Book Title: Udisa me Jain Dharm
Author(s): Lakshminarayan Shah
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission

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Page 14
________________ अर्थात्, जो जरूरत के मुताविक माहार-विहार, कर्म की बेष्टा, निद्रा-जयरण करता है उसका योग दुख दूर करने वाला होता है। इसमें एक तरफ कृच्छ साधना मोर कर्ममें प्रतिनिष्ठा माना है और दूसरी तरफ भोग का स्वच्छदाचरण या यषेच्छाचार भी मना है। यही शाक्यमुनि का सस्कृत जैनधर्म या बौवधर्म है, और महामहिम सम्राट अशोक ने बौद्धधर्म के रूप में इसी जैनधर्म को अपनाया था। उन्होने एक दिन इस धर्म का प्रचार किया था पोर उसकाल के सभ्य जगत् में अहिंसा की साधना को कूट-कूट कर भर दिया था। इसलिए बौद्धधर्म का नाम फैल गया । लेकिन ईसवी पहली सदी के पहले इस अध्यात्म या प्रात्म-स्वरूप-सेवा सस्कृत जैनधर्म या बौद्धधर्म में भक्तिधर्म पूरी तरह प्रवेश कर चुका था । उसी का नाम 'महायान' पड गया है। इसके पहले का बौद्धधर्म हीनयान बौद्धधर्म माना गया। महायान से पूर्व जो जैन थे उनमें से बहुत से हीनयानी कहे गये । पुरी के जगन्नायजो इसका स्पष्ट निदर्शन है। 'जगन्नाथ' एक जैन शब्द है । यह ऋषभनाथ से मिलताजुलता है । ऋषभनाथ का अर्थ सूर्यनाथ या जगत के जीवनरूपी पुरुष होता है । ऋषभ का अर्थ सूर्य है । यह प्राचीन बेबिलोन का आविष्यकार है । Prof. SAVCH ने अपने Hibbert Lectures (1878) में साफ समझाया है कि इस सूर्य को वासन्त विषुवमें देखकर लोग जानते थे कि हल करने का समय हो गया और वे हल जोतते थे। इसलिये कहने लगे कि वृषभ का समय हो गया। उस समय माकाशमें वषम राशिका पारम्भ होता है । इसीसे लोगो में सूर्यका नाम वृषभ या ऋषम पड गया। इसके पहले लोगो में यह धारणा जम गई थी कि यह सूर्य ही जगत का जीवन है । अति प्राचीन मत्र

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