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रीता है
जैसे नित्रा में (हम) सुरु भोगते हैं, पर बात में उ का कोई लाभ हमें नहीं मिलता।
गृहबंध में नारी के साथ अनुदिन रहकर उसके साथ पति-पत्नी का संबंध रसकेर
(मनुष्य) मेरा गृह, मेरो मनं, कह कर धौर मांगा में घाच्छन होकर बद्ध रहेगा
तब तक उसके सारे कर्म-बंध खंडित नहीं होंगे !
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मैं हरि ह, प्रचिल (ष्टि) का गुरु हूं, बेही होकर मुझे ही भजो ।
जो नियत चित्त होकर मेरे पर्वो पर भक्ति रखती हैं, हिंसा और व्यसनों से परे होकर मेरी धारोधना करता मेरे गुण और कर्मों का निरन्तर कीर्तन करता है, एकांत भाव से मुझे याद करता है, इन्द्रियों के दमन तथा प्रध्यात्मविद्या के प्राचरच पूर्वेक, श्रद्धा पूर्वक ब्रह्मचर्य धारण करता है
(तथा) प्रशांत मीर वचन में सच्चा हैं,
उसका गृह बंधन नहीं हैं और वह भवजन्म से मुक्ति पाता है।
उसके कर्म-धन्धों को प्रक्लेश ही में काट देता हूँ, जिनकों से मात्मा का श्रेय है उन कर्मों पर पॉपर लोग श्रद्धा नहीं रखते थोड़े से सुखं के लिए मतिभ्रम होकर शेष दुःख का कारण अनेक हिंसा का धारण करते हैं उनकी दृष्टि नष्ट हो जाती है और वे अविद्या में भ्रमित
होते हैं।
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