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योग्य हैं, उनकी प्रशंसा करें और जो सुनने योग्य हैं, उन्हें अच्छी तरहसे सुनें ।
मन वचन और कायसम्बन्धी ऐसी प्रत्येक क्रिया जो कि परिणामोंमें थोड़ीसी भी मलिनता उत्पन्न करनेवाली अतएव मोक्षकी रोकनेवाली ( अशुभआस्रवरूप ) हो, अपनी भलाई चाहनेवालोंको छोड देनी चाहिये । (हेय )
जिसके करनेसे चित्त मोतीक़ी माला, बर्फ, गायके दूध, कुन्दके फूल और चन्द्रमाके समान निर्मल होता है, वह ( शुभास्रवरूप ) कर्म बुद्धिमानोंको करना चाहिये । ( कर्तव्य )
जिनका अन्तरात्मा निर्मल हो गया है, उन्हें तीन लोकके नाथ जिनेन्द्रदेव, उनका निरूपण किया हुआ जैनधर्म, और उसमें स्थिर रहनेवाले पुरुप, इन तीनोंकी ही निरन्तर प्रशंसा करनी चाहिये । (श्लाघ्य)
और जिनकी बुद्धि श्रद्धासे भले प्रकारसे शुद्ध है, अर्थात जो सम्यग्दृष्टी जीव हैं, उन्हें सम्पूर्ण दोषोंका ( पापोंका) नाश करनेके लिये सर्वज्ञके कहे हुए सारभूत वचनोंको ही जी लगाकर सुनना चाहिये । (श्रोतव्य)
अब सर्वज्ञदेवके वचन ही जगत्के हितकरनेवाले और सुननेके योग्य हैं, ऐसा विचार करके यहांपर पहले उन्हीका प्रकरण है इस कारण उन वचनोंके ही अनुसार महामोहादिकी मिटानेवाली और भवोंके विस्तारको बतलानेवाली इस भवप्रपंचाकथाके कहने का प्रारंभ किया जाता है ।
आस्रवके करनेवाले पांच महादोष अर्थात् हिंसा, चोरी, झूठ, कुशील, और परिग्रह, पांच इन्द्रियां, महामोहसहित चार कषाय