दृष्टिगोचर होता हैं कि पूज्य गुरुदेव प्राचीन सिद्धान्तों के साथ ही आधुनिक विज्ञान में भी समान रूचि रखते हैं तथा उन्होंने निःसकोच अपनी लेखनी से इसका परिचय भी दिया है।
वास्तु विज्ञान एवं कर्म फल लेख में आचार्यश्री ने जैन सिद्धान्तों की कर्म व्यवस्था की चर्चा की है। आपने मनुष्य का भवितव्य कर्माधीन निरुपित किया है। साथ ही यह भी लिखा है कि अनुकूल या प्रतिकूल वास्तु की प्राप्ति शुभाशुभ कर्मों के उदय विपाक में होती है। आपने इस संदर्भ में यह भी लिखा है कि उपयुक्त पुरुषार्थ करने से प्रतिकूल वास्तु को अपने अनुकूल बनाकर अपने कष्टों में न केवल कमी की जा सकती है वरन् उसे शुभफल प्राप्ति का निमित्त भी बनाया जा सकता है।
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'वास्तु विज्ञान का प्रारम्भ' लेख वास्तु की प्राचीनता को प्रदर्शित करता है। वास्तु का निर्माण कर्मभूमि के आरम्भ में प्रथम तीर्थकर देवाधिदेव आदिनाथ ऋषभदेव स्वामी के उपदेशों से प्रारम्भ हुआ। उन्होंने मनुष्यों को आजीविका के जिन षट्कर्मों का उपदेश दिया उनमें एक शिल्प कर्म भी है। भोगभूमि व्यवस्था में आलयांग जाति के कल्पवृक्षों से आवास गृहों की आपूर्ति का भी विवरण किया गया है। भरत चक्रवर्ती के 16 स्वण्ड के महल, नव निधि चौदह रत्नों का वर्णन भी इनमें नामोल्लेख के लिए किया गया है। तीर्थंकर की समवशरण सभा का विवरण भी पाठकों की जानकारी में वृद्धि करेगा । प्राचीन शिल्प कला वैभव की जानकारी भी इससे मिलेगी ।
खण्ड द्वितीय में आचार्यश्री ने भूमि से सम्बंधित विषयों का आख्यान किया है। इनमें भूमि का चयन करने के लिए प्राचीन जैन सिद्धान्तों के अनुसार गज, कूर्म, दैत्य एवं नाग पृष्ठ भूमियों के भेद विभिन्न दिशाओं में चढ़ाव एवं उतार की अपेक्षा से किये गए हैं। आधुनिक वास्तुकारों का मत इनसे भिन्न नहीं है। इस खण्ड में जैन ग्रन्थ वास्तुसार की गाथाओं का प्रचुरता से उल्लेख किया गया है। भूमि परीक्षण के लिए सात प्राचीन विधियों का वर्णन दर्शनीय है। समरांगण सूत्र के अनुसार वर्णित भूमि के भेद स्पर्श की अपेक्षा से जानकर उपयुक्त भूमि का चयन करना इच्छित है। वृहत्संहिता में भूमि की गंध का भी वर्णन है तदनुसार भूमि का परीक्षण करना उपयुक्त