Book Title: Udisa me Jain Dharm
Author(s): Lakshminarayan Shah
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोर सेवा मन्दिर दिल्ली क्रम संख्या काल न० खण्ड 3664 २ (५४१४) 'साहू Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मुलि का पुष्प उड़ीसा में जैन MAP लक्ष्मी नारायसाह म. .. . जड़ीसा साहित्य अकादमी .. वीर नि.सं० २४ विक्रमाब्द २०१६ किष्टाद १९५E श्री अखिल विश्व जैन मिशन अथम संस्करण } अलीगंज (एटा) ई महीन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: अखिल विश्व जैन मिशन. अलीगंज (एटा) जियो और जीने दो ! अहिंसा परमोधर्मः यतो धर्मस्ततो जयः निबलों को मत त्रास दो ! मुक:महावीर मुद्रणालय अलीगंज (एटा) उ०प्र० Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ● दो शब्द * 'सुपवत-विजय-चक्र- कुमारीपवते ॥१॥ १४ खण्डगिरि-उदयगिरि के प्रसिद्ध और प्राचीन हाथीगुफा शिलालेख के उक्त वाक्य में स्पष्ट कहा गया है कि कुमारी पर्वत से जैनधर्म का विजयचक्र प्रर्वतमान हुआ था । उसी शिलालेख से यह भी सिद्ध है किं कलिंग में अय-जिन ऋषभ की विशेष मान्यता थी- उनकी मूर्ति कलिंग की राष्ट्रीय निधि मानी जाती थी, जिसे नन्दराजा पाटलि पुत्र ले गये थे। किंतु खारवेल कलिङ्ग राष्ट्र के उस गौरव चिन्ह को विजय करके वापस लाये थे । 'मार्कण्डेयपुराण' की तेलुगु आवृत्ति से स्पष्ट है कि कलिङ्ग पर जिस नन्दराजा ने शासन किया था वह जैन था। जैन होने के कारण ही वह अमजिनकी मूर्ति को पाटलिपुत्र ले गया था। इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि कलिङ्ग में जैन धर्म का अस्तित्व एक अत्यन्त प्राचीन काल से है। स्वयं तीर्थंकर ऋषभ और फिर अन्त में तीर्थकर महावीर ने कलिंग में विहार किया और जैन धर्मचक्र का प्रवर्तन कुमारी पर्वत की दिव्य चोटी से किया। भ० महावीर के समय में उनके फूफा जितशत्रु कलिंग पर शासन करते थे। उनके पश्चात् कई शताब्दियों तक जैन धर्म का प्रभाव कलिंग के मानव जीवन पर बना रहा; परन्तु मध्यकाल में वह हतप्रभ हुआ। फिर भी उसका प्रभाव कलिंग के लोक जीवनमें निःशेष न हो सका। आज भी लाखों सशक-प्राचीन श्रावक (जैन) ही हैं। पूज्य स्व० म० शीतल प्रसाद जी ने कलिंग, जिसे आज कल उड़ीसा कहते हैं, उसमें ही 'कोटशिला' जैसे प्राचीन तीर्थ का पता लगाया था, किन्तु उसका उद्धार आज तक नहीं हुआ है ! मत कहना होगा कि निस्संदेह कलिंग अथवा उड़ीसा जैन धर्म का प्रमुख केन्द्रीय प्रदेश रहा है और उसने वहां के जन जीवन को अहिसा के पावन रंगमें रंगा है । यद्यपि आज उड़ीसा में एक भी जैनी नहीं है, फिर भी उसका प्रभाव अब भी जीवित है। उड़ीसा सरकार के प्रधान मन्त्रीमा श्री डॉ० हरेकृष्ण मेहताब इस प्रभाव से अपरिचित नहीं है। वह स्वयं अहिंसा के एक जीवित प्रतीक हैं। उनसे जब अ० विश्व जैन मिशन ने यह निवेदन किया कि कुमारी पर्वत पर कलिंग की पूर्व परम्परा के अनुसार, एक हिसा सम्मेलन बुलाया जाय, तो उन्होंने इस सुझाव को पसंद Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जिसके लिए मिशन उनका आभारी है और लिखा कि इस वर्ष तो नहीं, किन्तु सभव है कि सन् १६६० में ऐसा अहिसा सम्मेलन बुलाया जा सके । मा० प्रधान मंत्री का यह आश्वासन अहिंसा के लिये एक विशेष महत्व का है। कलिंग में जैनधर्म के लिये एक दूसरी गौरवशाली बात यह भी है कि वहाँ के सर्वश्रेष्ट और लोक प्रसिद्ध शासक कलिंग चकवर्ती सम्राट् खारवेल जैन धर्मानुयायी थे। कलिंग के राजवंश में जैनधर्म कई शताब्दियों तक मान्य रहा था । खारवेल जैसे वीर विजेता के आगमन की वार्ता को सुनते ही विदेशी यवन दमत्रयस (Demiterius) मथुरा छोड कर भाग गया था । सचमुच भारतीय स्वाधीनना के सरक्षक वीर खारवेल थे । किन्नु यह एक बडी कमी थी कि इन महान वीर शासक और कलिंग देशमें जैनधर्म के प्रभाव की परिचायक कोई भी पुस्तक हिन्दी में न थी । इस कमी की पूर्ति करने का विचार कई बार सामने आया, पर समय पर ही सब काम होते हैं । 0 संभवतः सन् १६५७ में किसी समय कटक के वयोवृद्ध विद्वान् डॉ० श्री लक्ष्मीनारायण जी साहू ने हमें लिखा कि वह 'उडीसा में जैन घ' विषयक थीसिस लिख रहे हैं, जिसके लिए उनको कई ग्रंथों की आवश्यकता है। मिशन का अन्तर्राष्ट्रीय जैन विद्यापीठ इस प्रकार की शोध को सफल बनाने के लिये ही है । अतः साहू जी को साहित्य भेजा गया और उनको पूरा सहयोग दिया गया । श्रखिर उनकी थीसिस पूरी हुई और उत्कल विश्वविद्यालय ने उसे मान्यता देकर साहू जी को डॉक्टर की उपाधि से विभूषित किया । यद्यपि उन्होंने इसे उडिया भाषा में लिखा था और उड़ियाभाषी जनों का अभाव होते हुए भी उसका प्रकाशन कटक से सुन्दर रूप में हुआ देखकर हमें लगा कि उडिया भाइयों में अपनी प्राचीन धर्म सस्कृति के प्रति कितना गहन आदर भाव है। इसी समय हमने डॉक्टर साहू को लिखा कि वह इसे हिन्दी भाषा में लिखें तो यह मिशन की विद्यापीठ द्वारा मान्य की जाकर प्रकाशित हो सकती है। हिन्दी का विशेष ज्ञान न रखते हुए भी उन्होंने हमारे सुझाव को स्वीकार किया और अपने मित्रों के सहयोग से इसे हिन्दी का रूपान्तर देकर राष्ट्रभाषा को गौरव न्वित किया है । अप्रेल ५८ को भोपाल के अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा सम्मेलन में Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् सेठ अमरचन्द जी जैन, पहाड्या सा० कलकत्ता (आपके ही आर्थिक सहयोग से प्रस्तुत पुस्तक प्रकाशित हो रही है । एतदर्थ धन्यवाद । ) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिशन विद्यापीठ द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ मान्य हुआ और इसके उपलक्ष में डॉक्टर साहू को 'इतिहास रत्न' की उपाधि से विभूषित किया गया । इसके लिये मिशन डॉक्टर साहू का अत्यन्त आभारी है । डॉ० साहू ने बडै परिश्रम से खोज करके इसे लिखा है और इसके लिये उपयुक्त चित्र भी आप ही ने हमें भेजे हैं। उनके निष्कर्ष और परिणाम अपना महत्व रखते हैं । सभव है कि उनसे कोई विद्वान कहीं पर सहमत न हो. किन्तु फिर भी उनकी प्रामाणिकता में सशय नही किया जा सकता । निस्सदेह उन्होने उडीसा में जैनधर्म का परिचय उपस्थित करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी है । इस वृद्धावस्था में- स्वांस रोग से पीडित होते हुये भी- आपकी ज्ञानोपासना की लगन अनुकरणीय और प्रशसनीय है । भोपाल मिशन अधिवेशन के सनापति पलासवाडी के कर्मठ वीर और धर्म प्रभावक दानवीर श्रीमान् सेठ अमरचन्द जी पहाड्या इन विद्वानों की रचनाओं से ऐसे प्रभावित हुये कि उन्होने उसी समय ग्रन्थ प्रकाशन के लिए मिशन को पांच हजार रु० प्रदान करने की घोषणा की। सेठ सा० की इस दानशीलता से इस प्रकाशन सुगमसाध्य हुआ है। मिशन सेठ सा० का भारी है और उनसे वह और भी विशेष आशा रखता है । पुस्तक आपके समक्ष हे जो मिशन के सदस्या को भेंट की जा रही है । कुछ प्रतियां बचेंगी, जिनको सर्व साधारण पाठक भी प्राप्त कर सकेंगे। आशा है, पुस्तक सभी को रचिकर होगी । विनीत समনভिलाह जैन - नरेश संचालक अ० वि० जैन मिशन अलीगंज (एटा) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-प्रवेश पपश्री श्री लक्ष्मीनारायण साहू जी ने जीवन की परिणत अवस्थामें पूर्वापर सगति के साथ विधिवत रूपसे जैनधर्मके बारे में एक सय लिखा है। इस प्रथको मोड़ीसा विश्वविद्यालय में देकर इसके लिये डाक्टरकी उपाधि प्राप्त करनेकी सुखद कल्पना उन्हें रही। जैनधर्मके ऊपर,खास कर उत्कलके जैनधर्म के सबध ऐसा दूसरा पथ मेंने पहले नही देखा था । अभी तक प्राप्त पुराविद तय्यानुकूल-उस्कलके धर्मराज्यमें जैनधर्मका जो स्थान है, उसे उन्होंने इतिहास-परंपरा तथा सामाजिक विश्वास पौर अनुष्ठान मादिसे बहु प्रयत्न मोर प्रयासके साथ चुनकर लिखा है और उस पर पालोचना की है। बीच बीच में प्रसगके अनुरोध से उन्होंने ऐतिहासिक गवेषणाके नूतन माविष्कारोके पर जो सादर निर्देश किया है, वह बड़ा ही सुन्दर और उपादेय रहा है। गवेषणाका प्रकार उत्कल तथा भारतके ऐतिहासिक क्षेत्र में ऐसी बहुत-सी बातें हैं जिनको सत्य या निश्चय मान लेना ठीक नहीं होगा । लेकिन मालोचनाके लिये नयो गवेषणाके सिद्धांतोंको सबके सामने रखना उपादेय है। उदाहरण के लिये सम्राट खारवेलके समयका निरूपण और 'मादला पाजि' (पुरी का पचाग) के 'बक्तबाह उपाख्यान' में डा० नवीनकुमार साहु के द्वारा पाविष्कृत मुरुडवशियोके शासनका जो मामास और मालोचना Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरो माया मैने इन क्षेत्रों में साक्षात् रूपसे मालोचना करनी कुठे हद तक छोड़ दिया है। प्रथ पाठका शारीरिक श्रम भी अब मेरे लिये प्रायः संभव नहीं है, फिर भी इस क्षेत्रमें जो इस परिणत वपमें जो प्रतिष्ठित धारणा हो गया है,उसके बल पर कुछ लिख रहा हूँ। मेरामुख्य श्रीलक्ष्मीनारायणजी ने जैनधर्मके सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है वह सब उपादेय है,लेकिन उनके इन विचारों तथा पालोचना से जैनधर्मकी सारी बातें समझी नहीं जासकतीं। सिर्फ उत्कल या भारत में ही नहीं बल्कि पुराने सम्यमानव समाज में भी जैनधर्म की बडी प्रतिष्ठा थी। उसके सकेत और निदर्शन प्राज भी उपलब्ध है। भारत में अब भी इस धर्मको प्रतिष्ठा,प्रभाव मौर प्रतिपत्ति सभी प्रचलित धोंमें प्रतिष्ठित और प्रचारित है, यद्यपि विभिन्न कारणो से इसकी यह प्रतिष्ठा पूरी तरह दिखतो जरूर नही हैं और इस्लाम या ईसाई धर्म का सा प्रचार भी नहीं है, जिससे कि स्पष्ट दिखाई दे । जैन नामका एक संप्रदाय अब भी भारतमें है। पृथ्वी पर भन्यत्र जैनधर्म प्रभी तक स्वतत्र धर्मके रूपमें नहीं दिखा है,लेकिन भारत में है। और भारत का यह जैनधर्म कुछ हद तक पादान प्रवान के कारण दूसरे धोका सा हो गया है। इसलिये उसमें श्री लक्ष्मीनारायणजी ने जैनधर्म का जो स्वरूप बतलाया है वह पूर्णतः स्पष्ट नही है । फिर भी कहा जा सकता है, कि जैनधर्म भवभी भारतमे चिरस्थायी रूपमे है। खासकर उत्कल में प्राचोन कलिंग के कालसे इस धर्मका प्रमुख्यत्व था और प्रभाव बड़ा गहरा था। इसके बहुतसे प्रमाण है। अब भी जगन्नाथजी में इस के सारे प्रमाणों की खोज की जा सकती है । इसके अलावा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माजसे करीब २५०० साल पहले इस जैनधर्म से जिस बौद्धधर्म का उद्भव हुमा था, उसकी विशेष मालोचना भी जरूरी है। इसके निर्णय में अबतक पश्चिमी मोर भारतीय प्रत्नतत्त्वविदों के बहुत से श्रम रह रहे है । पौर खारवेल प्रादिके समय में को याद रखना होगा कि वे और उनके जमाने का धर्म पौर उनके बाद एक हजार साल के बाद का धर्म यद्यपि जैनधर्म के नामसे ख्यात है फिर भी विशुद्ध जैनधर्म नही हो सकता । मुमकिन है कि तब तक इस पर बौद्धधर्म का प्रभाव पड़ गया होगा। उत्कल में यद्यपि वह धर्म के नामसे प्रचलित था, फिर भी शायद उसके साथ हीनयान बौद्धधर्म मिल चुका था। विशेषत.ह्य एनसां के विवरण और बुददन्त की सिंहली परम्परासे यह जाना पाता है। ह्य एनसां के कालकी बात ह्य एनसां के काल में चीनो तथा तद्विद् पण्डितो के विचारमें बौद्धधर्म का प्रथं 'महायान बौद्धधर्म'था। उस समय पूर्वी भारत में सभव है कि वज्रयान तक का विकास हो चुका था। इसलिये वे समझते थे कि बौद्धधर्म के माने निग्रहानुग्रह समर्थ भगवान बुद्धका धर्म अथवा शून्यवादी घोर वामाचारियो का प्राचार है। उस समय यथार्थ मौलिक बौद्धधर्म हीनयानी बौद्धधर्म में पर्यवसित हो चुका था । मुमकिन है कि जैनमियों में से कितने ही हीनयानी बौद्धोके रूप में परिचित थे। जिनको अपने धर्म के प्रतिपादन के लिये हर्षबर्द्धन ने बुलाया था, वे बैन थे। जैनधर्म और बौद्धधर्म अफसोस की बात है कि उन्नीसवी सदी के योरोपीय प्रत्नतात्त्विकोने इस बात को गलत रूपमें समझ कर भारत तथा ससार के लिये एक प्रपपरम्परा बना दी है । सुनने को Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मिलता है कि पूर्वी भारतमें गौतमबुद्ध नामका कोई नामी पुरुष हमा था, जिसने वैदिक यागयज्ञ और जातिभेद के खिलाफ सपना मत प्रकाशित किया था, बस, मालोचना उसी बास्ते पर पागे बढ़ी। तब माना जाता था कि बौदधर्म से बैनधर्म की उत्पत्ति हुई है। पर्मन पण्डित जैकोबी और उनके मतको मानने वालोंने धीरे-धीरे इस धारणाका खण्डन किया,उनके मतमें बैनधर्म पहलेसे था। तथापि वह भी शाक्यमुनि बोवधर्म के समान वैदिकधर्मका विरोधी बताया गया था। लेकिन दसअसल यह धारणा गलत है । पडित लक्ष्मीनाराणजी ने भी भ. पार्श्वनाथ तथा उनकी साधनाके प्रति सकेत करके प्रालोचना करते हुए जैनधर्मको इस प्राचीनता तथा परम्परा के बारेमें बहुत सी सूचनाएं दी हैं । वस्तुतःजैनधर्म ससारमें मूल प्रध्यात्म धर्म है। इस देश वैदिक धर्मके माने के बहुत हो पहलेसे यही में जैनधर्म प्रचलित था। खूब सभव है कि प्राग्वैदिकोंमें, शायर द्राविडोमें यह धर्म था। बादमे इस धर्मकी साधनामें एक दिशा सभोग-स्पृहा का नाश करने के लिए कृच्छ.साधनाका मार्ग मोर दूसरी विशामें अतिरिक्त संभोग से ऊबकर त्याग करने का मार्ग प्रकाशित हो चुका था। शाक्यमुनि बुद्धने इन दोनोके वीचका मार्ग अपनाया था भौर वे अन्तिम जनधर्मके संस्कारकसे भारत में है। वह अपने को साफ २ 'जिन' भी कहते थ । शाक्यमुनि इतने बरक्यो हुए :इस मध्यम मार्गके कारण 'जिन शाक्यमुनि'लोक प्रियबने। यहा कहा जासकता है कि उनके द्वारा सस्कृत नमाव 'गीता' में गृहीत है। उदाहरणके तौर पर देखिये गीता बोलती है कि: "पुक्ताहार बिहारस्य पुक्तचेष्टस्य कर्मसु । गुस्तापाययोषस्य योगो भवषि सहा. गीता-पष्ठ अध्याय, १७ वा श्लोक। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात्, जो जरूरत के मुताविक माहार-विहार, कर्म की बेष्टा, निद्रा-जयरण करता है उसका योग दुख दूर करने वाला होता है। इसमें एक तरफ कृच्छ साधना मोर कर्ममें प्रतिनिष्ठा माना है और दूसरी तरफ भोग का स्वच्छदाचरण या यषेच्छाचार भी मना है। यही शाक्यमुनि का सस्कृत जैनधर्म या बौवधर्म है, और महामहिम सम्राट अशोक ने बौद्धधर्म के रूप में इसी जैनधर्म को अपनाया था। उन्होने एक दिन इस धर्म का प्रचार किया था पोर उसकाल के सभ्य जगत् में अहिंसा की साधना को कूट-कूट कर भर दिया था। इसलिए बौद्धधर्म का नाम फैल गया । लेकिन ईसवी पहली सदी के पहले इस अध्यात्म या प्रात्म-स्वरूप-सेवा सस्कृत जैनधर्म या बौद्धधर्म में भक्तिधर्म पूरी तरह प्रवेश कर चुका था । उसी का नाम 'महायान' पड गया है। इसके पहले का बौद्धधर्म हीनयान बौद्धधर्म माना गया। महायान से पूर्व जो जैन थे उनमें से बहुत से हीनयानी कहे गये । पुरी के जगन्नायजो इसका स्पष्ट निदर्शन है। 'जगन्नाथ' एक जैन शब्द है । यह ऋषभनाथ से मिलताजुलता है । ऋषभनाथ का अर्थ सूर्यनाथ या जगत के जीवनरूपी पुरुष होता है । ऋषभ का अर्थ सूर्य है । यह प्राचीन बेबिलोन का आविष्यकार है । Prof. SAVCH ने अपने Hibbert Lectures (1878) में साफ समझाया है कि इस सूर्य को वासन्त विषुवमें देखकर लोग जानते थे कि हल करने का समय हो गया और वे हल जोतते थे। इसलिये कहने लगे कि वृषभ का समय हो गया। उस समय माकाशमें वषम राशिका पारम्भ होता है । इसीसे लोगो में सूर्यका नाम वृषभ या ऋषम पड गया। इसके पहले लोगो में यह धारणा जम गई थी कि यह सूर्य ही जगत का जीवन है । अति प्राचीन मत्र Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने में असमर्थ हो कर खुद बस के भक्त बन गये थे। इसी बीच क्षीरधर नामका राजा इस दतके लिये पांडुराज पर माक्रमण करके खुद युद्ध में मरगया था । अंतमें जब वह राज्य छोड़ सन्यासी बने तब स्वयं पाराजने कलिंगराज गुहशिव के जरिये इस दंत को कलिंग में वापस भेज दिया था। गुहशिव इस दत के लिये अपने दतपुर में ही क्षोरघर के भतीजे के द्वारा अवरुद्ध हुए, इधर उज्जयिनी के राजकुमार ने पाकर कलिंगराजकुमारी हेममालासे शादी की। गुहशिवने उन दोनों के हाथ दत का भार सौपा, दोनो का नाम हुमा दतकुमार पौर दतकुमारी, दोनो दत को लेकर जहाज में सिंहल गये। इस हिसाब से मालूम होता है कि ३११ ई० में यह दत सिंहल पहुंचा था। यह भी सिंहलके एक शिलालेखसे समर्थित होता है। दन्तका इसके बादका इतिहास बहुत लम्बा है। उससे मालूम होता है कि दत नाना स्थानो मे गया है। कलिंगसे सिंहल, सिंहल से ब्रह्मदेश और उसके बाद रोमन कैथिलिक मिशनरियो के हाथ गोमा में पहुचा है। और वही मिशनरियो के द्वारा लिहाई पर चुरकर समुद्र में गया है । लेकिन सभी कहते है कि असली दात हमने छिपा रखा है । दत जिधर भी गया है या जिसने भी लिया है वह एक नकली दत है । इसलिये ज्यादा लोग विश्वास करते है कि असली दत अब भी कलिग या पुरी में मौजूद है और जगन्नाथ जी के पेटमें ब्रह्मरूपमें है। प्राजके जगन्नाथ चतुर्षा जरूर है या सुदर्शनको छोड़ शेषा है-जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा । इत तोन मूर्तियो के पेट में दंतके तीन भाग ब्रह्मरूपमें रखे है या और कुछ है-इसके बारेमें कोई ठीक ठीक कह नहीं सकता। कुछ भी हो, इससे स्पष्ट है कि दक्षिण भारत में जो सिंहलो दंतका गल्प है वह पूर्ण रूपसे बुद्धदत का गल्म नही है। कलिंगमें जैनोंके जिस जिनशासन पीठके होने की बात Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हामोगुफा के खारवेल के लेखसे प्रमाणित होती है, उसोका यह बोर-संस्करण है । यह जगन्नाथ की परम्परा मूलतः पूर्णरूपमें बनधर्म की है । 'नाथ' शब्द पूर्णरूपसे जैनधर्मका निदर्शन है। संस्कृत में नायके माने होता है- जिससे मांग की जाती है। समता है, पहले इसका अर्थ उपास्य 'पारमारूपी पुरुष वा । कालक्रमसे बादको इसका मर्ष भक्तिधर्मके अनुसार होगया है। जैनधर्म प्रध्यात्म धर्म है - जैनधर्मको समझनेके पहले यह समझना जरूरी है कि धर्म क्या है ? संसार में दो प्रकार का धर्म होता है । पहला भक्तिधर्म और दूसरा मध्यात्मधर्म है। भक्तिधर्म एक प्रकार से मानव का स्वभाविक धर्म होता है। पहले लोगो को अधिक शक्तिशाली पूर्वजों से भक्ति होती पो, इसीसे धीरे धीरे साम्राज्य के भावका उदय हुमा, क्रमशः राजामो पोर सम्राटोंका प्रत्याचार बढने लगा और उससे 'एकेश्वरवाद' नामका प्रतिष्ठित कुसस्कार प्रकाशित हुमा । उसोके लिये इस संसारमें जो विवाद, वन्द्र और नरहत्या की गई है उसे समझाने जायें तो धर्मध्वजी मताधता तथा असहिष्णुता के साथ अपना धर्मभाव प्रगट करेंगे, उसको वर्णनाअनावश्यक है। यह मनुमेय है कि ऐसे ही एकदिन मसुरदेशके असुरदेवका उत्थान हुमा था । भोर वे ही एक तरफ इस अत्याचारके दूसरी तरफ इस एकेश्वरवादके मूर्त प्रतीक थे। लोग बो कुछ उपजाते थे, सब कुछ करके रूपमें इस असुरदेव को दे देते थे अगर न दिया तो अत्याचार सीमा पार कर जाता था। यहां तक कि नारियों पर शिशुमो को मनमाना कतल करके फेंक देते थे, मार उनके मुख्य पुरुषोंकी बिन्दा चमड़ी उतार लेते थे। जो उसके खिलाफ जबानमोलता था, जासूस से पता चलाकर उसके पास उड़कर जाते थे और उसे पकड़ कर उस Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमत्याचार करते । असुरों के पास के विसोनके प्रधान देव मक' वे भी असुरों से बिगड़े हुए थे। वैसे असुर भी इन के सम्पतर तथा संगततर पाचरण को सहन कर नहीं सकते इन दोनोंके बीच लम्बे मस्से तक घोर विवाद चलता रहा बादको एक फारसी मध्यमपथी प्राय जरा ष्ट (जिसका ऊँट पीमा था) ने कहा-असुर और मर्दूक-ऐसे दो ईश्वर नही हो सकते । ईश्वर एक है। और वह है 'मसुर मर्दूक' या अहुरमेजदा इस अहुरमेजदा का एकेश्वरवाद फारस से भूमध्यसागर तक दो सौ से अधिक साल व्याप्त रहा । यहूदी इस देश में प्राकर गिरफ्तार हुए थे। कुछ कालके बाद इन यहुदियोको रिहा कर दिया। इनकी जातोय-देवताका नाम था 'जिउहे'। इन यहुदियो को बड़ा घमड था कि वे अपने देव के बड़े प्यारे है। वे अपने को बड़ा देव भगत मानते थे। महरमेजदा के बाद उन्होंने अपने देवका नाम रक्खा 'जिहोबा' जो सारे ससार का एक ईश्वर बना दिया। इसीसे ईसा, महम्मद मादि पुत्र, दूत और अवतार हुए जिससे माज ससार मे धर्मकी मतांधला तथा प्रतिक्रिया परिव्याप्त है। इस धर्मको प्रतिक्रिया ऐसे अत्याचार के विरुद्ध मात्मज्ञानी लोगो का सिर उठाना स्वाभाविक है। वैसे लोग सोचने लगे कि सभोगकी स्पृहा या तृष्णा को छोडदेने से ही ऐसे राजाम्रो या सम्राटो के अधीन रहने के दुखसे मुक्ति मिलेगी। इन विरुद्ध मतवालो ने जनसमाज को छोड़कर, कृष्णारहित हो, वनमे पेट के फल और झरने के पानीसे गुजारा क्गि और पशपक्षियो के साथ निश्चिन्त जीवन बिताया। उन्हीको देखकर हमारे देशमें एकबात कहीजाती है कि "स्वच्छन्दबनवातेन साकेनाप प्रपूर्वते । मस्थ बग्योपरस्थाक कुर्यात् पातक महत्।" Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् स्वच्छन्द वनजात शागसे अगर पेट भर जाता है तो उसी पेटके लिये इतना पाप करने की जरूरत क्या है ? इधर हृदय पूरणके माने होता है हृएक प्रकारके भोग या वासनाओं का पूरण। ये ही ब्रात्मस्य हैं और अपने में जो मारमा या पुरुष है उसकी उपासना करते हैं। इसलिये इनका व अध्यात्मधर्म कहलाया और यही अध्यात्मधमं जेवधर्म होता है। इस जनधर्मके बारेमें मशहूर जैनपण्डित जुगमन्दरलाल जैनी ने कहा है-" जैनधर्म ने मनुष्य को पूरी स्वाधीनता दी है । यह दूसरे किसी भी धर्म में नहीं है । हमारा कर्म और उसका फल- इन दोनोंके बीच और कुछ नही है। एकबार किए जाने पर वे हमारे नियामक बन जाते है । उनके फल अवश्य हो फलेंगे । मेरो प्राजादी जैसे कीमती है, मेरी जिम्मेदारी भी वैसे खूब कीमती है । मे अपनी इच्छा के प्रनसार प्रपना जीवन बिता सकता हूँ । लेकिन एक बार जो रास्ता चुन लिया है उससे वापस माने का कोई उपाय नहीं । में उस रास्ते को चुन लेनेका फल अन्यथा नहीं कर सकता । इस नीति के कारण जैनधर्म ईमाई इस्लाम और हिन्दूधर्म से भी अलग हो जाता है, खुद भगवान या उनके अवतार या उनके स्थलाभिषिक्त प्रथवा उनके प्रिय ( पुत्र या पयगम्वर) को मनष्य कर्मके फल पर हस्तक्षेप करनेकी ताकत नही है । श्रात्मा जो भी करती है उसके लिये प्रात्मा ही प्रत्यक्ष रूपमें और निश्चित रूप में जिम्मेवार है ।" Jainism more than any other creed gives absolute religious independence and freedom to man. Nothing can intervene between the aotions which we do and the fruits thereof. Once done, they become our masters and must fruitify. As my independence is great, so my reepon. sibility is coextensive with it.I can live as I like, -अं. sipyne Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुमा था। इन संघों में जैन साधकों के समान लोग संपवय रूपमें सभी सबमें बराबर हो रहकर लोगोंकी सेवा करते थे, arefoot प्रयोग और बांट इस लोकसेवा का मुख्य अवलम्बन था। इन संघों के साधक मोर सिद्धोंको थेय या स्थविर कहते थे। बेर या थेरपुस के माने होते है स्थविर पुत्र या साधु, 'पुत' बौद्धशब्द है मोर 'साधु' जेनशब्द है । इसीसे उत्कल का 'साधव' शब्द बना है । बौद्धधर्मके प्रचार के बाद ये साधु देश विदेश में थेरपुत्तके नामसे परिचित थे । ईसासे पूर्व दूसरी, तीसरी सदीयो में इन बेरपुतोके मिश्रमें होनेका प्रमाण हे । यत्रतत्र पहुँच कर मरीजों की सेवा करना इनका मुख्य काम था, प्रग्रजी Therapeutics (थेरापिउटिक्स) का प्रर्थ होता है भेषजविद्या । यह सभी जानते हैं । यह थेरापिउटिक्स शब्द प्राचीन प्राकृत थेरपुत्तिक से बना है । यहाँ रूमाल रखना चाहिये कि यह एक ग्रीक शब्द है जो उस जमाने में मिश्र से प्राया था । एसीन्स ईसा के जन्म के पहले पालेस्टाईन में इन घेरपुत्तो के समान कुछ लोग दलबद्ध होकर बसते थे, जिनको एसीन्स कहते थे । ये उनके समान थे । लेकिन इनकी एक खास विशेषता थी । ये मिलकर खेती करते थे लेकिन दोलत पर किसीका स्वतंत्र अधिकार न था । सबका हिस्सा बराबर था। यह एक बिद्दिष्ट जनविधि है । खुरधा के भोइवशीय राजानो ने बहु काल के बाद भी पुरी जिलेके ब्राह्मशासनो में १५९० ई० से रूपष्टरूपमें इस नीति का प्रयोग किया है, अब भी ग्रामकोठ' तथा देवोत्तर प्रादि में उस साम्यभाव का सकेत जीवित है । १- ग्रामकोठ- गाँव में जो काम समूहिक भित्तिमें होता है और जिस पर गांव का हरएक प्रादमी समान अधिकार रखता है । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रामकोट में बड़े होटेका विचार नहीं है। हर एक का हिस्सा बराबर है। जब गांव बना तब मो हर एक को एक एक हिस्सा मिला था। इस हिस्से को पाने में सभी बराबर थे। किसीका ज्यादा न पा, किसोका कम भी न था। एसोन्स शादी करके गृहस्थाश्रम नहीं करते थे। प्रमाण मिला है कि ये पूरंपूर संन्यासो थे। लेकिन वंशपरपराको रक्षाके लिये नये शिष्य ग्रहण करके अपने गणको वृद्धि करते थे। ये पौर मियी औरषुत निरामिषभोजी थे। यह निरामिष भोजन न तो वैदिक है और न किसी दूसरे धर्मकी रीति है । इसमें कोई शक नहीं है कि यह तृष्णात्याग को साधनासे निकलो है। पैथागोरियन्स यह निरामिष भोजन प्राचीन ग्रोस् (यूनान) के पैथागोरियन्सों (ईसा के पूर्व ७ वी सदो के अन्तिम भाग) और भारफिको (ईसाके पूर्व ७वो मदो के मध्य भाग में) प्रतिष्ठित या। मौर यह भो ज्ञात हुआ है कि इनको धारणा यो-प्रात्मा अमर है। कर्मके अनुसार इस प्रात्मा का जन्मान्तर होता है। यह सब सिवाय जैनधर्मके और कुछ नही है,बाद को सक्रेटिस, प्लेटो, एरिस्ततल मादि मनीषी और पडित इन पंथगौरियन मोर प्रारफिक धर्मके वशधर और भूयोविकास के फल है। सास करके देखना हैं-सक्रेटिस और प्लेटो ने आत्माकी ममरताके बारे में स्पष्ट धारण दे दी है। लेकिन एरिस्ततल ने अपने दर्शनशास्त्रमें जो कुछ लिखा है उस पर साख्य के प्रकृति-पुरुष और जैनधर्मके जीवाजीव को छाया स्पष्ट हैं। पोर इस धर्मसे ईसाके पूर्व दूसरो सदोमं यूनानी स्तोईक और एपिक्युरियन धर्मका जन्म हुआ था। स्तोईक जैनसाधक मोर तपस्वी प्रतीत होते है । और एपिक्युरियन जैनको प्रपरसोमा मर्थात् लोकायत के उपादान से बना था। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलधर्मके सारे संकेतों की कामना करते स्पष्ट मानम बेता है किसका प्रभाव बेबिलोनसे लेकर बोरोप तक न स्पात न वाजिस यूनानी बीवनका उदाहरण दिया गया है वह फिर मूलस: दूसरे प्रकारका था। यह भिन्न उपादानोंसे मना या यह था भोगसर्वस्व, अर्थात्, भोमलालसा पोर काममा को चरितार्थ करना इसमें पूरी मात्राया। मेकिन ईसाके पूर्व वीं सदी में मनीषी पैथागोरस निकले। वे एक बैनसाधक थे पौर जैनसन्यासी भी। और उस देश और इस देशका सम्बन्ध सिर्फ इयावाणी और ऋष्यश गके उपाख्यानसे अनुमित नहीं होता, बल्कि प्रति प्राचीन कालम भी बेबिलोन, केपाडोसिया (माजका इराक और तुर्किस्ता) मादि पच्छिमके देश और भारतका द्राविड़देश-दोनोंका सम्बन्ध घनिष्ठ था। शायद दोनों में एक जातिके लोग थे। इसके प्रमाणो में देवीधर्म मुख्य है। मा,बोड, अम्मा प्रावि मातृवाचक शब्द द्राविडोमे पाये जाते हैं। सबभी उत्कल मे मी को बोड कहते है। बहुकालके बाद संस्कृत में 'मा'लक्ष्मी वाचक सन्द बना है । यह सस्कृत के 'मातृ' शब्दके समान नही है। 'बोड'शब्द उत्कलके अलावा असम में प्रबभी चलता है। लेकिन ये शब्द उस जमाने में, अर्थात् ईसाके पूर्व ३०००साल पहले उन पश्चिमी राज्योमे मातदेवीके अर्थ में अत्यन्त साधारण थे। कीट दीपसे अब भो सिंहवाहिनो देवोदुर्गाको पत्थरकोमूर्तिनिकली है । इस मातृदेवीके साथ शिवका भी माविर्भाव हुमा था। इसकी व्याख्या अत्यन्त स्वाभाविक और सुबोध्य है। महायोनि और महालिंग विश्वप्रजनन के प्रतीक है। पश्चिमी भूमिमें उस Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षमानेसे इसी रूपमें मातृदेवीको पूजा हो रही थी, भारतमें ईस के पूर्व २००० सालसे अधिक पहले लिंगोपासना के होने के प्रमाण महेन-जो-दड़ोसे मिले हैं। लेकिन यह लिंग इसदेश के सभीदर्शनोके प्रतीक है । और मातृदेवी की 'उमा' नामसे हमबतीदेवी के रूपमें देवतामो को ब्रह्मविद्या सिखाने की बात केनोपनिषत्के तीसरे खण्डमें है । शायद, अम्मा उमामें परिणत हो गया है । और यह हैमवतो अर्थात् हिमालयकी कन्या या हिमालय मे प्राविर्भूत देवी है । सेमिरामिक्ष इस मातृदेवोके सम्बन्धमें ईसासे पूर्न १५०० या २००० साल पहले बेबिलान के उत्तरी सीमा में असुरो के देशमें रानी सेमिरमिस रहती थी। यह एक पद्धत उपाख्यान है । देवी को प्रजनन परायणता तथा तद्विष क्रियामो से यह भरपूर है, शायद, यह किसो एक छोटो-सी स्मृतिको लेकर बना एक पुराण है। तो भी उसमें है-देवी इस कन्याको जन्मके बाद हो जगल में छोडके चली गयो । कुछ कबूतर या पक्षियो ने इसकी हिफाबत को मौर उसे जोवित रखा । किसी गडेरियेने इसे देखा और घर ले जाकर पाल-पोसकर बडा किया। वह खूब हसीन मौर अक्लमन्द थी, कहते है-बेबिलोनकी इस्तर देवीके समान यह भी एक के बाद एकसे शादो करती थी और उसे मारकर दूसरे को अपनाती थी। इसके बारेमें परम्परा इतनी प्रवल और प्रतिष्ठित है कि अब भी उस इलाके लोग बडेबडे पहाड दिखते हुए कहते है- यहाँ सेमिरा मिस के पति दफनाये गये हैं। और सेमिरामिस महापराक्रमशालिनी थो । कहा जाता है-सिर्फ भारत जीतने के लिये माकर पजाब में हारकर लौट गयो । शकुन्तला को कथा यों है-देवी या स्वर्वेश्याकी परित्यक्ता Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशु शकुन्तला बनमें पक्षियों की हिफाजत की भोर कम्पने उसे उठा लिया और अपने पाश्रममें पासपोस कर बढ़ाया। बहुपत्नीक राजा दुष्यन्त को देख पावेग के साथ उसने प्रात्मसमर्पण किया । और उससे वह गर्भवती हुई-पादि वातों की पालोचना सेमिरामिसा की बातसे मिलती-जुलती है । लेकिन इस सबके होते हुए भी भारतीय उपाख्यानमें सतीत्वके भाव को ऊंचा स्थान दिया गया है. इतना ही फर्क है । लक्ष्य करने की बात है कि इस शकुन्तला का पुत्र प्रवलप्रताप सम्राट भरत बना जिमके नामानुसार कोई २ कहते है कि इस देशका नाम भारतवर्ष पडा है। द्राविड से रोम तक एक था इस तरह देखा जाता है कि द्राविडसे यूनान, रोम तककी भूमि अति प्राचीनकालम कदाचित् एक-सी थी। इनके पादानप्रदानम काई प्रत्यवाय या अवरोध न था। जैनधर्मने इन स्थानो सर्वत्र प्राकृत धर्मको प्रभावित करके मानव समाज को भोग में सयम पर प्रतिष्ठित किया था। हलसाहब स्पष्ट कहना चाहते है-इन द्राविडोके साथ बेबिलोन मादि इलाके केवल सामान्य राज्य ही न थे, बल्कि इन द्राविड़ो ने प्राचीन सुमेर राज्य में उपनिवेशभो पाबाद किया था और कितने ही विद्वानभीकहते है कि सुमेरमें जिनका उपनिवेश था वे काश्मीरके उत्तर के पामीर इलाके के पश्चिमो प्रदेशसे पाये थे। प्राजकलक जेकोस्लावे. किया देशके प्रेग(Prague) नगर के प्राध्यापक प्राच्यप्रत्नतत्ववित् पण्डिस हाजना साहबने एक प्रत्यन्त उपादेय तथा मवेषणपूर्ण ग्रन्थ लिखा है जिसका नाम है 'Ancient History of Western Asia, India and Crete.' उसमें उन्होने प्रमा. णित किया है कि हिन्दो-यारोपियोके कस्पिीयन झीलके पश्चिमी तोरसे पाकर योरोप और एशिया के नानास्थानो में व्याप्त Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने के बहुत ही पहले दूसरी सभ्यजातिके लोग उसी करका मोलके दक्षिण तीरसे प्राकर इधर भारत और उधर बेबिलोन मादिमें फैले हुये थे। इनका सम्पर्क और मादान-प्रदान उस जमाने में बड़ा ही घनिष्ठ था। अब मालूम होता है कि मातृदेवीधर्म या शक्तिधर्म के समान जैनधर्मके प्रथम अध्यात्म धर्म होने पर भी, उनके काम-खास कर यह जैनप्रादर्श तथा जैनसाधना मार्ग प्राग्वैदिक भारतमें, अर्थात् उस सभ्यजातिके द्राविडोमे से विकसित हो कर पृथ्वी में व्याप्त हुमा था । लक्ष्मीनारायण जी ने उत्कल तथा भारतके प्राचार-व्यवहार में जैनधर्म के पूर्ण प्रमाव का होना दिखाया है। विशेषतः इसके संबध तत्त्वव्याख्या करते हुए उन्होने जैन हरिवंश से नारद और पर्वत के उपाख्यान को लेकर एक अच्छा उदाहरण दिया है। उपस्थिर बसु यह एक अत्यत प्रदर्शक उपाख्यान है । और नारद और पर्वत का झगडा था यज्ञ में व्यवहृत 'प्रज' को लेकर। पर्वत का कहना था- 'प्रज' का अर्थ है वकराया पशु, अत' पशुवष ही यज्ञका प्राण है । नारद ने इसे स्वीकार नही किया । उन्हो ने बताया कि अज के माने जिससे कुछ जात नहीं होता, अर्थात् पुराना अनाज । यहा हिंसा-अहिंसा-मूलक सामिष और निरामिष खाद्य का भद प्रकीर्तित है। धर्म कौन-सा है ? निरामिष भोजन या सामिषभोजन ?भारत में यह समझानेकी कोई जरूरत नही । भारतमें सामिष भोजियो के होते हुए भी निगमिष हर एक का पवित्र और धर्मसम्मत भोजन माना हुमा है महाभारत के नारायणीय उपाख्यानमे राजा अपचिर बसुको पर्चा है । देवताप्रो और मुनियोका यही झगडाथा । देव कहते * वनपर्व-३३६ अध्याय से (बगबासी संस्कार) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजके माने बकरा है । और मुनियों ने कहा- नही, प्रज का अर्थ अनाज है । उपरिचर वसु, जिन्होंने प्राकाश में सचरण करने को शक्ति प्राप्त को था, उस रास्ते से गुजरते थे। दोनो पक्षो ने उन्हे मध्यस्थ माना। उन्होंने पहले यह देखा कि किस पक्ष का मत क्या है । फिर कहा-पशुत्रत्र हो ठोक अर्थ है । ऋषियो ने उनकी स्पष्ट पक्षपातिता देखकर उन्ह अभिशाप दिया। अभिशप्त अवस्थामे नारायणीय धर्म या ऐकान्तिक धर्मकी उपासना करके वे शापमुक्त हुए 1 लगता है - यह ऐकान्तिक धर्म फारसका है। खूब सम्भव अहूरमेजदा का धर्म है । उसी उपाख्यानमें इसके प्रमाण है । बादको जरूर यही धर्म उधर ईसाईधर्म और इधर वैष्णवधर्म का रूप लेकर प्रकाशित हुआ है । ईसाईधर्मके मूलमे जैनधर्म को कृच्छ्रसाधना के समान तपस्या और सयम है । थेरपूर्तिक (Thera Peutics) और पालेस्ताईन के उस जमानेके एसीन इसके उदाहरण है । लेकिन निराभिष भोजन उसमें स्थायी बन न सका । इधर यह ऐकान्तिकधर्म वैष्णवधर्म या भक्तिधर्म हो गया है । अबभी इस देशमें जैनधर्मियों के अलावा वैष्णव ही निरामिषके उपासक है। इसमें वह और समझने की आवश्यकता नहीं है, यह जैनधर्मका प्रभाव है । सिर्फ इतना ही यहां कहना है कि इस वैष्णवधर्म के समान धर्म या सपूर्ण प्रात्मसमर्पण करने का धर्म जैनदर्शनके ऊपर प्रतिष्ठित नहीं है । यह हो नही सकता । फिर भी जैनधर्मके प्रभाव देखने में यह खूब उपादेय है । इस तरह जैनधर्म ससार के सारे धर्म तथा मानविक आत्मविकासके मूलमें है । कहाजा सकता है कि इसी के ऊपर मानव-समाज के विकास की प्रतिष्ठा प्राधारित है । भुवनेश्वर ६-५८ } नीलकंठ दास Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छिन्न-पल्लव पडित लक्ष्मीनारायण साहू एक ऐसे प्रख्यात साहित्यकार है कि उनका परिचय देनेवी प्रावश्यकता नहीं। फिर भी पाठको की जिज्ञासा की पूर्ति के लिए सक्षपमे यहा पर उनका परिचय देना उचित है । बह उडीसाकी विभूति है । सन् १८६० ईसवी मे उनका जन्म बालेश्वर जिलेके एक हलवाई वशमे हुप्रा पा। वह जन्मे तो १९ वी शताब्दी में है, परन्तु उनका नाम और काम चमका २० वी शताब्दी मे। उनकी विशेषता यह है कि पद्यपि वह एक नितान्त दरिद्र परिवार में जन्मे थे किन्तु उन र कुटुम्बमे यह दरिद्रता आकस्मिक थी। वैसे उनके पितामह एक बडे धनी व्यापारी थे अकस्मात् प्रकृतिके कोपसे उनके पितामह की मृत्युके पश्चात् उनके पिताका सबकुछ घरवार, कोठा महल प्रादि और जहाज-व्यवसाय नष्ट हुमा था। लक्ष्मीनारायण बाबू बचपन अपने पिताकी दुकान पर बैठकर मिठाई बनाते और बेचते थे। किन्तु उनका उज्ज्वल भविष्य उनके जीवनकी कनखियोसे झांक रहा था। उनकीप्रतिभाको देखकर बालेश्वर जिला स्कूल के प्रधानम०श्री लोकनाथ घोष उनपर सदय हुये और उनकी ही सहृदयतासे इनको अधिक उच्चशिक्षा पानेका सुयोग मिला, सन १९०८ मे बालेश्वर जिला स्कूल से ऐट्रन्स पास किया। सस्कृतमें एकपदक और एकवृत्ति भी उनको मिली थी। इसके बाद ज्यो त्यो करके उन्होने कटक रेवेन्सा कालेज मे शिक्षा पाई। मार्गकी अनेक विघ्न-बाधामो प्रौर दुःख दूरवस्थामो को पार करके वह प्राई०एस-सि. परीक्षा में उत्तीर्ण Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. लक्ष्मी नारायण साहू एम० ए०, एल• एन० डी० अध्यक्ष उड़ीसा साहित्य अकादमी, भुवनेश्वर (लेखक) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए। उसके बाद कलकत्ता में शिवपुर इनजिनियरिंग कालेज में दो वर्ष ही पढ़ पाए कि प्रर्थाभावके करण छोड़कर चले भाए । उपरान्त शिक्षा व्यवसाय उनको रुचिकर हुआा । वह पुरी विक्टोरिया होटल में मैनेजर हये और फिर कटक मिशन स्कूलमें चार वर्षो तक शिक्षक रहे। वहां से उन्होंने बी० ए० प्रोर संस्कृत मध्यमा प्रादि पास किए। गीता में उनको 'तत्वनिधि' उपाधि और बगला साहित्यमे दक्षता के लिए 'विद्यारत्न' उपाधिभी मिली। मिशन स्कूल छोड़कर उन्होने भारत सेवक समितिमें योग दान देनेके लिए अपना जीवन अर्पण कर दिया । प्राजकल भी उस समिति सदस्य है और उसका काम करते है । अब उस समितिका नाम परिवर्तन होकर " हिन्द सेवक समाज " हुआ है । बालकपन से ही वह समाज सेवामे मस्त थे और एक धर्मिष्ट हिन्दूकी तरह निष्ठाके साथ जीवन विताते थे । गणेश, सरस्वती, कार्तिक, आदि सव देवताओ की मूर्तिपूजा करते थे । प्रकस्मात् उनके जीवन में परिवर्तन हुम्रा वह जीव मात्रकी सेवा करने मे लगे । भगी गांवमें सबके साथ मिलते और रोगी भगी बच्चोमी अपने पुत्रके समान देखते थे । कटकमें मुसलमान लोगोवे साथ मिलते थे और इसके बाद श्रार्य समाजमे हवन प्रादि करते थे ईसाइयो से भी परिचित थे । इसप्रकार वह यौवनको झोर एक समुदार दृष्टि लेकर बढ़े थे । वहुत क्या कहे ? लक्ष्मीनारायण बाबू एक कवि, एक साहित्यकार और एक समाज सेवक हैं। अपने जीवनमें उन्होंने साठ अमूल्य ग्रंथोंकी रचना की है, जो अग्रजी, उडिया और बगला भाषाओ में है । हिन्दीमें उनकी यह पहली पुस्तक है, जिसे वह अपने मित्रोंके सहयोग से अनूदित कर सके हैं। किंतु साहित्यकार होनेके साथ ही उनका हृदय दया और धनुकम्पा से परिप्लावित है । यही कारण है कि उन्होने कुष्ठ रोगियोंकी . -क्र Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मी सेवा करने जैसा जोखमभरा काम करने में प्रानन्द अनुभव किया है । जब जब दुभिक्ष पड़े और बाड़े आई तब तब मासाम, वंग, विहार, मोड़िसा, हिमालय मादि स्थानोमे जाकर लोकसेवा के कार्य किये है । इस वृद्धावस्थामे उनका सम्मान राष्ट्रने किया है । माप को राष्ट्रपति द्वारा "पद्मश्री" उपाधि प्राप्त हुई है। विद्यापीठ प्रान्ध्र इतिहास प्रत्नतत्व समितिसे "भारततीर्थ" और अ. विश्व जैन मिशनके विद्यापीठसे"इतिहासरत्न"प्रादि उपाधिया भी उन्होने प्राप्त की है। विद्यारसिक ऐसे है कि अंग्रेजी माधुनिक भारतीय साहित्योमें तथा अर्थनीति और इतिहासमें एम०ए०प्राईवेट पास किया है। वह जीवनकी गहराई में बहुत तेरे है और महानदियो के तैराक भी रहे है । मलानदी, विरूपा, शिबपुर और खिदिरपुर के पास गगानदोमे इस पार से उस पार हुये पार पुरी समुद्रमें ७-८ मोलतक अन्दर सैर पाये थे। इलाहाबाद के निकट गगा यमुना के सगममें भी तेरे थे। पदयात्रा करने में भी वह निपुण है। हिमालयमें दैनिक २६ मोलतक चलना और समतल भूमि दैनिक ४०-५० मीलतक चलना, ये सब कुछ उन्होने किये हैं। लक्ष्मीनारायण बाबू लोक परिचित एवं प्रख्यात होने पर भी कभी कभी भोकाको अनुभव करते है । लेकिन अपने सब दुःख को वह कविता और न थ रचना करके भूल जाते हैं। मह उनकी विशेषता है। भारतवर्षका पर्यटन भी उन्होने कई दफा किया है और बहुत जगहोके दर्शन किये है। प्रतः उन के प्रेमी बन्धुवर्ग प्रसस्य है । आज उनकी ६८ वर्षकी प्रायु है, फिर भी उनमें एक युवक का सेवा-लगन और उत्साह है ग्रह शतजीवी होकर कल्याणमूर्ति बने, यह प्रार्थना है गणेश चतुर्थी -प्रकाशक उड़िया पुस्तक भानिश्न १,२३६५. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हदिय-सूची - १. जैनधर्म का स्वरूप २. जैनधर्म की ऐतिहासिक भूमिका ३ कलिङ्ग में मादि जैनधर्म ४. खारखेस और उनका कालनिर्णय ५. खारवेल का शासन और साम्राज्य ६. खारवेल और जैनधर्म ७. कलिङ्गमें खारवेलके परवर्ती युगमें जैनधर्मकी भवस्था ७४ ८. उत्कल की संस्कृति में जैनधर्म ६ उडीया की जैनकला १०. उपसहार १३२ ११. परिशिष्ट १-खंडगिरि की ब्राह्मीलिपि १३४ १२. , २-पोडोसा में नोंका निदर्शन १३. , ३-पोडोसा के जैनी और खंडगिरि उदयगिरि की गुफायें १४२ १४६ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WHERE MINERABAR HERE HER MAHARA SEAN S OMESTMENTAmitTARTHA +91 .. .. Ramesh RL.SALI _superHit ANAL । PARIHS900 - भ० शान्तिनाथ की पाषाण मूर्ति (कटक के जैन मदिर में स्थित) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव तीन वर्ष पुराने शस्य (धान) से हैं जो उपज न सके 1 उसके चावलो द्वारा यज्ञ करना चाहिये । किन्तु इतने में हो यह प्रालोचना समाप्त न हुई । तीसरे व्यक्ति के द्वारा उसका समाधान कराने के लिये वे दोनो एक राजाके पास गये । उन की सभा में अनेक युक्ति एवं तर्क विवेचना के बाद नारद का मत यथार्थ रूपमे गृहीत हुआ । इसप्रकार पर्वतने पराजित होने पर दूसरे राजाके सहारेसे पशु हिंसा द्वारा यज्ञ करने के नये मत का प्रचार किया । नारद अहिंसा के प्रचार में लगे रहे । इस तरह हिंसा धौर प्रहिंसा के रूप के भेद से एक वेद की दो शाखाये बनी । प्रापस में यह दो शाखायें प्रशाखाम्रो भौर पल्लवी के सम्भार से परिवर्तित होकर पुरातन वट वृक्ष के प्ररोह की तरह स्वतन्त्र वृक्ष के रूप में परिणत होकर ब्राह्मण और जैन के नामसे अभिहित हुई । क्रमशः उभय गोष्टी की उपासना श्रीर आचार की प्रणाली भिन्न होने लगो और दोनो एक ही वृक्षके दो प्ररोह थे. यह बात स्मृति के बाहर चली गयी । यद्यपि जैन भी इस बातको मानते हैं कि भ० ऋषभदेवज) के ज्ञानसे प्रार्ष वेद रचे गये थे और नारद-पर्वत सवाद के समय तक भ० ऋषभ देवका प्रहिंसाधर्मं प्रचलित था । प्रतएव विश्वार से यह प्रतीत होता है कि मूल में ब्राह्मण और जैन- दोनो धर्म एक परिवार के है । जैनधर्म बौद्धधर्म से अधिक प्राचीन है। बौद्धोके धर्मग्रन्थो में लिखा हुआ है कि भज्ञातृपुत्र महावीरके शिष्यों ने अनेक वार म० बुद्धके साथ शास्त्रार्थ किया था । बुद्ध ने स्वय ही अनेक क्षेत्रों में निर्ग्रन्थ तथा प्राजीवको के मत का विरोध किया था। भ० महाबीरके सन्यासी होने के पहले से ही जैनधर्म प्रचलित था। पहले भनेको की धारणा ऐसी थी कि बौद्ध १ (1) Sacred Book of the East (Jain Sutras ( by Dr. Jacobi. Introduction, Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म से जैनधर्म को उत्पत्ति हुई है, परन्तु यह बात प्रमात्मक है। जैनधर्म बौवधर्मसे अति प्राचीन है,इसमें सदेहके लिए स्थान नहीं है । भ. महावीर जैनधर्म के २४ तीर्थकर है । वह वुद्ध के समसामयिक थे। बुद्ध की तरह उनका जन्म राजवंश हुमा था। निहत्थे एक मस्त हाथी को दमन करने तथा उपगन्त महा कठिन तपस्या करने के कारण उनको 'महावीर' जैसे गौरवमय उपनाम से पुकारा गया। भ०महावीरने उत्कल में प्राकर जैनधर्मकाप्रचार किया था। उत्कल में उनके धर्म का मुख्य केन्द्र कुमारी पर्वत (मानका खण्डगिरि) था। किन्तु उडीसा के महेन्द्र पर्वत में मादि तीर्थंकर ऋषभ का भी प्रास्थान था। माजकल महेन्द्र .पर्वत मजसा में है और राजकीय उडीसा में व हो कर मांध्र में गिना जाता है। इन उल्लेखोंसे उस्कल (उडीसा)में जैनधर्मकी प्राचीनता का बोष होता है। म. बुद्ध के समसामयिक होने के कारण कई लोग म. महावीर को दुरवंशीय कहते थे। परन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं; क्योकि भ. महावीर जातक क्षत्रिय वंशके थे। हां, यह कहना अवश्य ही सच है कि उत्कल में युगपत् हिन्दू, जैनतथा बोट धर्म का प्रचलन था। भ. महावीर कुण्डग्राम के जातक-क्षत्रिय राजा सिवाके कुलमें जन्मे थे। उनके जन्म लेनेके साथ ही,बल्कि उसके पहले से ही, उनके कुल की मोर राष्ट्रको धन एव ऐश्वर्य में वृद्धि होने के कारण उन का नाम 'वर्षमान' रक्खा गया। प्रौर सभी की यह माशा एवं अभिलाषा थी कि राजपुत्र वर्षमान अपने पिता के राज्यको समधि बढ़ायेंगे; परन्तु वह स्वयं जन्मसे ही जिनेन्द्र भगवानकी तरह साधु बनने की लगनमें थे। युवावस्था रामेश्वर्य कोलात मारकर उन्होंने पडण्यमें जाकर कठोर तपस्या पाईनकी Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और अंतमें सिद्ध-काम बनकर जिनदेव हुए। उनको प्रविधा दूर हुई मोर वे सर्वज्ञ बने । उन्होने दोघं काल अर्थात् ४२ वर्षों तक जैनधर्मका प्रचार किया। उत्कलका कुमारी-पवंत उनका प्रधान सघपीठ था मोर वहीसे जैनवर्मक प्रगणित कल्याणकारी तरग मगणित दिशामोमे फैले थे। इसके बहुत वर्षोंबाद,सम्राट अशोक कलिम विजय में घोर नरसंहार देखकर अनुपात से दग्ध हृदय हुये। और फिर बौद्धधर्म को ग्रहण करके उसके प्रचार में लगे थे । · देवाना प्रियदर्शी" के उप-नाम से वह प्रसिब हुए थे। फलत: बौद्धधर्मका प्रचार विभिन्न दिशामो में व्याप्त हुमा। किन्तु यह सबकुछ होने पर भी उताल मे जैन धर्म अपना सिर उठाये रखकर अपनी रक्षा करता रहा । कालचक्र के मावर्तन से उत्कल फिर स्वाधीन हमा और ईसा से पहले पहली शती में यहा खारवेल राजा हुए । भारतके विभिन्न स्थानो की दिग्विजय करके जैनधर्मको कल्याणकारी तरंगको उन्होंने अधिक व्यापक कर दिया। म. महावीर से २५० साल पहले भ. पाश्र्वनाथ ने जिस धर्म का प्रचार किया था उस धर्मको श्वेताम्बर बोग चातुर्याम कहते हैं, क्यो कि उस में चार व्रत थे। यथा-महिंसा, पचौम्य, मन्त प्रोर अपरिग्रह । इस चातर्याम धर्म का संस्कार करके म०महावीर ने उसको पचयाममें परिणत किया । उन ५वा व्रत है प्रारम सयममय ब्रह्मचर्य । इसके ऊपर उनहोंने विशेष जोर दिश पा) दिगम्बर जैन शास्त्रो में ऐसा बल्लेख को नहीं मिलता परतु उन में भी भ. पावं नाय और म. महावीर के माचार धर्म में कालभेद से अन्तर बताया है। भ. पाश्र्वनाथ के सघ में सामायिक चरित्र प्रचलित था और म. महावीर के सबमें छेदो-पस्थापनाचारित्र का प्राबल्य था । My Indian Antiquary Vol. x. pp.180-81 - - - - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौके कालसे जैनधर्म में मतभेदका बीज पड़ा था, जिससे ईस्वी पहलों शताब्दी में वह दो भागो में विभक्त हुम्रा था । उस समय जैनधर्म के दो प्रसिद्ध प्राचार्य भद्रबाहु और स्थूलभद्र नामक थे । भद्रबाहु दिगम्बर सप्रदाय का आरम्भ हुआ मोर स्थूलभद्र से श्वेताबर सप्रदायका । हरिषेणकृत "कथा कोष" में लिखा हुआ है कि १२ साल तक दुर्भिक्ष पड़ने की बातको जानकर प्राचार्य भद्रबाहु ने अपने शिष्योको दक्षिण चले जाने के लिए कहा था और वे स्वय उज्जयिनी जाकर वहा अनशन व्रतके द्वारा समाधिस्थ हुए थे । 1 बौद्धो के "पिटक" ग्रन्थ की तरह जैनियो के "सिद्धान्त " ग्रन्थ भी हैं । वह है "प्रङ्ग मोर पूर्व" भद्रबाहुने इन सब सिद्धांत ग्रन्थो का परिशीलन किया था । श्वेताम्बर मानते हैं कि इस समय ई० ० पू० ४सदी में प्रङ्ग प्रत्योका सकलन हुआ था । उस से पहले गुरुमुख से जैनधर्मका प्रचार होता मारहा था । उपरान्त ५५४ ई० में बल्लभीमें श्वेताम्बर जैनियो को एक महासभा आचार्य देवगण क्षमा श्रमण के नेतृत्व में बैठी । उस सभामें जैनधर्म क उन ग्रन्थोका संकलन किया गया जो प्राज़ श्वैतास्वरीय भागम साहित्य है । (३) प्रत. देवगिणिको श्वे ० जैनियोंका बुद्धघोष कहा जासकता है । जैनियो सारी बाते इन अन्यों में लिपिवद्धकी गयी है | 2 जैन के अनेक ग्रन्य लुप्त हो गये हैं, जिनको 'पूर्व" कहते 4 थे । फिर भी जैनियोक अनेक ग्रन्थ हैं । दिगम्बर जैनियो का साहित्य मी अति उच्च कोटीका है । लेकिन वह प्राय. म्रप्रकाशित ही है । उनके मतानुसार प्रङ्ग 警 पूर्व ग्रन्थ मुनिवरों की स्मृति क्षीण होने से लुप्त हो गये। उनका कुछ मश जो श्री धरसेनाचार्यको याद था वह उन्होंने पहली शतीमे गिरिनगर मे लिपिवद्ध करा दिया था । बहु सिद्धांत (३) शाहे 'उत्तर भारत मा जैनधर्म' (बम्बई) ---- Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों प्रनादिसे परस्पर प्राधारित है। पुद्गल (Matter) में भी पर्याय या परिवर्तन होते है। जैन कुल छे द्रव्य या वस्तु मानते है, जो जीव, पुद्गल, धर्म, प्रधर्म, प्राकाश मोर काल है । जैनधर्मका स्याद्वाद न्याय एक चमत्कार पूर्ण तथ्य है । वास्तवमें यही है जैनधर्मका दर्शन । 'स्यात् मस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् प्रस्ति नास्ति, स्यात् प्रवक्तव्य, स्यात् मस्तिप्रवक्तव्यं, स्यात् नास्ति, प्रवक्तव्यं स्यात् अस्ति नास्ति वक्तव्य' अर्थात् यह हो सकता है, यह नही हो सकता है, किसी दृष्टि विशेष से है, किसी दृष्टि बिशेष से नही है । स्याद्वादका अर्थ इस तरह बडा विलक्षण श्रीर विचित्र है। प्रनेकान्त उसकी पृष्ठभूमि है। एक ही वस्तु प्रनेकदृष्टि कोण से देखी जा सकती है । जैसे पिता के सम्बन्धसे मैं पुत्र हूँ, बहन के सम्बध से भाई, भतीजा के सबन्धसे चाचा, एक होने पर भी में बहु प्रकारसे मान्य हुँ । लेकिन पिता माता के सम्बन्ध से मैं पुत्र होते हुए भी बहन के सबन्धसे पुत्र नही हूँ । भगर दोनो के सम्बन्धसे मेरी वर्णना की जाय तो में पुत्र हूँ फिर भी स पुत्र नहीं हूँ । एक होते भी एक होना या न होना अनिवचनीय है । इसीलिये विश्वके बाहरकी बातो को तथा विचार शैली से बाहर ठहरने वाले ससारकी विविध वस्तुनोंको विविध दृष्टिकोण से देखने के द्वारा हमारी दृष्टि उदार होती है, विभिन्न प्रकार के विरोध हट जाते है मोर प्रेम का प्रसार होता है । यह है जैन न्यायकी. विशेषना वह समन्वय की प्राधारशिला है । जैनधर्म मे मुख्यत: सात तत्वोकी मीमासा मिलती है । वे तत्व निम्न प्रकार है. जीवचैतन्य गुण संपन्न सत्ता । अजीब शरीरादि जड़ पदार्थ । - मानव- शुभाशुभादि कर्मों का द्वार । कर्मबन्धमात्मा और कर्मका पारस्परिक संमेलन । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबर-शुभाशुभ कर्मोंका प्रतिकार। निर्जरा-सचित कर्मोसे स्वतन्त्र होना। मोक्ष-कर्मका सपूर्ण विनाश व प्रात्मस्वातंत्र्य । जैनियोंके अष्टमांगलिक द्रव्य भी है । उसीसे हमारी प्रष्टमगलको मान्यता है । विवाह के बाद अष्टमंगलो का अनुष्ठान होता है। इसमे ८ प्रकारके उस्तु होते है, यथा - स्वस्तिक, श्रीवत्स,नन्द्यावर्त,वर्धमान या भद्रासन, कलस,मत्स्य अोर दर्पण । साधारणत हम मगल के लिये पूर्णकु म की स्थापना करते है । पौर उसमें आम की डाल डालते है । दही और मछली का प्राकार भी मगलसूचक है। __इससे स्पष्ट मालूम होता है कि जैनधर्मके अष्टमगल द्रव्यो को हमने हिन्दूधर्मके अन्दर घुसालिया है, अष्टमगल द्रव्यो का दूसरा सभी है रूपभी यथा -मृगराज वृक्ष,नाग,कलस,व्यजन,वैजयन्ती, भरी और दीप । कही कही इसप्रकारके प्रष्टमगलक मिले है-ब्राह्मण गौ, हुताशन, हिरण्य, घृत, प्रादित्य, अप और राजा । जैनधर्म में पूजाके प्रसगमे प्रष्ट प्रातिहार्योका प्रचलन है। यथा -प्रशोक वृक्ष, सुर- पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, मासन, भामडल दुदुभि और मातपत्र । बौद्धोको तरह जैनियोका भी त्रिरत्नमें विश्वास है । ये त्रिरत्न जैनधर्मके सारे तत्वों का समाहार है । सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र मोक्ष प्राप्तिके लिये ये तीन चीज एक अवलबन है। (४) जैनधर्म मे स्वस्तिक चिन्ह की एक विशेष प्रावश्यक मान्यता है। नीचे स्वस्तिकका एक चित्र दिया गयाहै। मनुष्य देवता तिर्य मारकी मतत्वार्थपून oh i. vita Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह है जैनियाँका जो विभागका संकेत मय प्रतीक। जनमतके अनुसार जीव श्रेणों में विभक्त है । यथा:-बारकी, तियंच, मनुष्य और देवता । जिनकी प्रासुरी वृत्ति है और नरकोमेवास करते है वे नारकी है, पशु पक्षी या कीट-पतगादि के रूपमे जन्म लिया वे हैं तिर्यच,नर देहीं जीव है,ौरजो सूक्ष्म शरीरी वे है देवता। जैनियो की कल्पनन और दृष्टि से जीव, स्वर्ग, मयं पाताल सर्वत्र व्याप्त है । जैनियोकी सर्वभूत दयाका यही तात्पर्य है । स्वस्तिक इसीका प्रतीक है। यह स्वस्तिक जनधर्म ग्रन्थों और मदिरों में अधिक दिखाई पडता है। जैनियोंकी अक्षत पूजामें यह चिन्हें आज भी दिखाई पड़ता है। स्वस्तिकके ऊपर तीन बिन्दु त्रिरत्न "सभ्यम् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मौज्ञमार्ग"का संकेत करते हैं। निरत्नके ऊपर अधमात्रा है और उसके ऊपर चन्द्रविन्दु का चिन्हें है । इसमें जीवका मोक्ष या निर्वाण की कल्पना स्फूर्त हुई है। इसमें तनिक भी संदेह नही कि स्वस्तिक जैनियोंका प्रादि चिन्ह है । जैन लोग देव पर्यायके जीवों को चार 'मांगो में पियक्त करते है। यथाः-१ भवनपति, व्यन्तरं, ३ ज्योतिष, वैमानिक। वे पाताल, मर्त्य, अन्तरीक्ष और स्वर्ग के अधिपति है। खण्डगिरिमें आज भी एक पाताल को और एक मर्थ की गुफा विद्यमान है। " जैन तीर्थंकरो की कोत्ति अतुलनीय है। तीर्थकर है जो ससार रूपी घाट के पार पहुँचातेहैं अर्थात् जीवनकी नौका चलाने के लिये ठीक मार्ग बताते हैं। संवतीर्थकर क्षत्रिय परितु वे सन्यासी बनकर जगत्का श्रेष्ट मादर्श मार्ग दिखाते हैं। ऋषभ, (५) 'नव भारत' जुलाई १९१० से अगृहीत. . (6) The Heart of Jainism by Mrs. Sinclair Stevenson, P. 105. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैमि, पाश्र्वनाथ, महावीर कोई किसीसे कम नही थे। २४ तीथंकरो को मिलाकर जैन बोग कुल ६३ शलाका पुरुषो को स्वीकार करते है । वे है २४ तीर्थकर १२ चक्रवर्ती ६ बलदेव ६ नारायण (वासुदेव) ९ प्रति नारायण (प्रति वासुदेव ) ये ६३ शलाकापुरुष है, जिनका विशद विवरण निम्नप्रकार है २४ तीथंकर ऋषभ, अजित, सभव, अभिनन्दन, सुमति पद्मप्रभ, सुपारी, चद्रप्रभ, सुविधि, शीतल, श्रेयाश, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुंथनाथ,परनाथ, मल्ली, मुनि सुब्रत, नमि, नेमि, पार्श्वनाथ, महावीर । १२ चक्रवती भरत, सगर,मघवान्,सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुन्थनाथ, अरहनाथ, सुभौम, पद्मनाभ, हरिषेण, जयमेन, ब्रह्मदत्त । ६ बलदेव-अचल, विजय, भद्र, सुषम, सुदर्शन, मानन्द, नन्दन, रामचन्द्र, पद्म । नारायन याबासुदेवत्रिपृष्ट, द्विपृष्ठ, स्वयभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिह,पुण्डरीक, दत्तदेव लक्ष्मण, कृष्ण । ६ प्रतिनारायण या प्रतिवासुदेवअश्वग्रीव,तारक,मेरक,मधु,निशुंभ,बालि,प्रहलाद.रावण,जरासष जैनधर्ममे वीरत्वकी गाथा निराले ढगसे की गई है। उस मे त्याग की कथा या अपने को जीतनेकी कथा है। सच्चा जैन वह है जिसने अपने को जीता है यानो सारी बासनाओ पोर प्रवृत्तियों को अपने वश में कर रक्खा है। जिसने निजको जीत Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासित है इस freei को भूल कर हम विभिन्न देव देवियों की कारावना में मग्न रहते है- बाहर की शक्ति की पूजा करते है । प्रचुर्य हैं, व्यक्ति मुक्ति को बाहर ढूंढ रहा है ! मानव तथा अन्य जीवोके साथ ऐक्य धीर सखाभाव स्थापन करना धर्मका प्रबलतम उपदेश है। इसीलिये जैनियोने पहिंसा की बीति को प्रत्यक्ष विगूढ़ भावसे ग्रहण किया है । वे लोग रात में भोजन इसलिये नहीं करते कि रात में दीप जलाने पर उसमें कीट प्रलय गिरकर मर जाते हैं । यहाँ तक कि पानी को छानकर पीते है और उसका परमित उपयोग करते है जिस से कि जलकास के छोटे छोटे जीवाणुओंों का नाश न हो । पृथ्वी के इतर धर्मोकी भाति जैनधर्म में हिमक- युद्धो का घनघोर या पशुवलपरक वीरत्वका परिप्रकाश दिखाई नही देता । धर्म में शान्ति, सौहार्द, प्रीति, संयम, श्रहिंसा, और मधुर मैत्री मादि विशेषतायें विद्यमान है । धार्मिक, प्राध्यात्मिक, दार्शनिक और व्यावहारिक विचारसे जैनधर्म ने मानव जीवन को सुन्दर करनेका विधान किया है। किसी भी जीवकी हिसा न करना और उस साधत से मोक्ष का लाभ करना जैनधर्मकी सबसे बडी विशेषता है। बौद्धधर्मके निर्वाण मे अन्त में शरीर का ध्वस करना पड़ता है, लेकिन मोक्षके लिये अपनेको ध्वस करनेकी बाल जंनधर्म से नहीं है । उसमें अपने को जीतकर जगत् की सेवा लगने की बात है | यही है सच्चा मोक्ष बड़े प्राश्चर्य की जव है कि ऐसा धूम्रमत भी ससार में सृमद्धित भोर व्याप्त स. हो सका। मेरे विचारसे इसका कारण यह हो सकता है कि मलय के हृदय से शान्ति की स्पृहासे युद्ध की प्रवृत्ति अधिक मात्रा मे बैठती है । उस प्रवृत्ति का समूल विनाश करना जैन #f की प्रान चैष्टा है। इसलिये धर्म प्रचारकोंक द्वारा पृथ्वी के विश्चिन्द्र यादों में धर्म के लिये युद्ध हुष्टि की चेष्टा जैन धर्म म Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नै नहीं की है। फिर भी प्रश्न उठता है कि बौद्धधर्मने तो धर्मके नामसे युद्ध नही किया है, फिर वह कैसे भारत के बाहर चीन जापान मादि सुदूर देशों में प्रचरित हो सका ? मैं सोचता हूँ कि जैनधर्मकी नीरस कठोरता और निष्ठाने उसको जनसाधारण में लोकप्रिय नही कर पाया। बौदधर्म अपने मध्यम पन्ध (के कारण) यानी नातिकठोर पोर नाति विलासपूर्ण जीवन यात्रा के कारण अधिक लोकादरणीय हो सका था। जैनधर्म में तोर्थंकरो के सुकठोर प्रादर्श ने लोगो को विमुग्ध किया सही लेकिन उससे लोग सदा के लिये अनुप्राणित हो नहीं सके । ___ जनलोग भारत के बाहर अन्य किसी देश में परिदृष्ट न होते हुए भी भारतके काठियावाड,राजस्थान पोर उत्कल मादि प्रान्तो में प्राजतक दिखाई देते हैं। उडीसा के अनेक प्रान्तों में यथा पुरीकी प्राची नदीकी भववाहिका तथा पाठगड,में तिगि. रिमा नमापाटण मादि स्थानों में 'मी जैन बसवास करते है। सिंहभूम में सराक के नाम एक जाति के लोग रहते है । महा महोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्रीने इन लोगो को बौद्ध कहा है लेकिन मेरा दृढ मत है कि वे जैन है। __मयूरभज भोर केस्बुकर जिला के जिस जिस स्थानमे जैन धर्मके प्राचीन अवशेष और निवर्शन मिले है वहा सराकपोखरियां मौजूद है । इन सब पोखरियोको सराक जातिके लोगो ने खुद वाया था। सराक लोग शाकाहारी होते है । उनकी प्राचार * जैनाचार भी सभी वर्गके लोगोके लिये उपयुक्त है और एक समय बह भारतेतर देशों में व्याप्त था, किन्तु संगठन के प्रभाव में विदेशोमें बौद्ध धर्म ने उसका स्थान ले लिया। अफ्रीका सिंगापुर आदि देशों में आज भी जनी है । -का० प्र (8) H.P. Sastri's Introducton to Neo.Budhism in Orissa by N.N Basu, Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्धति हिंदूधर्म से प्रभावित होने पर भी उसके ऊपर जैनियोंका काफी प्रभाव पडा है । शायद इसीलिये हरप्रसाद शास्त्रीने इन को बौद्ध कहा था। लेकिन शास्त्री जी से बहुत पहले पण्डित डाल्टन ने इनको जैन कहा है ९ (9) Chuhanghen by Dalton J. B.O.R.S. vol.XII Part lll में S. N. Roy का Saraks of Mayurabhanja देखिये ! -१४ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. जैन धर्म की ऐतिहासिक भूमिका आज भारतका जो हिस्सा 'उत्कल' के नामसे प्रख्यात् है, उसमे डेढ़ करोडकी प्रावादी के भीतर जैनियो की संख्या डेढसी भी नहीं दिखती है, किन्तु एक दिन ऐसा भी था जबकि जैनधर्म उत्कलका राष्ट्रीय धर्मं बना हुआ था । सम्राट् खारबेल के राजत्वकाल में उसी उत्कल में खण्डगिरिको गुफा प्रोमे खोदित शिलालिपियां इस बातकी गवाही देने के लिये काफी है । अस्तु, तबतक जैनधर्म सम्बन्धी आलोचना प्रपूर्ण रहेगी, जबतक उस धर्म के अभ्युदय, प्रसार, प्राधान्य, देशीय परम्परा, संस्कृति, भूगोल, इतिहास, भाषा, साहित्य प्रादि विषयोका पूरापूरा धनुशीलन न हुआ हो और उस अनुशीलन के फलस्वरूप उसका वास्तविक रूप सबके सामने प्रकट न हुआ हो । प्रत उत्कल में जैनधर्मका पर्ययलोचन करने के लिये सबसे पहले भौगोलिक विचार होना जरूरी है । कलिंग एक बहुत पुराना देश है। पुराणों तथा धर्मशास्त्रों में इसके प्रमाण अनगिनत है । मिश्री, युनानी तथा चीनी पर्यटकों के भ्रमणवृत्तान्तों में भी उत्कल का उल्लेख हैं । २ विभिन्न छ: राष्ट्रो के सम्मिश्रणसे इस प्राचीन भूखण्डका निर्माण हुआ है और ये है- मोड़राष्ट्र, कलिंग, कंगोद, उत्कल, १- कूर्म पुराण, प्र० ४१; प्रग्निः अ०१०; वायु० प्र० ३३; ब्राह्माण्ड अ०१४; बाराह० ० ७४ विष्णु ० प्र० १८ स्कन्द० ५० १६ | 2- Pliny, Ptolemy, Geography. Yuan Chwang eto. -२५ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण कोशल प्रोर गगराडी । ये छ. राष्ट्र कभी एक चक्रवर्ती के अधीन रहते थे तो कभी स्वाधीन हो जाते थे । उस जमानेकी परिस्थिति और राजकीयविकासका यह हाल था। मगर अचरज की बात यह है कि इन राष्ट्रोंको सस्कृति और सभ्यता एक थी और एक ही मासे और एक ही क्रमके अनुसार इनका विकास होता रहता था । वस्तुत गगासे लेकर गोदावरी तक और पूर्वी समुद्र से लेकर दण्डकारण्य तक उत्कल विस्तृत था, कालक्रम से दक्षिणकोशल का कुछ प्रश उससे अलग हो गया और शेषका नाम त्रिकलिंग पड गया । इस नामको लेकर प्लीनी मँगास्तिनिस आदि विदेशी पर्यटकाने अपने अपने भ्रमणवृत्तान्तोमे उत्तर कलिंग, मध्य कलिंग और दक्षिण कलिंग का नामोल्लेख किया है । 'उत्कलमे जैनधर्म'- कहनेका अर्थ व्यापक होना चाहिये । देश के भाचार-विचार, सस्कृति, धर्मग्रथ, काव्यपुरणादि साहि त्यिक ग्रन्थ, शिल्प, स्थापत्य प्रादि बातो पर किसी भी धर्मके प्रभावका विचार अवश्य होना चाहिये । यह युक्ति सिर्फ उत्कल के लिय नही, वल्कि किसी भी राज्य या प्रदेश के लिये लागू है । किन्तु उससे पहले उस धर्मके संस्थापक प्रचारक और धर्म की नीति के बारेमे विचार करना भी प्रावश्यक है। किसी भी धर्मकी प्रतिष्ठा, प्रचार, परिवृद्धि, प्रकाश और पराकाष्ठा उस धर्मकी महत्ता, उसके प्रचारको के साधुस्वभाव, विशिष्ट निर्मल जीवन तथा उच्च प्रादर्श प्रसग के क्रम अपने आप सामने श्रा जाते है । इस बात को सामने देखकर जंनधर्म की गवेषणा या अनुशीलन करते चलेगे तो हमे ईसाके पहले घाठवी सदी तक या और पीछे जाना होगा। भारत के इतिहासके वारेमें हमें ईसा के जन्म से पहले सातवी सदी तकका पूरापूरा विवरण ठीक रूप ३- कूर्मपुराण -१६ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिशन mtasy WRITE WHITE ईसाकेन्वात्मके पहले सातों बादीले पौरमा पालेके लिये पुराणोंगामाचक निहार पारी बलों में गणितानामों की कुछ महोबदलके होते हए भीसम विवरणका एक अनोखा सादृश्य रहा है प्रानकी सहायताले.यापिइतिहासकी ऋमिकबाराका निवाकेना-कठिन है.', फिर भी मुख्य अनामका कम जानी जा सकता है। इस तरह भारत इतिहास का मुहर प्रसीत पवझमारे विनाविषयके रूप में सातादोरहम इसमें 'घरगे बढ़कर चलते हैं तो पुरुक्षेत्र का समय हमारे सामने एक निशान बन-माता विद्वानोका लिया है कि यह वासा के जन्म के पहले चौदहवीं सदी में हुमाया - "FA - बैनधर्मकी परम्परा अनुसार तीर्षकर भावतार के २५० साल बाद म० महावीरेका माविमा हुमाया होचो महापुरुष नमाम अन्तिम तीपंकर और अधिक मितवाली प्रचारक भी बनधर्मके कुल बीमांकासे की सस्या सोयीसा है। इससे सिद्ध होता है कि प्रापर्वनाप्रसे पहले बोनीबाईस ती शंकर हो गये हैं । इनमें से प्रयामातीकारका नामाकनभदेव सिह पादिमायनी कहते है बाईसवें तीनोकर कानामधानेमिनाथ मारिष्टनेमि जो दृष्यिवंशीय और बी.कृष्णाली के बेरे Political History of 16HIK-D'1 1.CF'Rayoion. dhury बोपन्थ 'माय माथी'. यूजकारूप में तिबगाय भाषा में बिक हया या उसमें एक मामाय में 10 सका भारतीय बनवा का वर्णन है उसमे कैचे.सावको को लिखती में कलिगके ऋषक माया लिया बसा है | DK RarJayanral's Imperial History of India. ### **FLProdbedrogenofindiab wistorsCongream1939 'Barsatta.sashirBRAS Altekar's Promidential Addross-Appundi history inprobis - F ll pin - Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाई भी इनसे इन्हें (नेमिनापको) ईसा जन्मसे पहले चौदहयों सदीके कह सकते हैं । यह निर्णय पुराणोंके सहारे कियाजाता है। पुराण वणित महाभारत के युद्ध से मेकर चन्द्रगुप्त साम्राज्य तक का काल एक क्रमके साथ निणित है । दस बारह साल के हेर फेर के होते हुए भी उस जमाने के दूसरे विवरणात्मक इतिहास के द्वारा समर्थित है । जो हेर-फेर दिखाई देता है वह केवल चान्द्रमान और सौरमान के कारण ही, इससे सिद्ध होता है कि अलग अलग धर्म-प्रचारको के जीवनकाल का फर्क २५० से ५०० साल के भीतर ही है। ऐसा होना स्वाभाविक है। किसी मवप्रतित धर्मकी दीक्षा कुछ कालके बाद अपनी निर्मल ज्योति खोकर मलिन हो जाती है । यह इतिहास की चिरन्तन रीति है । इस मलिनता को दूर करके नवीन धर्मका प्रवतन या सस्कार के लिये लोकगुरुषों का माविर्भाव हुमा करता है। इस दृष्टिकोण से विचार करनेसे मालूम होता है कि परिष्टनेमि से पहले जो २१ तीर्थङ्कर हो गये हैं उनके समय के अन्तर की गिनती करने पर मादिनाथ का समय करीब ईसा से पहले ३००० साल का हो जाता है । मिश्री, बाबिलनीय पौर सुमेरीय प्रादि प्राचीन सभ्यता के कान के हिसाबसे तथा महेन्-जोदाडो, हरप्पा मोर नर्मदा की उपत्यका में पुरातत्वात्विक गवेषण से जिस कालका निर्णय हुमा है, उससे इस काल ६- ऋषभदेव, अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमितिनाथ, पप्रम, सुपाश्वनाथ, चन्द्रगुप्रभु, सुविधिनाथ, पुष्पदन्तनाय, शीतलनाथ, श्रेयासनाथ, बासुपूज्य, विमलनाप, मनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाय, कुन्यनाथ, भरनाथ, मल्लीनाथ मुनिसुवत, नमिनाथ, नेमिनाथ पानाध, महावीर। •जन मान्यताके अनुसार ऋषभदेव भोगभूमिके अन्त और कर्मभूमिकी भादिमें हुए, जिससे अनुमान होता है कि ऋषमदेव पासान युगके बाद कृषियुग मे हुए थे। भ• नेमिका समय भी प्राचीन है। -का.प्र. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पता पासानी से मिल जाता है। देदों की चामो में मादिनाब ऋषभदेव का नाम प्राप्त होता है। यद्यपि कोई कोई इसे प्रक्षिप्त बताते है।हो मी यह स्पष्ट है किवादको अब पायन व्यास ने वेदोंका संकलन किया तब उन्होंने देवों में इस बातको बोड़ दिया होगा। मास कुरुक्षेत्र युद्ध के समय यानी ईसा से पहले बारहवीं सदी में थे, इससे सिख होता है कि ग्यास जब वेदों का सम्मान करने लगे थे तब तक ऋषभ देव भगवान के रूपमें स्वीकृत या ग्रहीय हो चुके थे यह मान मेना पड़ेगा। इसके बारे में लोकमान्य तिलकमी गीतारहस्यकी मालोचना मोर अनुशासन प्रपिधान-योग्य है.. जैनी धर्मग्रन्थोंमें प्रादिनाथ ऋषभदेव के बारेमें कुछ ऐसे विषय है जिनमें एक देशदर्शिता है। उन्होने ऊसका माविष्कार किया था और लोगोंको पशुपालन और खेतीकी शिक्षा ही पी. आदि विषयोंका उल्लेख है, हां, उस समय 'भारतवर्ष' ऐसा नाम नहीं हुमा था, क्योकि तबतक भरत राषा नहीं बने थे ऋषभके पुत्र भरतके नामसे देशका नाम 'भारत' मा। लेकिन उनसे पहले इक्ष्वाकुवशी राजा (जसके बाविकारक वंशके) हो गयेथे पोर देशमें खेतीका नाम पसातापा। सोपा भी करते थे, स्वयं ऋषभदेव पुत्रेष्टिया के 7- Prshistoric India-Stnart Piggott-PP.132-213. -अग्वेद में दिगम्बर साधुओं की चर्चा है। देव यमल इ. १० ११६. इसमें बिम्पर साधुमों के नेता केशीकी प्रशंसा है। इस केशको वर्णना भागवत के अपमदेव की वर्णनासे करीबी मिलती है। १- बीतारहस्य-बालगंगाधर तिलक कुछ (भूमिका लिये।) १०-भववाह रचित कल्पसूम में समरेवकी षषिक शिक्षामों का उस्लेख है। पहले मोग कल्पवृक्ष से बना पाते थे । Wilson's farygon Page-102, Jaopbi in I. Antiquary IXPage-103. Mabavina and his Predecedora. - - Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलस्वरूप पैदा हुए थे। ऋषभदेव बूब प्रमाप्रिय और शास्त्र विधानोंकोमवय सजकाज चलाते थे। दुखणे में छहोंने बामप्रस्थानमनाया या स्नकी कई रानियाथीं। १४१५, एकदिनीसम्बना नामको एक नर्तकी के नाम-मान:के निमित सें भ यंत्र संसारसे मुह मोरकर महतोके बाहर पाले मर्यगौर हकालवाद तपस्यामः सिद्धिनामापन अहिंसा पूर्ण धर्मका प्रचार करने लगे। उनमें प्रथम नो पुत्रों में राजत्यो बाद पतिव्रत अपनाया ना मोर सुसरे पुन मी ऋषि हो गये अहिंसा की दीक्षा देकर ऋषवाको पशुपति करने के सिके योग साधना करने का उपदेचा सबको देखे।। ' बार के तीर्थकरोंने प्राणिहिंसा न करने के लिये बिस नियम को स्वीकार किया उनका पालन होता बहा किन्तु बस यहाँ पर असुरोका प्रकोप हुमा मो अहिंसा — प्रधान गाईस्वाश्रम चलाना नामुमकिन हो गया। धर्मके कड़े कानून मोर शव नीतियां लोगो को अनुमाणित न कर सकी । इसीलिए ऐसे एक शुष्क ज्ञानमागं और निक्तिपर धर्मके अति पर समाज में बाश्चार मार्जन और नये नये सकारों के होने में प्रायम करने की बातही क्या है ? हिन्दुत्रों के पुलो मी कितनाही सिख विर्गम्बर साधषोंके मामासमालो सामल्लि. खित पाये जाते हैं । वे जैती दीक्षाके मूलमत्र और मुबतत्त्वका बहण करके निर्लोभ, हो नगरों में घूमते । इसतरह सजायकों पताके बाद महाभारत युगक प्रविष्टनाम का नाम हमें, मिलता प्रमाने में प्रविषानेमिका लोनो बाथरता था। लनताह कियावरणवाका मोगक्साका प्रचारक नही हो पाया था। परिष्टनम नामसे यो संस्कारासमा साशता CO LING. IYUONUNARY साधारण सादश्यखते ही भी १.ni THE । - Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो कर उनसे शादी करना चाहती थी, लेकिन कलिंग के राजा और दूसरे राजे भो प्रभावती को पाने के लिये लालयित ये फल स्वरूप लड़ाई छिड़ी, राजा प्रसेनजित ने लडाई के लिये पार्श्वनाथ की सहायता मांगी। प्राखिर पार्श्वनाथ ने लडाईमें कलिंग को हरा कर प्रभावती से शादी की । खण्ड़गिरि में अनन्तगुफा को पार्श्वनाथ की मूर्ति के ऊपर एक साथ है, यह उत्कलीय पार्श्वनाथ का एक खास चिन्ह है । महेन्द्र पर्वत की पार्श्वनाथ मूर्ति सहस्रसर्पों के फनो से प्राच्छादित है। श्रमण भगवान महावीरजी ईश्वी पू० ५५७ में अपने जीवन की ४२ साल की उम्र में तीर्थंकर बने थे । ७२ सालकी उम्र में ईश्वी ० पू० ५२७ में उन्होने निर्वाण प्राप्त किया था । जृम्भिक नाम के गाव मे उन्होने केवल ज्ञान प्राप्त किया था मौर बारह वर्ष तक गंभीर चिन्ता श्रौर अन्तह ष्टि के साथ जीवन बिताने के बाद उनको ज्ञानलाभ हुआ, तीर्थंकरोमें उनका स्थान सर्वोत्तम है । कल्पसूत्र, उत्तरपुराण, त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र मोर बर्द्धमान चरित प्रादि जैनग्रन्थो में उनको जीवनी का विस्तृत वर्णन है। जैनधर्म में उनका स्थान प्रप्रतिहत मोर अद्वितीय है । २४ तीर्थं करो में श्रेष्ठ तीर्थंकर के रूपमें उनकी गिनती होती है । इसलिये उनका लाञ्छन 'सिंह' रहा है । जैनो के २४ तीर्थंकरों में से १४ तीर्थंकरोने मगध, भग तथा बंग में देहत्यागकर निर्वाणलाभ किया है। एक समय जैन धर्म पश्चिम भारतमें भी व्याप्त था, फिरभी मगध, अग, जग और कलिंग इस धर्मके मुख्य क्षेत्र थे । मगध तथा कलिंग के सम्राज्यका धर्म बन जाने के कारण देश में इस धर्मका महत्व जितना बढगया था बौद्धधर्मका महत्व उतना नही बढ़ा था । किसी भी धर्मके सुदूर विस्तारकी प्रतिष्ठा के लिये कमसे कम चार-पाच सदियोकी अपेक्षा है । शाक्यसिंह का वेदविरोधी -२२ ― Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर संख्या मत परिपूरक बौद्धधर्म चारसौ सालके बाद एशिया भर में व्यापक हो पाया। इस रास्ते से आगे बढ़ते जायें तो हमें मान लेना होगा कि म. महावीरजी के बहुत पहले जैनधर्मका प्रचार हो चुका था-मौर यही उस धर्म की प्रति प्राचीनता की प्रबलतम युक्ति है। जैनधर्मकी प्राचीनता के बारे में ऐसा भी कहा जाता है कि दक्षिण भारतमें श्रुतकेवली भद्रबाहु अपने शिष्य चद्रगुप्त मौर्य को और अनेक जैन साधुओ को साथमे लेकर सबसे पहले ईश्वी पू० २६८ में पहुंचे थे। लेकिन भन्य एक प्रमाणके अनुसार प्रगट है कि जैनधर्म महावीरको जीवद्दशा में ही दक्षिण भारत में फैला था ? म. महावीर अन्तिम तीर्थकर थे। उस समयमें जैनधर्म कलिंग, महाराज, प्रोध और सिंहल में व्याप्त हुमा पा। हाथी गुफा शिलालेख से मालूम पड़ता है कि महावीर कलिंग माये थे और उन्होने कुमारी पर्वतसे जैनधर्मका प्रचार किया था। अधिकतु ईश्वी०पू०पहली सदी में जैनधर्म कलिंगका राष्ट्रधर्म हो गया था। महाराष्ट्र में भी भ०महावीरसे पहले जैन धर्मका प्रचार हुमा, क्योकि म. पार्श्वनाथ के शिष्य करफंड कलिगके राजा थे।उन्होने तेरपुर (धाराशिव) गुंफाका परिदर्शन किया था और वहा जैन मदिरो का निर्माण कराया था।" उन मदिरो में जिनेन्द्रो की मूत्तिया स्थापित हुई थीं। इसके साथही यह भी कहा जाता है कि मांध्र में मौर्यों के राजत्व से पहले जैनधर्म प्रचारित हुमा था । उसी तरह, महा - 12 Cambridge Histry of India VoII Page 164. 65 और Epigraphia Carnation vol. I. पौर Early History India. Page 154. 13 I. B. O. R. 8. Vol XVI Parts I-II and Kara. kanduacharya's (Karanja Series) Introduction. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लना वंश से मायूस होता है कि इश्वी पू. १५वीं सदी में न सिंबल में प्रसारित हुआ था। इस तरह पूर्व उत्तर भौर दक्षिण में आदि में श्रुतवली जैनधर्म पहुँचा था। रामस्वामी प्रायागौर महोदय ने भी प्रश्न उठाया है कि उत्तर भारत का एक धर्म दक्षिण भारतको दिना स्पर्श किये हुए सिंहल पहुँच सका,यह कैसे संभव हुमा' 1. केवल यह तभी संभव हो सकता है जबकि यह संभव हो कि उनरसे बौवधर्म समुद्रके मार्ग से दक्षिणको गया था। इसके अतिरिक्त यह भी सोचना चाहिये कि एक जैन आचार्य अपने .विशाल जैन संघके भनेक साधुओं को अपने अधीन दक्षिण में ले गये तो यह कैसे संभव है कि भद्रबाहु के पहले वहाँ जैतधर्म का कोई प्रभाव नहीं, इसपर भला कैसे विश्वास किया जाय ? जैन पुस्तको, मे लिखा है कि सबसे पहले ऋषभ ने जैनधर्म को दक्षिण भारतमे प्रचारित किया था उनके पुत्र बाहुबली दक्षिण भारत के प्रथम राजा थे । वे ससार को त्याग कर नग्न जैन साधु बने थे । गोदावरी के किनारे पर अवस्थित पोदनापुरमे उन्होंने कठिन तपस्या की थी और सर्वदर्श बने थे। तब बाहुवली जी ने, दक्षिण भारतमें जैनधर्मका प्रचार किया था। इससे मालूम पड़ता है कि जनधर्म दक्षिण भारतम प्रति प्राचीनकाल से प्रविष्ट हुआ था। इसके अतिरिक्त साहित्य और स्तंभ मादि प्रमाणो से जैनधर्मका यह एतिहासिकत्व प्रमाणित हो रहा है। ___ जैन माहित्यमें भद्रबाहुके बहुत पहले दक्षिण मथुरा, पोदन पुर, पलासपुर दिल मलयगिरि के पास), महाशोक तार • मादि स्थानो कीलिमा कही बासी है। दक्षिणा माग,पांडव माश्यों द्वारा स्थापित हुई थी। उस समय के वनवास में बक्षिण nitisastet ,.. - 14 Studies in South India Jainism Part'."P:33. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्रा है। वे सशफल अपने पुत्रों को राज्य लवन क्रिया था । ३० संभूत और चक्रवर्ती राजा मे अन्त में भार अर्पण करके उन्होंने पतिव्रतका भव 2 इस दृष्टिले विचार करने पर जैन मोर बौद्धधर्म मंशविशेष तथा क्षेत्र विशेष में वेदविधियोंका सड़न करने पर भी दोनों वैदिक धर्म सस्कार परम्परासे एकदूसरे से प्रभावित हुए माने जासकते हैं। प्रत्यक्ष रूपसे प्रासंगिक न होने पर भी इस ऐतिहासिक अच्छेक को यहाँ सूचित करनेका प्रधान कारण है जैनधर्म की मूल प्रकृति मोर ऐतिहासिक कालका निरूपण । उसके बाद धर्मकी झालोचना अधिकप्राजल हो जायेगी । इतिहास की पट्टभूमिसे सम्राट चन्द्रगुप्त के राजत्व मे कलिंग की राजशक्ति हमें स्पष्ट दिखाई देती है । हम समझते हैं कि कलिंगके राजा उस समयमी जैनधर्माबलबी थे । चद्रगुप्तका कलिंगका प्राक्रमण बिना किये ही दाक्षिणस्य भूभाग में प्रविष्ट हो जानेका कारण यह समधर्मस्व हो है । १ कलिंगवासी प्रारमसे ही स्वाधीनवृत्ति के पोषक और बलवान थे। इतने शक्तिशाली और स्वाधीन होने के कारण ही कलिंगकी सेना स्वाधीनता और स्वादेशिकता के लिये प्राण देकर प्रशोकके साथ लड़ी थी । यद्यपि इन युद्धो में कलिंग देशकी स्वाधीनता चली गई और चंडाशोकले 'देवानां प्रिय' बनकर विश्वजनीन मैत्रीका प्रचार किया था। उससे उद्भासित होने पर भी कलिंग के लोग अपनी धर्मदीक्षाको भूल नही सके थे । खारवेल के दिग्विजयसे उसका प्रमाण मिलता है। खारवेल २० भागवत १ स्कन्ध, हया ६ १ स्कन्ध ७ १ स्कन्ध अध्याय ४ ७ स्कन्ध अध्याय ११ 21-R.E VIII. Corpus Inscriptionum Indicarum Vol I by Hultsch Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर भारतको जोतकर जिनमूर्तिको पाटलीपुत्र से कलिंग ले आये थे। २२ खारवेलके युगसे ही हमारे मालोच्य विषय का ठीक प्रारम्भ हुआ है ऐसा मान लेना उचित होगा। यह है ई०पू०१वी सदो को बात । अशोकके बाद कलिंग फिर स्वाधीन बनकर खारवेल के समय समग्र भारतमे एक शक्तिशाली साम्राज्यमे परिणत हुमा था । वारवेल जैनधर्मकी महिमा का प्रचार करने मे लग गये थे। जैनधर्मका यह नब यर्याप उडीसा में लगभग ईस्वी ५ वी सदी तक रहा था जबकि जैन और बौद्ध तान्त्रिकबाद का प्रवर्तन हो चुका था। यह प्रभाव लगभग ईस्वी १० वी सदी के अन्त तक अव्यहत रहा । मगर अन्तमे वैष्णव धर्म के स्रोत से लुप्त हो गया । - 22 Select Inscriptions-D. C. Sarkar. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. कलिंग में आदि जैनधर्म जैनधर्ममें जो २४ तीर्थकरों की उपासना की विधि है उन में से कितने ऐतिहासिक महापुरुष और कितने काल्पनिक महा पुरुष थे उसको युक्ति युक्त समीक्षा अभी तक नहीं हो सकी। धर्म के स्रोत में डगमगाने से वैज्ञानिक दृष्टि के अनुसार उस की उपयुक्त मीमांसा हो नहीं सकती। ऐतिहासिक जैकोबी पौर अन्य पण्डितों ने जैन शास्त्रों की आलोचना से सिद्धान्त निर्धारित किया है कि पार्श्वनाथ से जैनधर्मका प्रारंभ हुपा। ऐतिहासिक भित्ति के माधार पर पार्श्वनाथ ही जैनधर्मके प्रथम प्रवर्तक के रूपमें माने जाने चाहिये ; परंतु साथ ही जैकोबीने यह भी माना कि जैनोको २४ तीर्थङ्करों की मान्यता में तथ्य होना चाहिये प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की ऐतिहासिकता भी स्थ्यपूर्ण हो सकती है। भष्पार्श्वनाथ को जैनधर्मका प्रवर्तक मानने में किवदन्वी और इतिहास दोनों सहायक होते है। भ० पाश्वनाथ जैनधर्मके मादि प्रवत्तंक हों या न हो, इसमे सदेह नही है कि उन्होंने सबसे पहले कलिंगमें जैनधर्मका प्रचार किया था। भ० पार्श्वनाथ के नामके साथ कलिंगकी - 11. A. II Page 261 and Vix Page 112 इस प्रसंब, मे सर पासुतोष मुखार्षि Silver Jubilee YONIEL Page 7482 देखिये। 20. H. B.J. Vol. vi. Page 79. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन संस्कृति का घनिष्ठ संपर्क रहा है । उदयगिरि और खडगिरि की गुफापो में भ० महावीर की भूत्ति मौर कथावस्तु ने अन्य तीर्थंकरो से अधिक विशिष्ट स्थानका अधिकार किया है। किंतु खंडगिरिमे ठोरठौर पर भ० पार्श्वनाथको ही मूल नायक के रूपमें सम्मान प्रदान किया गया है। निस्सदेह कलिंग के साथ म०पानाथका जो संपर्क है उसका दिग्दर्शन पूर्व अध्याय में सुचित, हुमा है। प्राच्य विद्या-महार्णव श्री नगेन्द्रनाथ वसु ने "जैन भगबती सूत्रजन क्षेत्र समासः' मोर भावदेव के द्वारा लिखी गयी "२४ वीर्घको की जीवनी"की मालोचनासे सबसे पहले कहा है कि भ० पार्श्वनाथने अंग वंग मोर कलिंग मे जैनधर्मका प्रचार किया था। पर्म प्रचार के लिये उन्होने ताम्रलिय बन्दरगाह से कलिंगके मूभिमुख पाते समय कोपकटक में पत्य नामक एक गृहस्थका प्रातिथ्य ग्रहण किया था। बसु महोदय के मतके अनुसार यह कोपकटक बलेश्वर जिलाका कुमारी ग्राम है। मोम ताम्रफलक से मालूम होता है कि ८वी सदीमे यह छुपारीग्राम कोपारक प्रामक रूपमे परिचित था।' म. पानांप गृहस्प धन्यके घरमें मतिथि हुए इस घटनाको स्मरणीय करने के लिये कोपकटक को उपरान्त धन्यकटक कहा जाने लगा था । बसु महोदयने इस विषय में प्रषिक प्रकाश डालते हुए लिखा है कि उस समय मयूरभज मे कुसुम्ब नामक एक क्षत्रिय जातिका राजत्व था और बह राजवश म० पाश्वनाम के प्रचारित धर्मसे अनुप्राणित हुमा वा । यह विषय बसु महोदय को कहां से मिला हमें मालूम नहीं है। म. पाश्र्वनाथ के बाद भ. महावीर जैनधर्म के प्रन्तिम तीकरके स्पावित हुए थे। जैनियों के "आवश्यक सूत्र" में लिखा हुमा है कि म. महावीर ने तोषल में अपने 3 Neil Pur Copper Plate Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारवेल के हाथीगुफा शिलालेख कापिथुड है।' खारवेल के हाथींगुफा शिलालेख में यह भी लिखा गया है कि खारवेल से बहुत पहले कलिंगके राजमोके द्वारा अध्युसिंत पिथुड नामक एक जैनक्षेत्र था। __इस मालोचनासे स्पष्ट सूचित होता है कि भ० पार्श्वनाथ के समय कलिगमें जैनधर्मका प्रभाव पड़ा था और भ० महावीर के समय अर्थात् ई०पू०६वी सदीमे इस धर्मके द्वारा कलिंग विशेष रूपसे अनुप्राणित हुआ था । ई०पू०४ थी सदी मे महापद्म नन्द ने कलिंग पर आक्रमण किया था। वह कलिंग विजय के प्रतीक रूप बहुकाल से जातीय देवता के रूपमे पूजित होने वाली कलिंग जिन प्रतिमा को अपनी राजधानी राजगह को ले प्रायें थे। यह विषय न केवल पुराणो में दिखाई देता बल्कि खारवेल के हाथीगुफा शिलालेख मे भी इसका स्पष्ट उल्लेख है । इस लिये ईस्वी पू० ४ थी सदीमें भी कलिंगमे जैन धर्म राष्ट्रीय धर्म के रूपमे प्रतिष्ठिन था ऐसा नि सदेह कहा जा सकता है। ईस्वी पू० ३री सदी मे कलिंग के ऊपर एक अकथनीय विपत् प्रायी । मगध के सम्राट अशोक ने कलिंग के खिलाफ युद्ध की घोषणा की और कलिंग को छार खार कर डाला । ____ इस युद्ध में कॉलंग के एक लाख मादमी मारे गये, डेढलाख वन्दी हुए और वहृत लोग युद्धोत्तर दुर्विपाक में प्राणो से हाथ धो बैठे। मेरा दृढ विश्वास है कि कलिंग के जिस राजा ने अशोककै साथ युद्ध चलाया था वह एक जैन राजा था। अशोक ने अपने १३वीं अनुशासनमे गंभीर अनुशोचना के साथ स्वीकार किया है कि कलिग युद्ध में ब्राह्मण तथा श्रमण उभय संप्रदाय के लोगो ने दुख मोगा था । अशोक ने जिनको श्रमण कहां हैं 7- I. A. 1958 Page 145 am Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वै निःसंदेह जैन थे कलिंगके भाग्यविपर्ययमें अशोक मांसू गिरा कर रोते थे सही, मगर नन्दराजाके द्वारा अपहृत कालिंग जिन प्रतिमाको उन्होंने भी नहीं लौटाया था । उनके बाद जब खारवेल कलिंगके सिंहासन पर बैठे तब उन्होंने अपने राजत्वकी १७ वीं सालमें मगधके खिलाफ अभियान किया और उस कालिंग जिन प्रतिमा को कलिंग लौटा कर लाये । प्रशोकके बाद उनके नाती मगधके राजा हुए थे । प्रशोक पहले जैसे बौद्धधमं का पृष्ठपोषक था, ठीक उसी तरह सप्रति जैनधर्मका पुष्ठपोषक रहे । उनके राजत्वमें कलिंग में जैनधर्मका प्रभ्युत्थान होना सभव था। कलिंगमें मौर्यवंशके बाद स्वाधीन चेदिवशका अभ्युदय हुआ । इस वशके राजत्वकाल में कलिंग में जैनधर्म पुनर्वार जातीय धर्मके रूपमें प्रतिष्ठित हुषा । खारवेल इस वंशके तीसरे राजा थे। उनके कार्यकलाप और जैनधर्म के प्रति दानके बारेमें परवर्ती परिच्छेदोमें विस्तृत आलोचना की गई है। कलिंग में "आदिधर्म जैनधर्म" की वर्णना करते हुए भ० पार्श्वनाथ के जन्म से लेकर खारवेल तक धारवाहिक रूपमें एक सक्षिप्त प्रालोचना दी गयी है । इस अलोचना के पर्याय अशोकके समसामयिक कलिंगके जैन राजा को तथा मौर्योतर युगके राजा खारवेल की सूचाना दी गयी है। कलिंग में जैनधर्मकी प्राचीनताका प्रतिपादन करने में मौर्ययुग से बहु पूर्ववर्ती कलिंग के एक राजाका विषय यहां उपस्थापित करना प्रासंगिक प्रौर विधेय मानता हूँ । दे कलिगके राजा करकण्ड भ० महावीर से पहले धौर भ० पार्श्वनाथ के बाद वे कलिंग के राजाथे, यह सुनिश्चित है । कोई कोई उनको पार्श्वनाथ के शिष्य मानते हैं।" 8 Indian Culure Vol IV 319 ff. - --- Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन "उत्तराध्ययन सूत्र" १८ वां मध्याय में करकण्डे 艾博 के बारे में जो लिखा है, उससे मालूम पड़ता है कि जब द्विमुख पचाल के, नेमि विदेह के और नग्नजित गांधार के ग्रासक थे तब कूरकडु कलिपके राजा थे । इवं चार राजाओं को उत्तराध्ययन सूत्रों के लेखक ने पुरुष पुगव की आख्या दी है।" उन राजाओ ने अपने अपने पुत्रो के हाथो राज्यवार को मके अमके रूपमे जिनपन्थका अवलम्बन किया था, बौद्धोंने राजा करकंड को एक प्रत्यक्ष बुद्ध कंहा है मौर बुद्धिसे पहले जिन महापुरुषों का जन्म हुआ था उनमें से करकंड विशिष्ट स्थान दिया है । " ' "कभूकार जातक" से मालूम पड़ता है, कि दंडपूर करकंड की राजधानी थी । राजाने अपने मनुचरो के साथ दूडपुर की एक म्रवाटिकामे प्रवेश कर एक फलपूर्ण वृक्षसे पका हुआ श्राम लेकर भक्षण किया । यह देख सब ही ने आम तोड के खाये, जिससे वह पेड़ ध्वस्त विध्वस्त हो गया । 4 • राजा करकडू बड़े भावुक थे । वलवान् वृक्षकों उसदशा को देख वे गभीर चिन्तामें मग्न हुये और अन्त मे उन्होंने निश्चित किया कि ससार की घनसपत्ति दु खोका कारण है। इस भावना से वे ससार त्यागी बने और उनको प्रत्येक बुद्धको ख्याति मिली। करकडु के बारे में यह है एक बौद्ध उपाख्यान । जैनियो ने "करक चरिय” नामक एक पुस्तक का प्रणयन किया है । "अभिधान राजेन्द्र " में भी करकड के बारेमें विस्तृत वर्णना है, जनप्रम्प से उपलब्ध उपाख्यान की विस्तृत वर्णना मांगे दी गयी है। कर उपाख्यान पूर्व कालमें चंपक, (चम्पा) नगरी में दधिवाहन नामक एक राजा थे। चेटुक महाराजा की कन्या है- उत्तराध्ययन सूत्र, १८ वा अध्याय, श्लोक ४५-४६ 10- Fousball's Jataka No 3 P. 376. - -- Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मावती उनको रानी थी। रानी ने अपने प्रथम गर्भके समय एक अद्भुत प्रकारको अभिलाषा को व्यक्त किया था। उन्होने के कारण वे राजाके सामने इस बातको प्रकाशित नही दर सकी। इस दोहलेको चिन्तास वे क्रमश दुर्बल होने लगी । राजाने उनसे बहुवार अनुनयके साथ उनकी अभिलाषाकै बारेमें पूछी था। अन्त में बड़े कष्टसे पद्मावती ने अपना गोभिलाष व्यक्त किया था । चिकित्सा शास्त्रके प्रनुसार गर्भवती स्त्रीको सकल प्रकार इच्छाओं की पूर्ति होनी चाहिये। अंतः राजा दधिवाहनने रानी को इच्छामें सम्मति दो एवं रानीको अपने हाथों पर बैठाकर स्वय ही पीछे छत्रोत्तोलने करके बनके प्रति अग्रसर हुए । गजा और रानीके वनमें प्रवेश होते ही बारिश हुई। दीर्घ ग्रीष्म के बाद पहली वर्षा की पार्द्रता के कारण मिट्टी से एक प्रकार का सुगंध निकला और मलय पवन के साथ बन को चारों ओर से नाना प्रकार के फूलों की महक छर्ट मांगी। विस्मत मातभामि के प्रशान्त दृश्य ने हाथों के मन में कार की मष्टि की वर्षा के प्रारम में मिट्टी का गंध माघ्राण का हाँधी उन्मत्त होते है। प्रोडा का स्मरण करते हो उस हाथी के गण्डस्थल से मद जल प्रवित हुा । मोर वह निविई परण्य और गानों का उद्धार करने में कोई भी सैनिक सक्षम नहीं हुई। राजा ने प्राणरक्षा के अन्य उपाय न देस सामने हुए . उसका गतिराधक एक द E है . किटात राजाने कडकपन रक्षाको किन्तगभवत Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिये सम्यासिनी ने कहा " संसार सुख यथार्थ सुख नहीं है. वे केवल सुखाभास मात्र हैं । प्रत प्रत्येक सासारिक क्लेश से निस्तार पाने के लिये त्यागवत के प्रबलबन से प्राध्यात्मिक चिन्तवन करना ही श्रेयष्कर है । साध्वी के सदुपदेश से वैराग्य प्राप्तकर पद्मावतीने उनसे दीक्षा ली थी । व्रतविघ्न के भयसे उन्होंने अपने गर्भ के बारेमें कुछ प्रकाश नही किया था। एक महीने के बाद गर्भवृद्धि होने से जंन सन्यासिनी ने उसके बारेमें प्रश्न किया । पद्मावती ने "मेरा यह गर्म पहले से ही रहा है, किन्तु व्रतविघ्न के भयसे मैंने उसे प्रकाशित नही किया था ।" लोकापवाद के मयसे उन्होने पद्मावतीको एकान्त स्थान में रखवा दिया । ठीक समय पर एक पुत्र पैदा हुआ। रानीने शिशुको रत्नकबल से प्राच्छादित करके पिता के मुद्राकित नाम के साथ श्मशानमें त्याग दिया । स्मशान का मालिक जनसगम ( चंडाल ) ने शिशुको उसी अवस्था में देख उसको लेकर अपत्य शून्या अपनी पत्नी को समर्पित किया । सब जानकरभी पद्मावती ने जैन सन्यासिनी को पाशमृत पुत्र जात होने का सम्बाद प्रेरण किया था । अलौकिक तेजस्वी दत्तापकर्णिक ( नामक वह बालक ) जनसंगम के घर में बढने लगा । जननीप्राण के आवेग से पद्मावती प्रत्यह पलक्ष्य में रहकर बालक की गतिविधियों को लक्ष्य करती और कभी कभी चंडालिनी के साथ मधुर मालाप व्यस्त रहती । दत्तापकणिक क्रमश: महा-तेज से शोभने लगा । प्रत्यह वह पडोसी बालकों के साथ खेलता रहा। गर्भधारण के दिन से लेकर शाकादि भोजन के कारण उस बालक को कंडु बलता नामक दोष था । अपनी चेष्टासे तथा साहाय्यकारी क्रीडासंगियों के द्वारा शरीर का कंडु दूर करवाने के कारण Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोग उसको "करकड़' के नाम से पुकारते थे । पुत्र के मुख अवलोकन करने को बाधा से पद्मावती प्रत्यह चडाल के घर जाती पोर प्रपने पुत्र दत्तापकर्षिक या करकंडु को भिक्षालन्ध मिष्टान्नादि प्रदान करती । खः बरस की उम्र में पिता के प्रादेश से करकडु श्मशान के कार्यों में नियुक्त रहा। एक दिन जब बहु श्मशान की रक्षा में नियुक्त था तब उसको एक साधु का दर्शन मिला । सांधुने उस श्मशान में उगे हुये शुभलक्षणयुक्त एक बास को दिखाकर कहा "मूल से चार प्रगुल के परिमाण से जो इस ब्रास को ले कर अपने पास रखेगा उसको जरूर राज्य मिलेगा ।" करकडुने वह बासका टुकड़ा अपने पास रक्खा, श्रीर नियतकाल में उनको दतिपुर का राज्य प्राप्त हुषा । अन्तमे वह अपने पितृराज्य चम्पाके भी अधिकार हुये थे । उन्होंने कलिंग एव दक्षिण भारत में जैनधर्मकी प्रभावना को थी। इस प्राख्यान से कलिगमें जैनधर्मकी प्राचीनता का बोध होता है । -25 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. खारवेल और उनका कालनिर्णय खारवेल उत्कल तथा भारतीय इतिहास की एक अविस्मरणीय विभूति हैं । उनके जीवन की प्रमुख घटनाएँ "हाथी गुंफा" के शिलालेखो में प्रशस्त रूपसे लिपिवद्ध पायी जाती हैं । परन्तु उनका 'कालनिर्णय" तो भारतीय इतिहासकारों के लिए एक कठिनाईका विषय और प्रधान समालोचना की वस्तु बन गया है । भारतीय इतिहास में यह "कालनिर्णय " तरह तरह के विभ्रमो की सृष्टि करता है । इसलिए इस समस्याके समाधन के लिए साहित्य अथवा किम्बदतियों से मच्छे अच्छे विषय संग्रह करना हमारी घृष्टता नहीं समझी जाना चाहिये क्योकि सावधानताके साथ साहित्य तथा किम्बदन्तियों या लोककथान से श्रावश्यकीय विषय वस्तु ग्रहण की जासकती है। निस्सदेह बहुत दिनोसे "खारवेल का समय निर्धारण" इतिहासकारों के लिए एक विवादग्रस्त विषय बना हुआ है । किंतु इस प्रसंग में ध्यान देने योग्य बात यह है कि उडीसाके पुरीजिले के कुमारगिरि ( पहाड़ ) की शिलालिपियों से हमें खारवेलका प्रमाणिक परिचय मिलाता है। उन शिलालिपियों में क्रमशः उनके ११वर्षो तक शासन करने की इतिवृति मक्कित है । उसमें उनको अधिपति एव उनकी रानीको “अग्रमहिषी" के रूपसे अभिहित किया गया है। इस ग्रमहिषी द्वारा निर्मित 'स्वर्गपुरी' नामको गुफावाले लेखमें खारवेल को 'चक्रवर्ती' के नाम से संबोधित किया गया है । पर खारवेल के पूर्व पुरुषोंके बारेमें -११ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमें कही से कुछ भी वृत्तान्त प्राप्त नही होता है । न उनके वंश का परिचय, न पिता माताके नामका कही पर उल्लेख है । इसी के कारण उनका काल-निर्णय एक समस्या बन गया है। शिलालिपियो में ऐसी कोई दिनाक नहीं है, कि जिससे कालनिर्णय किया जासके । अतः हमें हठात् शिलालिपियो मे वर्णित कथाम्रो की ऊहापोहात्मक चर्चा करनी पडती है । पुराने ऐतिहासिको में स्वर्गीय प० भगवानलाल इन्द्रजीने पहले स्थिर किया था कि खारवेल के शासन कालके तेरहवे वर्ष हाथीगुफा के शिलालेख खोदित हुए थे। हाथी गुफा के लेख मॅ मौर्य काल का उल्लेख है । इस मत के आधार से वह खारवेल शासन के इन १३ वर्षों को वे मौर्यो के १६५ वर्षसे मानते थे । अर्थात् वह काल ईसा पू० ६० अवश्य होगा, क्योकि स्व० इन्द्र जी ई० पूर्व २५५ को प्रशोक के कलिंग विषय का समय मानकर उसे मौर्य काल की पहली वर्ष मानते थे । गणनाके फल स्वरूप खारवेलका सिंहासनारोहण का समय ई० पू०१०३ ( ई० पू० २५५ - १६५+१३ ई० पू० १०३ ) होता है, एसा उनका विश्वास था । ४ परन्तु डॉ० फ्लिट्ने प्रोफेसर लुजारस के मतका मनुसन्धान कर मौर्य काल के बारे मे विरुद्ध मत स्थापन किया है। उनका कहना है कि हाथीगुफा के शिलालेखो मे प्रथवा भारत के इतिहासमे मौर्य कालके बारेम कोई सत्य बात ज्ञात नही होती। शिलालेखकी छटवी पक्तिमे लिखित "तिवस सत्" को वे १०३ वर्ष मानकर एव शेष नन्दराजा के राजत्व काल 1 Proceedings of the International Congress of Orientalists, Leyden. 1889 2 Ibid 3 J. R. A. S.,1910, 242, ff. 824 ff. 4 Ep. Indica, vol. X. App. 1980-1, No. 1845 -1 - Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (कि सार्वेस समयको ई० पू दूसरी शतीके मा का मानना समुचित नहीं है, डॉ० हेमचन्द्र जी चौधरी ** डॉ० दिनेशचन्द्र सरकार " डॉ० वस्थी で नरेन्द्रनाथ घोष" प्रादिने ई०पू० पहली शतीके शेषार्द्धको हो खालका प्रकृत समय माना है। NAW 1 हाथी गुफा शिलालेखों से हमें कुछ शासकों के नाम प्राप्त होते हैं । उनका समय निर्णित हो जाएं तो कुछ हद तक यह " समस्याभी हल हो जावेगी । अतः यहीं पर कुछ समसामयिक arrant का निर्णय किया जाता I Ab अपने राजत्वकाल के दूसरे हो बर्षमें खारवेल ने राजा कर्णका कोई भय न मानकर पश्चिम दिशाको घोर सैन्यदल भेजा था । यह सातकर्ण अवश्य ही बान्ध्र सातवाहन वशके राजा होगे । नाना॒घाटं शिलालेखसे हमें ज्ञात होता है कि वे aretters स्वामी थे ! * 1 1. डा० रायचौधरीके मतसे तथा अन्य पौराणिक वर्णनों द्वारा ज्ञात होता है कि सुग राजाओंने चन्द्रगुप्त मौर्यके सिहासनारोहण के १३७ वर्षके बाद ११२ वर्ष तक राजत्व किया था और सगवश के अन्तिम राजा देवभूतिकी हत्याकर उनके अमात्य वासुदेवने काण्वायन वंशकी स्थापना करके मगध पर afaकार किया था । फिर ४५ वर्ष के बाद काण्वायन वंश के अन्तिम राजा सुशर्मणको सिमूकने राजगद्दी से हटाया था । सिमुकसे मान्ध्र सातवाहन वंशका प्रारंभ हुआ । इन पौराणिक कथानों के अध्ययनसें डा० रायचौधरी ने निर्धारित किया है 10. Ibid; 11. Age of Imperial Phity 215 ft + 12. Old Brahmi Insoriptions 1917, 253ff 13. Early History of India, 1948, 180-199. 14. Indian Antiquary, Vol. XLVII (1916) 403 ff -४२ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि पूर ( पू०३२४-११ - पू. w) सिस्काने ममय मधिकार कर लिया था कि के और १८ वर्षतक कृष्णा बाबत्व करने के बाद ही सावक्रमी नहीपर बैठे अगर ई.पू. ३० को हम सिकका शेष वर्ष बाने तो सातकर्णका सिंहासनारोहण कालकोई पू०१२ मानना पड़ेगा (ई० ३०-१८-ई० पूर्व १२) अगर यह सही हो तो वह बारवेलके रापन कालका दूसरा वर्ष है अर्थात् ई.पूर्व १४ सामोस कतिबके सम्राट बने थे . . . . हत मित्र-हाथीगुफा शिलालेखसे शात होता है कि खारवेल ने अपने राजत्व कालके . १२ वर्ष में मगधाधिपति बृहस्पति मित्रको युद्ध में परास्त किया था। "प्रग, प राजानं वृहस्पति मित पादे दलापपति" हाथोगुफाके अतिरिक्त अन्य पांच शिलालेखों में हम वृहस्पतिका नाम पाते है:--- Frt (१) मधुरा के पास मोरा नामक गांवमें शिलालेखपर वृहस्पति जिनका नाम उल्लिखित है । इस बृहस्पति मिन की कन्याका नाम था शमिता। १२) इसाहाबादके पास पाफोसा शिलालिपिके लेख पर किस वृहस्पति मित्रका पता मिलता है, उनके मामा मामाद हेन । (३) कौसाम्बी से प्राप्त मुद्रामोके प्राधारसे कमसे कम से बृहस्पति मित्रोंका रहना हम अनुमान करते है। 15. Age of Imperial Unity, P. 185.8 16. O.H.R.I, Vol III No.2BRO. . 17. Hathiguladharinsornptioneithela 18. Vogel.J.R.A.S. 1912 PartialP.420. 19. Ep. Indion Vol II P.241. 20. C.C.A.L. London-P.XOWI (Kosambi Coin): Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायवासिमिया Nam-MrDyuniya गाय महतालिमकct . . . ti may मंगवी प्रतिष्ठाता पुष्यमिव सुंग को सारवेल का समय सामयिक मानकर डॉ० जायस्वालने वारससिहासनाराहा समय न्यूज पर निश्चित किया है कि सुमको मुफा के देहस्पति मित्र माणित करने की सबसम्पर वह पूर्णतिवाभावारिताह ! T3 T. AFTE72 FE कमोबेलडाँयायसवाल और रेपसन्' ने भर प्रकाश किया था कि मोपा भोपालोसा शिलानशानिय सोयहरमलिमित्रों के नामोंकाउल्लेख किया गया एक तथा मिल है क्योंकि उन शिलालेखों को प्राप्त स्थानी वंशका प्रखड राजत्व था। ! Fup PF " परन्तु इसे . प्रामानने ग्रहण नहीं किया है। उन्होंने देखा कि मलेस शिलालेखापापाता शिलालेखों से समस्याही अत्यन्त प्राचीन हैं। प्रत दोनो बृहस्पति मित्रोमे पाहा ...J.B.D.R.SIL.96, III-489TRArrB.Mr Baran 0. B. 1.P.24t Artor itish sits 12. P. H. ASTRgs 401 alsdy . 23. J. B.ORBELITPige 236-245 24. J.R..S. 18P:11206 35. Cambridge History of India Wat i P.834-26 26TIBIOTRS.intory. 100 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पामा Homponed the threnTouryalmshaaye of Nandrajstोनवार्य जो पालियर समानेकशिलकुल बदल बिकाउन सबमें तिब काम १०३वर्ष पहले पहल डायनासोर गरी दिवसका बर्ष ३०. वर्ष समाया बबादकोसे अस्वीकार करके सो जुडा केमिकको सामने आये ६ . . डा० जायसवालने सोचा था कि मालवसनीकी तकि ईहिन्द" में वर्णित नन्द सम्वत्सारके मनुसार ही हाकीगुफा मिलासेशका "तिक्ससत" लिखा गया है। पाजिटरमी गानाके अनुसार प्रथमनन्दने ई० पू० ४.२ में सिंहासनारोहन किया था। अगर पही हो तो मानना पड़ेगा कि ई.पू. २९-(ई.पू.४०२१०३ तिब्ससत्त-२६६)में ही नन्दराजाके द्वारा कलियमें निर्मित केनान वा नहरको पुनः निर्मित किया गया था पर यह असम्भव सापान पड़ता है। क्योंकि इसके पू. ३२२ से लेकर ई०पू० १८९ भारतपर मोर्योका-प्रखड सलल चल रहा था। प्रो. राखालदास मर्जी की भी प्रान्त : बाराको कि नन्दवंशके प्रबमराबा ने सारवेल के गद्दीपर बैठनेके १० से पहले ही (१०३+५) कलिंगमें केनाल का निर्माण किया था . उनके मतमें नन्द-सम्बत्सर ई०पू० ४५८ से प्रारम्भ हुमाया . अभी लहरका निर्माण कार्य ई.पू. २४ में: (१५८-१०३) संपूर्ण हुया था। परन्तु पाल्यापक बनी १०३वर्षको नन्दराबा 35. International Oriental Congress Proceedings Leyden 1884. 36. Ep. Ind. Vol.XApp.No 1345 page 161 । 37 J. B.03; R. S. IIL1911-425ff 38. Ep. Ind.XX 77 ff 39. J. B.O.RS.XIII 238, ', - - -- - - Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याला एकसमयाव्यावसामानते हैं | kulkasha to मी बिताताप्रमपूर्ण मालूम पडती हैन म सम्बत कार में कोई प्रमाण विना पाडाजायसवालमा बनर्जी के मतों को अहणकरना समुचित नहीं बन पडता है। प्रतएक तिवसमत को के में अहम करना धार्षिक प्रामाणिक पौराणिक किम्बदतियों से भी सारवेल समसामयिक रेमा सातकर्णी का नन्दराज के वर्षों के बाद ही राजस्व करने की बात ज्ञात होती है। हमापी का २३७ बर्ष + सुमी ११२+कायों का २१ वर्ष संप्रमाण से नन्दवका पतनके ६४ वर्ष बाद ही सातवाहन र्शका प्रारम्भ होना सूचित होता है । डाकरायचीवरी इससे पूरे हमत है। फिर अगर तिवसत"को १० वर्ष मानस जाए तो नन्दसला के ६४ वर्ष के बाद ही सारवलने सिंहासनारोहण किया था! यह स्वीकार करना पडेगा. ३-५९८) ऐसी 'गणना से फिर दूसरे ढंग के विचार की दृष्टि होगी। क्योंकि नन्दवंशके किसी भी वर्ष से तिवससता को वर्ष, मांवकर 'परिगणना करने पर को समय निकलेगा उससे कलिंग मनके प्राचीन-पायहीं प्रमाणित होगा, लोकाशिलालेखोनियह प्रमाणित होगा कि उस समय नेपालिहवार सोमपाकर मयों का शासन चल रहा था और कलिगमें किसी चक्रवर्तीका प्रभ्युदय नहीं हुआ थापत तिवसंसत को ३.०,मानना चाहिए। 40 Age orimperist tity-Chapter on the Sate. vahanas by Dr.D.Sirosr. 41 P.H A. I 229 ff int 42 0. H. R.J. Vol IIIne: 2page 92 . Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीकार-सिना बनाना का कभी उल्कल से संपर्क वा यह हो जाता ही होता है। HIRD अपनेको विभूषित करकेचाहें नियविनयी के रूपमें स्वीकार किया जा सकता है महामना) राजाकाहाबलकाल-सा ही इसके पूर्व-२४ के पहले अशा ३२ क-पूरा हो चुक्य-सकायोको मालूम है कि इसी वर्ष अवगुप्त मौर्सने सिंहासन मासेहत किया अपना करने पर की हम समवेलको ईसा पहली राती के तराई में मानिसके एकमात्र ससके अपमें देखते हैं। और काव्या या बाबी सोन्दर्य प्रस्ट के जनरामा तारबारमेला के ने काले समसामान को ही बिसात-पार्सका साममा पाएका प्राममनी तिमानमें कस-सिवान की मेमा स्किो नाम पणिमाडीने कहा है कि खारवेल की शिलालिपि पर अशोक को नबनाना A3 Age of Imporial Unitych X 216 ff MAT.R.B.R.S.xfr25 SHRAT.TTEDivil paye ssc.in. Thai NN. Ehosh 114 ff Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके महनेमिविवि edy वस्तु स्विका (Previcnally m पहले से मान सकता है। शोकने जिस कि इसीलिए कि उसके पहले किसी मी उसपर 'किया था नन्दवंशीय राजत्व-खसम्म होते होते ने 'आपकी स्वतन्त्र' कर दिया था स्वाचीन कलिंग पर ई० पू० २६१ मे प्रशोक ने चढाई की थी। पर कैलिपर विजय प्राप्त करना सहन साध्य नहीं था । शेरहवें पशिलालेख पर प्रशीकने कलिक्युका भयावह तथा ममन्तिक 'है।" "तः प्रवश्य उन्होंने स्वाधीनता प्रिया कलिंग प्रवासियो को अपने देश में मिलाकर शान्ति तथा कृप्ति पायी होगी । अविजित कलिंग पर विजय प्राप्त करनेकी उक्तिमें अशोकका साम्राज्यवादी ग्रह विद्यमान है । इसका पूर्ण प्रमाण हम उसके 'द्वादश शिलालेख से प्राप्त होता है । नन्दसमा के द्वारा कलिंग forfen होने की बातसे अशोक पूर्ण भावसे चित + रहते हुए भी कलिंगको 'अजेय' बताकर उन्होंने अपनी 'हमका पराक्रम तथा मात्मगौरव का ही परिचय दिया है। पतः डा० पाणिग्राही का इसे ज्यादा महत्वादेा उचित नही हुआ है । 'तिवससत को १०३ वर्ष प्रमाणित करने के लिए प्रशोक की नन्दराजा के समयमें ग्रहण करना सही नहीं है - 14 डॉ. दिनेशचन्द्र सरकार ने कहा है कि संभवत हाथी शिलापि प्राचीनता की दृष्टिसे नामाचोट शिलालिपि और मवश्य ही वेसनगर की शिलालिपि के बाद की है। इसमें कोई संदेह, रमेकी बात नही है १४ रमाप्रसादचन्दने भी ब्राह्मी 4 52 Corpus Inscriptionum Indioarum I 54 M. A. 8. I. No 1.1 -१२ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिल माफि लिगको पं श मोहा घा निक्स मी राष् की ि मानना भ्रमात्मक नही है । डॉ० : सरका किया है कि नानाघाट शिलालिपि का शिलालेस ईसाकै पूर्व प्रथम शतीके शेषार्द्ध का है । १५ फर्गुसन र बर्गेस ने नासिक गुफाद्योंको ई०पू० प्रथम शताब्दीके शेषार्द्धका माना है । सर जॉन मार्शसने भी यह स्वीकार किया है कि " प्राध्र सात बाहन वंशके दूसरे बाजा कृष्ण के समय नासिकका एक क्षुद्र विहार चैत्यके रूपमें पुनगंठित हुआा था । पन्रत्यह मत तो कृष्ण ने ई० पू० पहली शती के प्रतिंम भानुमें राजस्व क्रिया था । अतः उनके उत्तराधिका... पाणी सामनिका के ओज डॉ० चौधरी नानघाट के ि के भतसे पूरा का मत प्रवेष्टा मात्र रह जाती है । असिएल कभी ई० पू० दूसरी नहीं बल्कि पहली शताब्दी के अन्तिम भागके ही रहे । महापद्मनन्द वंश के प्रतिष्ठाता के रूपमें 'ऐकबाट' 'सर्वक्षत्रा 55 Select Inscriptions, 56 Cave Temples of India by Messrs Fergusson and Burgess, 57 C. H. India Vol. I 636 ff. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्तक' उपाधिवारी सँग्रसेनने अस्मक, वितिहो, कुरुपांचाल आदि ' राज्यपर अधिकार स्थापन करते समय कलिंग पर विज्ञाप्तः की थी । उनकी सैन्यवाहिनी की रण दुदुभि ने समस्त मा वर्ष मार्तक की सृष्टि की थीं, नहीं तो सर्वक्षेत्रांतक उपाधि उन्हें पुराणकारों से न मिली होती । इसलिए तो स्वीकार करना पड़ता है कि हाथों गुफा के नन्दराजा स्वयं महापद्ममन्द है । महापद्मनन्द" से "तिवसंसत" को ३०० वर्ष मानकर गणना करने पर हम ई. पू. प्रथम शती में उपनीत होते है । प्रतः यही खारवेल को प्रकृत समय है । 1 -५४ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ड्र " I * 3m ५. खारवेल का शासन और साम्राज्य । AV --- → 14 जीवि खारवेलके जीवन वृतान्तका एकमात्र प्राचार उनका सुवया हुमा हाथीगुफाका शिलालेख है । उसीके प्राधार से ज्ञात होता हैं कि खारवेल एक महान तेजस्वी और प्रतापी राजा में बलवान होनेके साथ वह देखने में बहुत ही सुन्दर थे। शिलालेखमें उनके शासनकालकी घटनाओंका वर्णन मिलता है। उनसे पता चलता है कि खारवेल सोलह वर्ष की आयु में युवराज पद में अभिषिक्त हुए। उस समय वे विद्या अध्ययन समाप्त कर चुके थे। सोलह वर्ष की उम्र में उनके शरीर की गठन इतनी सुन्दर लगती यो कि उससे भविष्य में उनके वीर योद्धा होने का परिचय मिलता था । इससे पता चलता है कि वे प्रात्मसयमी प्रौर सच्चरित्र थे । चाणक्य के अर्थशास्त्रानुसार उस समय के राजाओ की प्रात्मसयमी एवं सच्चरित्र होता चाहिये था । ' खारवेल २४ वर्षको धायुमें कलिंगके सिंहासन पर सुशोभित हुआ। पौर सिर्फ तेरह वर्ष ही राजस्व किया। इस अल्प समय में कलियके उत्तर और दक्षिण में जिसने राज्य में सभोको उसने १ विद्या विनीत राजा ही प्रवान् दिनरत प्रयाग प्रथविन भूमते स्वभूतहितरत: K. A. 2 History of Orissa Dr.H. K. Mahatab and Early History of India, N. N. Ghosh. * Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया हो और इस तरह पराजित होकर सातकिर्ण मेनका माधिवत्य स्वीकार कर लिया हो। सातकर्णी राजा को हराने के पश्चात् खारवेल की सेना कलिंग न लोटकर दक्षिण कृष्णानदीके तटपर बसे हुए प्रशिक नगर पर जा पहुची' । पुराण के अनुसार जात होता है कि उस समय कृष्णा नदी तट के जो राजा थे, वे बडे ही पराक्रमी और शूरवीर थे। फिर भी उनकी शक्ति खारवेल का मुकाबला करने से हार मान गई। प्रशिक राज्यवर प्राधिपत्य जमा खारवेल सेन्य सहित एक वर्ष तक वही रहा तब सोटा ! उसके बाद खारवेल तीसरे वर्ष कही भी नहीं गया। हॉपी गुफा शिलालेख से ज्ञात होता है कि उस वर्ष उसने अपनी राजधानी में बहुत आनन्द उत्सव मनाये और कहीं नही गया। किन्तु चतुर्थ वर्ष के शुरू होती ही खारवेल ने अपनी सेना सहित विध्याचल की ओर प्रस्थान किया। जिससे सारा विष्याचल निनादित हो उठा । अरकडपुर में जो विद्याधरोको वास ये उन पर अधिकार करके खारवेल ने रथिक और भोजक लोगों। - पर आक्रमण शुरू किया । और इन सभी को परास्त करको. अपने प्राधीन कर लिया • । डॉ० जायसवाल ने 'हाथीगुफा लेखके प्राधारसे बताया है कि इसी वर्ष खारवेल में विद्याधरों . के प्रावास'(The Abode of Vidyadharas)का बीमा द्धार कराया था। अपने राजक्के पञ्चम वर्ष में खारवेलने पानी राजधानी की शोभा एव समृद्धि बढ़ाने के लिये तनसुलिय-या महरा 1- जायसवाल और प्रोफेसर राखालदास बनर्जी ने इस प्रशिक नगरको.. __भूलसे मुशिक नगर पढा मोर उसीको वे लिखते रहे हैं। . .-' रथिक राष्ट्रिय) और भोजक अशोक के शिलालेखों में उन उल्लेख है।' Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बढाकर लाये, जिसे नन्दराजा ने बनवाया था । राजत्व के छटवें वर्षमें वह अपनी प्रजा पर सदय हुये थे । इस वर्ष उन्होंने पौर मौर जानपद जनसंघोको विशेष अधिकार प्रदान किये थे । इस से स्पष्ट है कि खारबेल यद्यपि एक सम्पूर्ण स्वत्वाधिकारी सम्राट् थे, फिर भी उनकी प्रजाको राजकीय प्रबधमे समुचित अधिकार प्राप्त था । उसी वर्ष खारवेलने दुखीजनोके दुखोका विमोचन करने के लिए उल्लेखनीय प्रयास किया था। महिसा धर्मका प्रकाश उनके जीवन में होना स्वाभाविक था 1 अपने राजत्व के सप्तम् वर्ष में खारवेल प्रपनी प्रायुके इकतीस वर्ष पूर्ण कर चुके थे । उनके शिलालेख से ध्वनित होता है कि उसी वर्ष में उनका विवाह धूमधाम से सम्पन्न हुआ था । उनकी महारानी मोड़ीसा निकटवर्ती प्रदेश वज्रके राजवश की राजकुमारी थीं। पाठवें वर्ष में उन्होने मगध पर प्राक्रमण किया भौर वह ससैन्य गोरथ गिरि (वाराबर हिल्स) तक पहुच गये थे । जैन 'महापुराण' में भरत चक्रवर्ती के दिग्विजय प्रसग में भी गोरथसिरिका उल्लेख मिलता है । सम्राट् भरत भी वहा सेना लेकर पहुंचे थे । उनके प्रभावसे जिस प्रकार मागधकुमार देव स्वतः शरणमें प्राया, उसी तरह खारवेलका शौर्य भी अपना प्रभाव दिखा रहा था । गोरथगिरि विजय और राजगृह के घेरे की शौर्यबार्ता सुनते ही यवनराज देमित्रियस ( Demetris) के छक्के छूट गये । खारवेल को माया देखकर वह अपना लावलश्कर लेकर-मथुरा छोड़कर भाग गया। कितना महान् पराक्रम था खाखेलका । उनका देशप्रेम और भुजविक्रम निस्सदेह श्रद्वितीय था। राजधानीको लौटकर खारवेलने अपने राजत्वकाल के हव वर्षमें महान् उत्सव व दानपुण्य किया । उन्होने 'कल्पतरू' बनाकर सभीको किमिfच्छक दान दिया। घोड़े, हाथी, रथ आदि भी योद्धानोंको भेंट किये । ब्राह्मणो को भी दान दिया । मोर 1851 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनदीके दोनों तटों पर "विजयप्रसाद' बनवाकर अपनी दिग्विजय को चिरस्थायो बना दिया। दसवें वर्ष में उन्होंने अपने सैन्यको पुन. उत्तर भारतकी मोर भेजा था एवं ग्यारहवें वर्ष में . उन्होने मगध पर आक्रमण किया था जिससे मगधवासियों में मातङ्क छा गया था । यह माक्रमण एक तरह से अशोक के कलिग अाक्रमणके प्रतिशोध रूपमें था । मगधनरेश वृहस्पतिमित्र खारवेलके पैरोमें नतमस्तक हुए थे। उन्होने अङ्ग और मगधकी मूल्यवान भेंट लेकर राजधानी को प्रयाण किया था। इस भेटमें कलिगके राजचिन्ह और कलिग जिन (ऋषमदेव) की प्राचीन मूर्ति भी थी, जिसको नन्दराज मगध लेगया था। खारवेल ने उस अतिशय पूर्ण मूर्तिको कलिग वापस लाकर बडे उत्सव से विराजमान किया था। उस घटनाकी स्मृतिमे उन्होने विजय स्तंभ भी बनवाया था और खूब उत्सव मनाया था, जिससे उन्होने अपनी प्रजाके हृदयको मोह लिया था। इसीवर्ष खारवेलके प्रतापको मान मानकर दक्षिणके पाण्डयनरेशने उनका सत्कार किया और हाथी प्रादि को मूल्यमय भेंट उनकी सेवामे प्रेषित की थी। इसप्रकार अपने बारहवर्षके राजत्वकाल में वह अपने साम्राज्यका विस्तार कर लेते है और उत्तर एवं दक्षिण भारत के बडे बड़े नरेशो को परास्त करके अपना प्रातङ्क चतुर्दिकमें व्याप्त कर देते है । निम्सदेह वह सार्थक रूपमे कलिगके चक्रवर्ती सम्राट् सिद्ध हो जाते है । किन्तु अपने राजत्वकालके १३ व वर्ष में सम्रट खारवेल राजनिासासे विरक्त होकर धर्मसाधना की ओर भत्र है। कुमारी पर्वत पर जहा भ० महावीरने धर्मोपदेश दिया था, वह जिनमदिर बनवाते है और अर्हत् निषधिका का उद्धार रते है। एक श्रावकके प्रत्तोका पालन करके शरीर और शाके भेदको लक्ष्य करके प्रात्मोन्नति करने में लग जाते है नको Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धमाराधना का विवरण प्रागेके अध्याय में लिखा है। हाथीगुफा शिलालेख में ठोक ही खारवेल को क्षेमराज, वय-राज (राज्यवर्द्धन ), भिक्षुराज पोर धर्मराजके प्रशसनीय . विरुदोंसे अलकृत किया गया है। निस्सदेह उन्होंने प्रजाकी क्षेमकुशलका पूरा ध्यान रक्खा था। उन्होंने ऐहिक राज्यका संवर्दैन किया वहीं ही प्राध्यात्मिक राज्यकी भी संवृद्धि की ! वह एक मादर्श और महान सम्राट् थे। TECE JILAW . . .. . Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासक थे। अन्यथा कलिंग प्रषित करने के उपलक्षमें महापपने समग्र बातिके, देखके सपा स्वय अपने इष्टदेवको सुदूर पाटलीपुत्र नेजाने का प्रयास नहीं किया होता। यदि वह जैन धर्मावलम्बी न होते तो वह विनमूतिको नष्ट कर देते । परन्तु हाषीगुफा शिलालेखसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि सारखेलके मगषपर अधिकारकरने के समय सकप्रति ३.. वर्षोंक दीर्घ- . कालमें उपरोक्त मूर्ति पाटलीपुत्र में सुरक्षित रही थी। नन्दराषाके कलिंग पर अधिकार करनेके बाद भी बैनधर्म उत्कलसे पन्तहित नहीं हुमा बा पौर नहीं ही उत्कलीयोंके द्वारा प्रबहेलित हुपा था । बल्कि विभिन्न राजवशोंकी पृष्टपोषकताके कारण भ. महावीर विनेन्द्रकी शान्तिपूर्ण मोर मैत्रीमय वाणी कलिंगके कोने-कोने में प्रचारित हुई थी। यह एक तथ्य है कि प्रशोकके समयमें मोर उसके बादमें मीनिंग बैनधर्मका प्रमुख केन्द्रस्वल था। 'चेति' राजवंक्षके साहचर्य और सहानभूतिमई संरक्षणसे इस धर्मके संप्रसारणमें विशेष साहाय्य मिला था। बब उत्कल के इतिहास में महामेघवाहन कलिंगाधिपति खारवेलका माविभाव हुमा तब जैनधर्मको सिप पग्रगति प्रतिरोध खड़ा करना सभव ही न था। खरवेल स्वयं जैनधर्मके उपासक और प्रधान पृष्ठपोषक थे। हाथीगुंफा शिलालिपिसे यह प्रमाणित होता है कि नन्दराज कलिंग विषयके बाद जिस कलिंग जिनको यहा से लेगये थे, खारवेल उसी मूर्तिको पपने राजत्वकालके द्वादशवें वर्ष मग प्रौर मगध पर अधिकार करके कलिंगमे वापस लौटाकर लाये थे। इस सुअवसर पर शोभायात्रा निकालने की तैयारी की थी। खारवेलकी विराट सैन्यवाहिनी पौर कलिगके असंख्य नागरिकोने उस महोत्सबमें योगदान दिया था और कलिंग सम्राज्यके सम्राट् ही स्वयं उसके समर्थक एवं उत्सवको सुन्दर रूपसे सपन्न करने के लिये Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनवान हुमै थे । संगीत मौर वाद्रिशोके ध्वनि समरोह कलिंग जिनको पुनः कलिंगमें स्थापित किया गया। हाथीगुफा शिक्षालिपिसे यह स्पष्ट मालूम होता है कि खारवेल प्रोर उसके परिवारके सभी लोग जैनधर्मावलम्बी थे । उनको भवति मौर स्नेह कलिङ्ग जिनके साथ प्रोतप्रोत ही था। किन्तु इस प्रसंग में याद रखने की बात यह भी है कि जैन धर्म कलिंग मात्रका धर्म न था, बल्कि ई० पू० ६टी शताब्दि से ही भारतके प्रयेत्क प्रातमें हिन्दू, जैन और बौद्ध धर्मावलम्बी मिलजुल कर रह रहे थे । उत्कल में हिन्दू, लोगो की पीतिनीति का प्रभाव जैनधर्मके ऊपर पडा प्रतीत होता है किन्तु जैनधर्म की प्राध्यात्मिक श्रृंखला, कठोर नियम पालन और तीर्थंकरोंको महनीयता और चरित्र विशिष्टता प्रादि विशेष गुणोंके द्वारा उत्कलीय प्रजाजन अनुप्राणित हुए ही थे । इसमे अचरज करने का कोई कारण नही है । यह हमारा व्यक्तिगत वैशिष्ट्य और देशगत प्राचार हैं । तीर्थंकरो के विराट व्यक्तित्व और त्यागके सामने कलिङ्गवासियो का स्वतः प्रणत होना स्वाभाविक ही था । खारवेल के समय में खडगिरि और उदयगिरिमें जैन साधुयों के लिये सैकडों गुफायें निर्मित हुई थी । खारवेल स्वय जैन थे इस कारण जैन साधुप्रो के प्रति उनकी व्यक्तिगत अनुरक्ति थी । हाथीगुफा शिलालेखके प्रारभमे ही चक्रवर्ती सम्राट् खारवेलने जैनधर्मके नमस्कार मूलमत्रको लक्ष्य करके अपनी भक्ति प्रद शितकी है। शिलालिपि की प्रथम पंवति में लिखा है कि:'नमो घरहतान' 'नमो सवसिधानं' ' ● 1. "Let the head bend low in obeisance to arhats, the Exalted Ones. Let the head bend low (also) in obeisance to all Siddhas, the perfect Saints." -६३ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , न मासुमार. पाच नमस्कार मत्र उच्चारणाकरने की -सीका समर्थन पडित भगवानलाल : इन्द्रजी और राजेन्द्रलाल *मित्रजी भी करते हैं जन सम्राट सारवेलने शास्त्रानुमोदित साधके अनुसार प्रशस्तिके प्रारममे महत् और सिद्ध पर मेष्ठियो के प्रति अपनी नम्र विनय प्रदर्शित की है ।। . खारवेलकी इस शिलालिपिमें उनके चिन्ह भी है । उसके दोनों पाश्वों में चार सकेत चिन्ह है । वाम पार्श्वमे दो और दाहिनी तरफ दो सकेत चिन्ह है। प्रथम सकेत चिन्ह शिलालिपि की २५वी पक्तिके बाई ओर है। चौथा सकेत चिन्ह सातवी पक्ति के 'दाहिने पार्श्वमे है। शिलालिपिका प्रारभ और समाप्ति निर्देश के लिये ये दोनो समेत दिये गये हैं। द्वितीय संकेत चिन्ह प्रथम । सकेत चिन्हके निम्न भागमे और तृतीय सकेत चिन्ह प्रथम “और द्वितीय पक्तिके दक्षिण पार्चमे है । डा० जायसवाल का कहना था कि, तृतीय सकेत चिन्ह ठीक खारवेलके नामके बाद है, परन्तु यह ठीक नहीं। किन्तु प्रश्न यह है कि आखिर ये सकेत चिन्ह हैं क्या ? जनकला पति के मतानुसार इनमे प्रथम सकेत चिन्हको जन । लोग "बर्द्धमगल" कहते है। द्वितीय सकेत चिन्ह 'स्वस्तिक । है । तृतीय सकेत चिन्हका नाम 'नदिपद" है। कान्हेरि निकटस्थ • 'पदण पर्वतकी एक शिलालिपिमे उस समेतको दिपद" कहा गया है। हाथीगुफाका ४था चिन्ह 'एखचेतिय' या वृक्षचत्य' . २. नमो अरिहन्ताणम्, नमो सिद्धाणम; नमो पायरियाणम्, नमो उवझायारणम्; नमो लोए सव्व-साहुणम् । 3 Dr A. K Coomarswamy ने जिसे 'Powder. box' 4J. B. B. R.A.S.xv Page 320 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षमें चारवेलने जैन सन्यासियों के लिये कुमारीमिति पर ११७ . गुफायें तैयार कराई थी, और साथ साथ दूसरे प्रसिबलाई के साधु और सन्यासियोंके लिये बी (सकल-समम-सुविहिला) एक दूसरी गुफा निर्माण किया था। फिर भी अन्यान्य मुनि ऋषि और प्रमणों के लिए सभी प्रबन्ध किया था। यह बात शिलालिपिमें अस्ति है। (शत विसाकम् यदिकम् तापस इसिकम् लेयेन कारयति)। यहां यति, ऋषि और साधुनों का उल्लेख करने से हिन्दुनों के वर्णाश्रम धर्मगत वानप्रस्थ अवस्था की सूचना अनुमानित होती है। मशोककी शिवालिपि मादि में ब्राह्मण धर्मके योगी ऋषिमो से पृथक प्रगट करने के लिए जैन, माजीवक और बौदोंका श्रमण नामसे अभिहित किया गया है । लेकिन खारवेलने ब्राह्मण सन्यासियो को यती, ऋषि , और तापस नामसे अभिहित किया है। बौद्ध और भाजीवक लोगों को हाथीगुफा शिलालेखकी वर्णनामें स्थान नही दिया गया है । पर इसका कारण निर्णय करना असंभव है। शिलालेख की सोलहवी पक्तिमें खारवेलकी धर्मनीति विश्लेषित हुई है। इस धर्मनीतिको विशद मालोचनाके लिए शिलालेखका प्रोक्त भाग पर विशेष ध्यान देना प्रावश्यक है। ___ "मेरा बास वषराज बास हररावास अमरावास बसते सुनते अनुभक्तो कलालाण गुणविसेस कुसलो सबपापाड पूमोको सब-वायतम-संकार-कारको प्रपतिहत बकवाहमबलो पपरो गुत चको पति को राजिषिवसुकुल विनिसितो महाधिवबो राणा सारवेल सिरि।" (हाथीगुंफा शिलालेख- १६ वी पंक्ति) समालोचनाके लिए जिसका सस्कृत अनुवाद नीचे दियागया है. *- जैन श्रमणों में भी यति, ऋषि पौर सापो का वर्गीकरण मिलता है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजः स बर्द्धराजः 'स: 'इन्द्रराजः सः धर्मराज 'पश्यन न सुप विशेष कुशल' सर्व पक देवायतन संस्कार कारक प्रतिहत शाह वलः चक्रवरा प्राय वसुकुल विनर्गतो महाविजयो स्वेल श्रीः ।" इस उद्धृत प्रकरण मे खारवेलको चौरित्रक महनीयताका परिचय भी दिया गया है । वह क्षमाशील, धर्म परिवर्द्धन के आधार और इन्द्र के समान न्यायविशारद थे । धार्मिक निष्ठांके ' केन्द्र खारवैल आध्यात्मिकता विकासके लिये सदाहित श्रीर कल्याण साधनमे लिप्त थे । उन्हें "सर्व पाषड पूजक " के नामसे प्रभिहित किया गया है। यहां इस उल्लेखमे प्रशोक के धर्मानुशीलन वृतिst छायासो मालूम होती है । अशोक की तरह खारवेल भो सबही धर्मीको समान दृष्टिसे देखते थे। केवल इतना ही नहीं वल्कि जैन होते हुए भी वह अन्य धर्मोके प्रति सम्मान प्रदर्शन करते थे । शिलालिपिका "सबय देवायतन संस्कार कारक" लेख इस मतको पुष्ट करता है। इसके साथ ही अपने राजत्वकाल में निस्संदेह खारवेल कलिगको श्री वृद्धि के लिए भी खुले हाथसे धन व्यय करते थे । यह विषय शिलालिपिसे पाया जाता है। सिर्फ जैनो के लिए श्रात्मनियोग नही करते थे, वेल्कि साम्राज्य की सभी प्रजाओ के सुख सावन के ''लिए काम करते थे। सामाजिक आचार-विचार में कोई कड़ी 'नीति नही थी । " ★ दुर्भाग्यसे समय की प्रतिकूलताके कारण उस समय के मंदिर अब नही है, नहीं तो खारवेलकी महानताके वारेमे वे गवाही देते और उनके धर्मभावको साक्षात् कर दिखाते ! सचमुच खारवेल जंनधर्म के उज्वल मालोक स्तम्भ थे । उनकी पृष्ठपोषकतासे जैनधर्म अपनी स्थिति में अटल था । -६८ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए, शिवालिपि में चनने "कामलो" (घर) नामले भनिहित किया गया है। बौद्ध पोरोन शास्त्रमे चक्रको अर्थ में व्यावहार किया गया है परन्तु प्रहापासखारवेल. को अक्रधर नामसे.मम्महित करने का यह मतलब है किजनता धर्ममें उनकी जगह-बहुत ऊची थी- सिर्फ:बतमा ही नही उता. को. गुप्तचक्रकी पदवी भी दी गई है। . . . . __ खारवेलको जैन-प्रमाणित करने के लिए झवीमुफा शिलालिपि * में और भी बहुत प्रमाण है। शिलालिसिसे यह भी मालूम होता।' है कि राजत्वक प्रायवे सालमे वह यवनराजको युद्ध में मुहतोड़ । जवाव देवेके लिए मथुरा तक गये थे। मथुरा में उन्होने ब्राह्मणाः । जैन श्रमण, राजभृत्य और वहां के अधिवासिमो को भोजमेंपाण्यापित किया था। मथुरासे , लौटने के बाद, कलिममें भी -इसी तरह एक भोजका आयोजन हुमाया 1 इस वर्णनाम बौद्ध और पाजीवको का नाम नही पाया, जाता है । इससे यह मालूम होखा है कि उस समय कलिग के समान ही मथुरा में भी जैन और हिन्दू धर्म के प्राधान्यसे; बौद्ध धर्मका अस्तित्व नहीं था। कदाचित होता भी तो उनकी प्रतिष्ठा वहा पर नहीं थी, बल्कि उसके पनपने के लिए ब्रहा अनुकूल परिस्थिति ही नही थी। उत्तर भारतमामधुम्ही बना धर्मका केन्द्रम्थल था। इसलिये खारवेलको बहा पर यवनराज: की उपस्थिति और प्राधिपत्य प्रसा.. हुआ। अत : स्वधर्मकी निषक्ता के लिए उनको मथुख तक जाना- पाखारचेलको माक्रमण से बह्मक प्रषिवासी मालकिन नहीं थे। अधिक जानर धर्मावलम्बीयो क मानव बर्द्धन के लिये खारवेसमानत्वपूर्ण काम सराहनीय था। __ मथुगसे वापस पाने के समय लारवेल खातीज्ञा लोकार नहीं पडा था । गुल्म और लताकीणं कल्प-वृक्ष भी उनके द्वारा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिंगको लाये गये थे। जैन शास्त्रमें है कि केवल चक्रवर्ती सम्राट ही कल्पवृक्ष लगानेके योग्य है । जिससे साफ मालूम पड़ता है कि जैन सम्राट खारवेल कल्पवृक्ष लानेके सर्वथा ही योग्य थे । राजत्वका काफी समय खारवेलने युद्धयात्रा और राज्यजयमें ही बीताया। जैन धर्मके उपासक होते हुऐ भी खारवेलने कैसे हिंसात्मक मार्ग अपनाया ? यह सोनेके बात है। जैन धर्मका मूलमन्त्र अहिंसा और जीवदया उनके राजनतिक और साम्राज्यवादी जीवनमें किसी प्रकार प्रभाव डालने में समर्थ नहीं हुआ ? इसका क्या कारण है ? यही खारवेन के व्यक्तिगत जीवन में एक प्रधान विशेषता है । भारतके जेन सम्राटोने हिंसाको जैन धर्मका मूलमन्त्र स्वीकार करते हुए भी और उससे अपनेको अनुप्राणित करते हुए भी उन्होने अपने राजसबधी लोकधर्म की पालना भी ठीक-ठीक ही की ! जैन राजस्व का यही प्रादर्श है ! जैन सम्राट महापद्म उग्रसेन श्रौर मौर्य साम्राज्यके प्रतिष्टाता चन्द्रगुप्त मौर्य प्रादि राजानोंने जीवन भर सग्राम की भावेष्टनी में कालयापन किया है, जिससे मालूम पडता है कि उनकी महिसा राजनीति में बाधक नही थी । म्रपरन्तु जैन सम्राट गण अपनेको विजयी वीर प्रमाणित करनेको प्राकाक्षी 1 थे । खारवेलका मार्ग भी वही था । यद्यपि आप सच्चे जैन रूप में ही पैदा हुये थे । प्रापका जन्म जिस वशमें हुआ था; वह 'चेति' वंश भी जैन धर्मका परिपोषक था । अशोक की तरह खारवेलने जीवन के मध्यान्हमें एक धर्म छोड़ कर दूसरे धर्मको नहीं अपनाया । ई० पू० २६१ क कलिंग युद्धमें अशोक के व्यक्तिगत जीवन में एक महान् परिवर्तन होने के साथ साथ उनका राजनैतिक जीवन धमावभापन्न हो गया था । अशोक *- कल्पवृक्ष से भाव किच्छिक दान देने का होना चाहिये । 1991 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह एक जैन ग्रहस्थ के श्रावक धर्म के अनुरूप दूसरे देशोसे बना लाकर अपने साम्राज्यकी उन्नति करते थे। शायद इसलिये दाक्षिणत्यको धन रत्नका भडार समझकर, उत्तर भारतको छोडकर उन्होंने दक्षिण भारतका प्राक्रमण किया था। हाथी गुंफा शिलालिपमे यह भी मालूम होता है कि खारवेलकी उत्तर भारत विजय की खबर सुनकर पाड्य राजाको अमूल्य रल उपहार देना पडे थे। शिलालिपमें और भी यह है कि उन्होने विदयाधरोको जोतकर उनसे भी धन उपहार लिखे थे ! इन सब दृष्टियोसे विचार करनेसे हम मालूम होता है कि । अशोक और खारवेल में क्या विभिन्नता थी? कलिंग विजयके बाद अशोकको हमेशाके लिये राज्य जय-लिप्सा छोडना पड़ी। सिर्फ उतना ही नहो उनक समसामयिक राजा और बुजुर्मोको भी दिग्विजय न करनेको उन्होने अनुरोध किया था । परन्तु अशोक को तरह खारवेलने सामाजिक उत्सवोका उच्छेद नही किया, अपितु प्रजाके माथ मिलकर वहत्त्योहार प्रादि मनाते थ। प्रजात्राको धमानुचिन्ता और पूजा पद्धति में उन्होने किसो, प्रकार के प्रतिबंधको सृष्टि नही को थो। सामाजिक उत्सवों के लिये वह अकठिन मनसे करोड़ो रुपय खर्च करते थे। जिन उत्सव क लिय हरसाल कईवार शोभायात्रा की तैयारी होती थी और खारवेल को भी उसमें भाग लेना पडता था। इन शोभायात्रायोमे सम्राटकी सवारी पोर राजछत्र प्रादिका प्रदर्शन भी पाडम्बरके साथ होता था। धर्म निरपेक्ष खारवेल किसी भी गुण मे अशाकसे कम नही थे । परन्तु सहिष्णना खारवेलमें ज्यादा थी। किमी साप्रदायिक मामलेमें वह कभी भी अपने । को, सतप्त नहीं करते थ । परन्तु हरेक धर्मकी अभिवृद्धि उम कोकामना थी। जैवमको सुप्रतिष्ठित करने को उद्देश्यमे उनकी कर्मतस्प ----७२ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रता, प्रयल और दान इतिहास में और हमेशा के लिये स्वी गरों में पति रहेना। उनके पासनमें जैनधर्म कलिगमें उन्नति के शिखर पर पहुंचा था। मगधसे कलिंग जिनका उबार करके उन्होंने जातीय देवताको पुनः संस्थापना की पी। इसके बाद ही सारवेल के जीवन में परिवर्तन कापण्याय भारंभ हुमा था। धीरे धीरे जैन धर्मका मादशं उनमें अमिभूस हमा था। राजत्वके चौदहवें सालमें महामेषवाहन सम्राट खारवेलको हमेशाके लिये कलिंग इतिहाससे विदा लेकरमनन्त विस्मृति के गर्भ में लीन होना पड़ा। इसके बाद उनके विषयों जानने के लिए कोई साधन नहीं है। इस प्रकार मात्र सेंतीस सालकी छोटी उम्र कलिमकी राजनीतिमें उथल पुथल मचाकर बारचेल विदा होते है। पागे चलकर हाथीनुफा अभिलेखमें खाखेलके वारेमें पीर कुछ घटनाएँ नही पायीं जाती। इसलिए यह अनुमान किया जाता है कि खारवेलने मुक्ति की खोचमें खंडगिरि या उदयनिरिकी किसी अज्ञात जगह में शरण ली थी।वही सच्चे जैन जीवा की कामना है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " " ' ७. कलिंग में खारवेल के परवर्ती युगमें जैन धर्म की अवस्था सम्राट् खारवेलके बाद और महाराज महामेघवाहन कुदेपश्री या कदपंधी ने कलिंग सिहासन पारोहण किया था। डिसके बाद चेतिवशकी हालत क्या हुई, यह जानना मुश्किल है। मंचपुरी गुफामे जिनकुमार वडखके नामका उल्लेख किया गया है उनका कदर्पधी के उत्तराधिकारी होकर राज्य शासन करना अनुमानित किया जासकता है । परन्तु यह निश्चित है कि उस समय तक चेतिवशकी पूर्व वैभव और शक्ति नहीं बरावर रह गई थी। डॉ. कृष्णस्वामी पायागार ने दो तामिल अथो, यथा शिलपथीकारम्' एवं 'मणि मेखलायी'मे वणित कई विवरणो से सत्कालीन कलिंगका परिचय कराया है। उन दोनो ग्रन्थो में कलिंग राजवशके दो भाइयो के विवादका वर्णन दिया गया है। इससे मालूम होता है कि कलिग राज्य उस समय दो खण्डोमें विभक्त हुआ था। एक की राजधानी थी कपिलपुर भोर दूसरे की सिंहपुर । इन दोनो राज्योमे जो दो भाई राजत्व करते थे वे अनुमानित चेतिवश सभूत और खास्वेलके वशधर ही होगे। इन दोनो भाइयोके मापसी तुमुल युद्ध होने के कारण कलिंग छारखार हो गया था । और बादको एक वैदेशिक प्राक्रमण के वश में फस गया था। 1 Ancient India and South Indian History and Culture, Vol I pages 401-402, - - - Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये वैदेशिक आक्रमणकार कालमें कलिगम जनचमकी हालत कैसी पी नीचे किया गया है । $ 1.2 The "मायला पाजि" का कथन है कि कलियुग पूष्ठिर से लेकर १७ राजामति परम्परिक कु हूँ 113 T. எ5 राजस्व किया था • इस राज परम्पराके वा शोभन देव है । उस समय दिल्लीके भोजक पातिशा (बादशाह) के सेनापति रक्तवाहते 'चिलका देकर उड़ीसा पर माक्रमण किया था । बादको प्रष्टादशराजा के समय में उड़ीसा पूरी तरह मुगलोंके हस्तगत हुआ था, मुगलोंने उड़ीसा ४७४ ई० व २४६ वर्ष रात्व किया था और इसके बाद यवातिकेशरी ने उनको परास्त करके भगा दिया था । यही है 'मादला पोि वर्णित उपाख्याने ! X 1 *** f इसमें कुछ काल्पनिक विषय होने पर भी मूलतः यह एक ऐतिहासिक सत्यके ऊपर प्रतिष्ठित हुवा मालूम पड़ता है क्यों कि प्राचीन उड़ीसा में एक विदेशी राजवंश की बहुतसी मुद्राय सब मिली हैं। इन सभी मुद्राद्योंकी तैयारी कुशाण मुद्राकी तरह होने से पुरातत्वविदों ने उनको "कुशाण मुद्रा" कहा है। पहले पुरीके भासपास ये मुद्रायें खूब मिलती थीं । १६ वीं शताब्दी के मुद्राविद् - जैसे हर्णले और रेपसन दोनों इन मुद्राओंोंको "पुरी 忘 कुशाण मुद्रा" कहते हैं। उनके मतानुसार इन मुद्राओं का प्रथ लन यहां के किसी राजवंश द्वारा नहीं हुमा था। पुरी जग नाथ महाप्रभूके दर्शनके लिये माते हुये प्रसंख्य यात्रीयोंके वे सब मुद्रायें यहाँ लाई गयीं थी । पुरीके पासपास समय ये मुद्रायें मिलती थी उस समय इन पंडितों की युक्ति 2 Prooeedings of Asiatic Society, Bengal, 1895 DH Page 63. I ८ 1 416 4 | 2 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक परिव्याप्त नहीं हुआ था तब उसको उड़ीसा पाने की बात पूरी मिथ्या प्रतीत होती है। इससे मायला पांडिच मुगल प्राक्रमण कुशाण माक्रमण नहीं हो सकता । यह कुशाणके प्रतिति दूसरा कोई वैदेशिक आक्रमण होना निश्चित है · सब डॉ. नवीनकुमार साहू प्रमाणित करते हैं कि 'भावला पांथि वर्णित उड़ीसा में मुगल प्राक्रमण वस्तुतः मुखंड प्राक्रमण ate forत्य होना चाहिये । इन मुरुडोंके बारेमें पुराण, वैन शास्त्र, ग्रीक मौर चेनिक लेखकों के विवरणोंमें उल्लेब मिलते हैं । पुराण-मतसे तुखार (कुशाण) के बाद १३ मुरुड राजाओं ने दो सौ वर्षों तक राजस्व किया था। मुरुड वर्णता से जैनशास्त्र भी भरपूर है; क्योकि मुरुंड राजालोय जंन मौन tree पृष्ठ पोषक थे । • 'सिंहासन द्वात्रिंशिका' नामक एक जैन ग्रन्थ से मिलता है कि मुरुंड गजानोंकी राजधानी कान्यकुब्ज थी, परन्तु कान्य कुब्ज में मुरुड बहुत काल तक राजत्व करते हुये मालूम नहीं होते । सिंहासन द्वात्रिंशिका' पुस्तक में जिस सुकुंडराज का उल्लेख है उसका कुशाणों के अधीन एक सामंत राजा होना निश्चित है । 'बृहत कल्पतर' नामक एक दूसरे जैन ग्रन्थ से मालूम होता है कि मुरुडों की राजधानी पाटलीपुत्र थी। और मुरुड राजा की विधवापत्नी ने जिन-पथ का धवलवन ९ 6. A History of Orissa Vol, Edited by Dr. N.K. Sahu. Pages, 331-335 7. Dynastic History, Kalinga Age, by Pargites, Page. 46 } 8. Dr. Probodh Chandra Bagohi's Speech in Indian History Congress, अभियान राजेन्द्र कोष, भा० २ ० ७७६ 1 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करके इस धर्म को धर्मवृद्धि-साधने के लिये अपना जीवन यावर कर दिया था। जैन पुराणोंसे और भी मालूम होता है कि पादलिप्स नामक जैन साधु ने पाटलिपुत्र, मुरुड राजाके मस्तिष्क रोग को अच्छा किया था। मे साधु पादलिप्त उज्जयिनीके राजा विक्रमादित्य के जैनगुरु सिद्धसेन के मान समसामयिकही थे । ग्रीक भौगोलिक टोमी ने 11 पूर्व भारत में मुरुड राज्य की भौगोलिक सीमारेखा निर्णित रूप में बताई है। उनके लेखसे मालूम होता है कि ई० द्वितीय शताब्दी में मुरुड राज्यका विस्तार तिरहूत से गंगा नदी के मुहाने तक हुआ था । चीन देशके बु (Woo) राजवंश के विवरण से १२ भी जान पड़ता है कि ई० तीसरी शताब्दी में मुरुड पूर्व भारत में राजत्व करते थे, जैसे कि फरांसीसी पंडित सिलवालेवि प्रतिपादन कर गये हैं । इस प्रकार उडीसा मे रक्तबाहु का प्राक्रमण वास्तव में पूर्व भारतीय मुरुंडो का प्राक्रमण था और यहां से प्राप्त असंख्य मुद्रायें जिनको कुशाण मुद्रायें अनुमानित किया गया है बयार्थमे इन मरुडों द्वारा प्रचलित मुद्रायें थी । १६४७ सालमं शिशुपालगढ़ मैं जो पुरातात्विक भूखोदन हुआ था, उसमे उडीसामें जैन मुरुड राजत्वका सुस्पष्ट प्रमाण मिल चुका है। इस भूखोदन से Fit हुई एक स्वर्ण मुद्राके वारेमें मालोचना करते हुये डॉ. श्रत मदाशिव झाल्टेकार कहते हैं कि यह मुद्रा "महानाबा घिराजा धर्मदामघर" नामधेय किसी एक मुरुड राजा द्वारा प्रचलित की गई थी डॉ माल्टेकार आगे और भी कहते है कि यह मुरुड राजा मोडीसामें ई० तीसरी शताब्दी में शासन १०. इडियन कल्चर, भाग ३ ०४६ 3 ** ११ इडियन एन्टीक्वेरी, भा० १३ ५०३३७ १२ सिल्बा लेखी, Molanser Charles de Harlez pp. 176 186 ' - Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करतेनेमोर जैन थे।" १ . विपासपढ़ से एक मामय, फलक मिला है जो मंगलवा एक सीन मोहर है। उसमें लिखा है- "पसयस प्रसनकम बर्षात , "अमात्यस्य प्रसनकस्य" :-यह फलक, प्रमाल प्रसालक की सील मोहर होना सभव है। इस फलको लियो हुए भक्षर भोक उपरोक्त स्वर्ण मुद्रा में व्यबहूत हुए मार एक समय के ही मालूम होते हैं। अगर यह सच है तो प्रसन्नक को, महाराज धर्मदामघरका अमात्य माना जासकता है।" , डॉ. नवीनकुमार साहुने प्रमाणित किया है कि उड्डोसा में मुरुड राजस्व ई दूसरी शताब्दीके शेषमागसे ई० चौथी शताब्दी के मध्यभाग तक प्रचलित था । लेकिन 'मादलापानि' में उल्लेख है कि मुगल राजत्व ई० ३२७ से ४५४ ई. तक चला था। मामला पानि के इस मुगल राजत्व को डॉ० नमीनकुमार साहुने मुरुड राजल माना है और इस राजत्वके काल निर्णय में मायला पांजिकारने जो भूल किया है उसे ऐतिहासिक प्रमाण मितिसे सशोधन किया है। इस प्रसंगमे बौद्धग्रन्थ 'दादाधातु वश में लिखित बुद्धदत का उपासमान भी अलोचनीय है। इसमें लिखा है कि चौथी प्रताड़ाके प्रारम्भमें कलिगके राजा गृह शिव रेसंभवतः यही गृहशिव राजा मुरुड हो सकते है। वे पहले जैन थे, और बाद को अपनी राजधानी दतपुरमें बुददंतकी महिमा से मूरख होकर के बुद्ध हो गये थे। इससे पाटलीपुत्र के बेन या विषय हरये इस पाहुको पीडाबीन कुमार मारने पा लिलाई पनि पतिको पाक सूबा के सामनगर जिायेंद्र बिकाशिमाला बनवरिपोर्ट, 14 8. C. De, O. H. R.Neyol. I No.2 ११. • बाहू, ए हिस्ट्री पाक उड़ीसा मा० २५० ३३४ . Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपमें वाठापातु वंशमें भी बणित किया गया है। __गुहशिवके धर्मातर ग्रहणसे विचलित होकर.पांडु राजाने उन्हें अपनी राजधानी पाटलीपुत्र को बुद्धदंतको साथ लिये चले पाने के लिए मादेश दिया। पाटलीपुत्र में दंतधातुको नष्ट कर देने के लिए बहुत कोशिश करने पर भी वे सफल काम न हो सके। और बादको दत की अद्भत शक्ति देखकर खुद भी बोट हो गये। बादको इस दंतपर अधिकार करने के लिये कलिंग के पड़ोसियों ने कलिंग पर धावा किया था। इन पाक्रमणकारियों में क्षीरधार प्रधान थे । इस क्षीरवार को श्री युक्त सुशील. चन्द्रने वाकटाक राजा और प्रवरसेन भन्दाज किया है । युद्ध में गुहशिवने प्राणत्याग किया परन्तु मृत्युके पूर्व ही उन्होने अपनी कन्या हेममाला और दामाद दतकुमार के हाथों बुद्ध दंतको सिंहल भेज दिया था। जब हेममाला मोर दतकुमार सिंहल पहुंचे तो उस समय वहां के राजा महादिसेन थे। इनके राजत्व कालका समय ई० २७० से ३०४ तक होता है । सुतरां कलिंगमें गुहशिव का तीसरी शताब्दीमें राजत्व करना सुनिश्चित है। मध्य युग यह तो प्राचीन युग का विवरण है। अब देखना है कि मध्य युगीय उडीसामें जैन धर्मकी हालत कैसी थी? कलिंगमें मुरंड शासनके अवसान के बाद गुप्तवश का प्राधिपत्य होना ऐतिहासिक प्रगट करते है । गुप्त राजवंशका राजनैतिक प्रभाव समुद्रगुप्त की दिविजय के बाद से पडना सुनिश्चित है । इस राजनैतिक प्रभावके साथ सांस्कृतिक प्रभाव भी अप्रतिहत भाव 16.0. H. R. . Vol. III, No. 2. P. 104 १७- वाकटक एण्ड गुप्त एज, सं० प्राल्टेकर और डगमायुमदार इत-प्र. सीलोन'१० १५१-२६१ - Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कल में राजत्व करने वाले सोम, वशी राजापों में उद्योत केशरी सब से प्रसिद्ध नरपति थे। कोई कोई उन्हें ललाटदु केशरी भी कहते हैं। उद्योत केशरी शंव धर्म के पृष्ठपोषक के नामसे इतिहास में विख्यात हैं। उनके पिता ययाति महाशिव गुप्तने भूवनेश्वर में सुप्रसिद्ध लिंगराज मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ किया था। इस मंदिर की परिसमाप्ति राजा उद्योत केशरीने कराई थी। उद्योत केशरी की माता कोलावती देवी ने भुवनेश्वर में चारुकला खचित ब्रह्मे. श्वर मदिर तैयार कराया था। उद्योग शिवभक्त होने पर भी जैनधर्मकी ओर प्रगाढ श्रद्धा और अनुराग रखते थे । खडगिरि को ललाटदु केशरी गुफा उनकीहो कीत्ति है। इस में कोई संदेह नहीं । जैन अरहंत और साधुप्रोके लिये सम्राट खारवेलने जिस तरह प्रतीत मे बहुत से गुंफायें खुदाई थी, उसी तरह उन जैन सम्राट का पदानुसरण कर उद्योत केशरी ने भी जैनो के लिये विश्राम स्थल, और माराधना मदिर के लिये खंडगिरि में गुफायें निर्माण कराई थी। केवल 'ललाटदु केशरी गुफा' ही नही बल्कि नवमुनि और बारभूजी गुफायें भी इस काल की कीत्तिया हैं । ऐतिहासिको का कथन है कि नवमुनि गुफा में उद्योत केशरी के राजत्वकाल का एक शिलालेख अब भी है। उद्योतकेशरी के राजत्व कालके अष्टादशवें वर्ष में यह शिलालेख उत्कीर्ण हुमा था। याद रखना होगा कि ठीक इस वर्ष उद्योत की माता कोलावती देवी ने भुवनेश्वर में ब्रह्मश्वर के मदिर निर्माण कार्य पूर्ण किया था। इससे मालूम होता है कि उस समय शैव और जैनधर्म समातराल भाव से उड़ीसामें प्रचलित पै । और गजा उद्योत केशरी दोनो धर्मोको एक नजरसे देखते थे। ' नवनि गुफा की "शिलालिपि से जान पड़ता है कि १८ एपीग्रेफिया इंडिका, १३ १६५-१६ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचोतकेशरी के अष्टादश वर्ष राजत्वकालमें सुविस्यात जैनसाधु कुलचद्र के शिष्य आचार्य शुभचंद्र तीर्थयात्रा के लिये खडगिरि पाये थे, और वहा वे कत्तियां स्थापन किये थे।माचार्य शमचंद्र के प्रति राजा उद्योतकेशरी का. भव्योपयुक्त. सम्मान प्रदर्शन करना शिलालिपि से जान पडता है। ऊपर लिखी दुई लोचना से मालूम होता है कि मध्ययुगीय डीसा एक समय जैनधर्म ,राजानों को पृष्ठ-पोषकता लान कर सर्वि बत हो सका था! उड़ीसा के साथ धर्म में भी बमवर्म का प्रभाव अन्तिमात्रामें पड़ा था। जैनधर्षका सकि सावन खास कर न होता तो इतना प्रभाव पड़ना सभव नहीं हो सकताथा| पत्ति- युग के अरक्षित, दास पथ और महिमा पंपादि धर्म सस्थानोमें भी जैन धर्मके बहुतसे.प्राचार तत्व और दर्शनकी अभिव्यक्ति मोर.समावेश देखनेको मिलता है। और यह दिखा देता है कि जैनार्म की समृद्धि प्राचीन कालसे बुरू होकर मध्ययुग तक अव्याहत चलती रही की। उड़ीसा सांस्कृतिक जीवन में जैनधर्स किस तरह अपना प्रभाव फैला सका था इस की विशद मालोचना मागे की जायगी . समाज कल माधुनिक युगमें भी उड़ीसा केवी जीवनापर नबर्मका जो प्रमाब, फैल रहा है। यह अनुसंधान की प्रस्तुण्डेय पाव भी खंडपिरि केवल बैनो को नहीं हिंदुजों की भी एक परम पवित्र तीर्थ भूमि है । माघ शुक्ल सप्तमीले हिलाहर साल यहाँ बो मेला लगता है उसमें हजार मात्रीमा कट्टाहोकर सिर्फमरक्षित दासको स्मृतिमा को यह नहीं, बस्किान सीकाडरे की प्रतिमूर्ति पौष उनके शासन देवताओं के उद्देश्य में भी सेवा पूजा करते हैं। . Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. उत्कल की संस्कृति में जैन धर्म उत्कल में अत्यन्त प्राचीनकाल से एक प्रधान धर्मो रूपमें बैनधर्वका प्रचलन है। इस प्राचीन धर्मका प्रभाव उत्कल के सास्कृतिक जीवन में अनेक रूपमें परिलक्षित होता है। इतिहास सेप्रमाणित होता है कि उत्कलके विभिन्न प्रचलोंमें "भंजवंश" का राजत्व था। "भजवश"वाले कोई कोई शैव भी थे और कोई-कोई वैष्णव, फिर भी ऐसा मालूम पड़ता है कि इन लोगों में जैन संस्कृतिका प्रभाव भी अक्षुण्ण था। इस वंशका एक हाम्र शासन केन्दूझर जिला के उखुडा नामक ग्रामसे मिला था, उससे विदित होता है कि "भजवश" के भादि पुरुषोकी उत्पत्ति कोट्याश्रम नामक स्थलमें मयूरके अडेसे हुई थी। सभव है, यह कोट्याश्रम जैन हरिवंश में वर्णित असख्य मुनिजनाध्युषित कोटिशिला ही हो। मयूरके अडेको विदीर्ण करके (मयूरोड मित्वा) वीरभद्र "पादिभंज" के रूप में अवतरित होना उसमें वर्णित है। यह मयूरी साधारण नहीं, वर जनोंके पुराणों में पणित श्रुतदेवी की बाहिनी थी। साधारण मयूरी के डिब से मानवकी उत्पति भला कैसे सभव होती हरिचन्द ने स्वरचित 'सगीत मुक्तावली में अपने वंश परिचयके प्रसगमें लिखा है कि उनका वश बुति-मयूरिका से उत्पन्न है। हरिचन्द कनका के राजवंशीय थे और उनकी रचनायें १६ वीं शती की रची हुई पी। उपर्युक्त श्रुति, श्रुतिदेवि अथवा सरस्वती ही है । जनमत में सरस्वती का वाहन मयूरी है। इससे प्रतीत होता है कि Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मादि ग्रन्थों में ऐसा वणित है कि श्री कष्ण ने कालिंदी हद में. हारवश पुराण सार A उत्कल भाषा के प्रत्यंत प्राचीन ग्रंथ कवि श्री सारलादास के 'महाभारत में भी राधाच शब्दका उल्लेख है। बोपदी के स्वयंधर के समय लक्ष्य मैंद करते हुए अर्जुन की धुणिमान चक्र के भीतर राधा प्रर्थात लक्ष्य को भेद करने की बात जैन हरिवंश में कही गयी है। पर, संस्कृत 'महाभारत में इस संघाचक्र का कोई भी उल्लेख नहीं मिलता। निःसदेह यह बैन हरिवंश से ही गहित है। *" प्राची माहात्म्य के प्रणेतामों ने अपने विषय वस्तु को 'पद्म पुगण से गहित बताया है, पर मून 'पद्म पुराण में वैसा वर्णन है नहीं। संभव है यह सब जैन 'पद्म-पुराण गृहित वस्तु है । " उत्कल के सुप्रसिद्ध वैष्णव कवि जगन्नाथ दास के भागवत' मे मूल भागवत का अनुशरण रहते हुये भी उसमें चैन तत्वदीक्षा का प्रतिपादन किया गया है। उसके पंचम स्कंध के पांचवें अध्यायमें ऋषभदेवने अपने सौ पुत्रोको जो उपदेश प्रदान किया है वह उपदेश जैनधर्मके तत्वोसे पूर्णतः प्रभावित है। उदाहरणतः हे पुत्रो, सावधानता पूर्वक मेरे वचन को सुनो, ' कर शुणिकरि भयपरिहरि माग होइले बनमाली, काली अषरे केहि पकालिदिरे, . . . . . कृष्ण मानन्दरे प्रवेश होहले नटलेल्हे नाठ मंदिर।।१६ मछद .. "राधाचक" बुलुपछि सात बाल उच्ने । ताले उच्चरे पटाए पछि जे सुसंचे। लक्षे बस धन पारि से पटाए उठि।" सारला महामारख। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यो प्राणी (सांसारिक) कमोंके प्राचारचों में निरत रहता है हो उन कर्म बंधनों में पढ़ कर ) वह घोर नरक का भागी बनता है जो सत्वगुण में प्रेरित है और ब्रह्मकर्म करता है जया अनत को नम आराधना करता है, में सच कहता हूँ यह (वेद) विहित निर्वाण मार्ग है । चगत में स्त्री सत्रमादि कर्म समझ का द्वार है इन द्वारों का परित्याग करके महत् जनों की सेवा करनी चाहिए । जो मेरे पदों पर प्रमाद रहित होकर अपने मन प्रर्पित करता है, खो क्रोध निर्वाजित है मोर सारा जगत जिसका सुहृब मित्र है वही महत जन है और प्रशांत साधु भी यही कहलाता है, जो जन मुझे नहीं भजता है घोर प्रमित्य देह को मिस्व समझ कर चाया, गृह, धन और तमयादि के काम में पढ़ कर माना कर्म-क्लेश सहन करता है वह साधु नहीं है । ne तक प्रात्मा को (मनुष्य) पहचान नहीं पाता है तब तक (भ्रम में पड़ कर ) पराभव का भोग करता है, निरंतर मन को बहका कर अबतक (मनुष्य) नामा कर्म मे प्रवृत रहता है तब तक कर्मवश होकर वह नामा योनियोंमें जन्मलेता है । मे अव्यय वासुदेव हूं, मुझ में जिसकी प्रीति नहीं है वह देह और बंधु के परे नहीं है इसलिए वह ईश्वर को पहचानता नहीं । स्वप्नवत् (क्षणिक) इस बेह पर (मनुष्य) नाना ग्रहंकार -CETE Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीता है जैसे नित्रा में (हम) सुरु भोगते हैं, पर बात में उ का कोई लाभ हमें नहीं मिलता। गृहबंध में नारी के साथ अनुदिन रहकर उसके साथ पति-पत्नी का संबंध रसकेर (मनुष्य) मेरा गृह, मेरो मनं, कह कर धौर मांगा में घाच्छन होकर बद्ध रहेगा तब तक उसके सारे कर्म-बंध खंडित नहीं होंगे ! X x X मैं हरि ह, प्रचिल (ष्टि) का गुरु हूं, बेही होकर मुझे ही भजो । जो नियत चित्त होकर मेरे पर्वो पर भक्ति रखती हैं, हिंसा और व्यसनों से परे होकर मेरी धारोधना करता मेरे गुण और कर्मों का निरन्तर कीर्तन करता है, एकांत भाव से मुझे याद करता है, इन्द्रियों के दमन तथा प्रध्यात्मविद्या के प्राचरच पूर्वेक, श्रद्धा पूर्वक ब्रह्मचर्य धारण करता है (तथा) प्रशांत मीर वचन में सच्चा हैं, उसका गृह बंधन नहीं हैं और वह भवजन्म से मुक्ति पाता है। उसके कर्म-धन्धों को प्रक्लेश ही में काट देता हूँ, जिनकों से मात्मा का श्रेय है उन कर्मों पर पॉपर लोग श्रद्धा नहीं रखते थोड़े से सुखं के लिए मतिभ्रम होकर शेष दुःख का कारण अनेक हिंसा का धारण करते हैं उनकी दृष्टि नष्ट हो जाती है और वे अविद्या में भ्रमित होते हैं। X X -३ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्यदास रचित विष्णुमभं पुराणके ६ठे प्रध्यायमें भी ऋषभ-भरत का संबाद है। प्रलेख पथका यह एक प्रधान ग्रन्थ है। इस प्रन्धमें भलेख पंषकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन किया गया है अतः भरत मादि १. पुत्र अपने पिता ऋषभदेव से भलेख धर्मकी दीक्षा लेते इसबातका इसमें उल्लेख है। उत्कल में प्रचारित यह भलेख धर्म जैनधर्मका ही एक दूसरा स्वरूप है । विष्णुगर्भ पुराण के अध्याय में मिलता है कि ऋषभदेव विष्णु के गर्भ में न जाकर वैकुठ को गए है। इसमें ऋषभका महत्व विशेष रूपसे प्रतिपादित किया गया है । पूर्वोक्त, भागवतसे उद्धत ऋषभके जैसे विष्णुगर्भ पुरावकी हितवाणी में भी जैनधर्म के तत्व स्पष्टता परिलक्षित होते है । "जियों को दृढ़ता से बांध कर रहो, से राजा दोषियों को बदी बनाकर रखता है। माया (कपट) और मिथ्या भाषी न बनना, जानते हुए भी अनजान के जैसा रहना, सत्य का व्रत धारण करते हुए सत्य हो बोलते रहो कुपथ की कल्पना मन में भी न लामो, गृह में रहते हुए भी अत्यत विषय जंजाल में न फंसना पुण्यकर्म का ही बराबर सम्पादन करो भोरप्रकर्ममें नपलो, लाभ से सुख अथवा हानि से दुख न मानो मोर पर्वमत में अपने को देखो, सर्वभूत में क्या भाव रखो और निरीह प्राणियों पर क्रोष-षम रखना। विष्णु पर भक्ति रखने वाले लोगों की बातों से प्रतित होकर सदा विष्नु भक्ति रस में रत रहना। कुसंग परित्याग कर सत् संगति मे रहो और Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यता पर! सत्यके अभाव ने हिंसक पशुको भौं महिंसक बना दिया । जैनधर्मकी हिंसा को इस कामें अच्छी तरह व्यक्त कर दिया गया है। "मय यह देखना है कि उत्कल के लोकाचार पर जैनधर्मका प्रभाव कहा तक पडा है । पहले जैनधर्म के कुछ मूल लक्षणों का विवेचन करतना प्रविश्यक होगा । कल्पवट इस धर्मकी एक विशिष्ट मान्यता है । सभ्यताकै मादिकाल में लोग कृषि बीवी मही थे और ईसी कल्पवृक्ष के प्रभाव से जीवनकी सारी माश्यकतामो की पूर्ति कर लेते थे। यह कल्पवृक्ष जब अन्तहित हो गों और लोगों को खाने पीने का प्रभाव हो गया तब भादि तीर्थकर ने लोगों को कृषि, पशुपालन तथा अन्यान्य उद्योगोकी शिक्षाऐ दी । कल्पवटकी पूजा जैनों का एक महान मनुष्ठान है। इसीके अनुकरण से पौराणिक हिन्दुओं ने कामधेनु की कल्पना की थी, इसी कामधेनु (सुरभि के लिये विश्वामित्र ने बशिष्टके आश्रम पर प्राक्रमण किया था जैनों के इस अनुष्ठानमें हिन्दुप्रो को प्रेरित किया जिससे प्रयागके कल्पवंट की कल्पना हुई। सिर्फ इतना ही नहीं, कल्पवटसे कूदकर प्राणत्याग करने को प्रथाका सम्बन्ध जैनो के प्रायोपवेशनमें प्राणत्याग करने के साथ सम्बन्धित है, हिन्दू पुराणों में कल्पवटके प्रभूत महात्म्य वर्णित है। इस सम्बन्ध में पुराणों मे कई प्रकार के पाख्यान भी मिलते हैं। जैनो के कल्पवट की धारणा ने हिंदू धर्म को कितना प्रभावित किया है, प्रयाग के कल्पवट की कथासे यह प्रमाणित होता है । इस कल्पवटके निकट कामना करके प्रसाध्य सौधन हो गया । उत्कल में भी कल्पवटका महत्व अत्यधिक है। यहां लोग बटवृक्षकी उपासना करते है । बटसे जो मोहर निकलता है उसे शिवकी जटासमझी जाती है । जैनों के प्रभाव ४मादि पुराण तीसरा अध्याय, ३० पृष्ठ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 के कारण पुरी, भुवनेश्वर तथा प्रल मन्दिरों में कल्पका रोपण किया गया है। ऐसा न होता तो मन्दिरके भीतर बटवृक्ष रोपण करने का कोई भी दूसरा प्राध्यात्मिक कारण नहीं था । प्रादि तीर्थकर ऋषभदेव हिन्दू पुराणों में विष्णु और शिव अवतार माने जाते हैं। उन्होंने अपने मुखमें पपर भरकर शेष जीवन कैलाश शिखर पर बिताया था अन्त में अब वंशवन में धवाग्नि प्रज्वलित हुई उसी में वे दम्ब हो गए । यह घटना फागुन कृष्ण १शी के दिन,हुई। इसीलिए जैनसोग इस तिष का पालन करते है। कालक्रम में हिन्दुभो ने भी इस तिरोभाव दिवस को एक व्रत माना मोर वे उसे व्रत विशेष के रूपमें मानते चले आ रहे है । यही व्रत शिव चतुर्दशी का जागर (उजागर) के नामसे प्रसिद्ध हमा। ऋषभदेव शिव अन्शीभूत थे यह व्रत उसका एक अच्छा प्रमाण है । इस व्रतकी प्रानिक प्रवृनि जो भी हो, पर है यह एक जैन पर्व ही जो हिन्दू प्राचारमें मोत प्रान हो गया है। पडोसा जैनधर्मका एक प्रधान पीठस्पन है। यहा के प्रत्येक ग्रामम शिवालयको स्थापना है। इन मन्दिरोंके पुजारी ब्राह्मणेतर (परिघा)जातिके ही लोग होते हैं। उत्कलकी पुरपल्लियो में शिव चतुदशो एक प्रधान पर्व है । सुदूर अतीत से बैन पद्धति को का हिन्दूधर्म ने प्रात्मसात किया है । डासा का "विचित्र रामायण" एक पल्ली काव्य (लोक काव्य ) है अथवा इसे एक काव्य भी कहा जासकता है। इससे भी सीताके मुख से कविने किसी अलक्ष्य बटकी प्रार्थना करामी है।" उडीसा के कवि की इस मौलिकतामे मो जैवत्वका प्रभाव सन्निहित है। त्रिशूल और वृषन शिव के पिर साथी है। प्रादि तीर्थकर ऋषभदेव ने भी यही चिन्ह धारण किया था। ऋषभ ५ है वा ज्वट । हे बटश्रेष्ठ ।। मेरी विनती स्वीकार करा । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम ही वृषभ का प्रतिपद है। जगन्नाथ जी के मंदिर के बेड़ा (घेरा) में कोहली बैकुंठ के नाम से एक स्थान है। यह कोहली शब्द तामिल के कोएल से प्रपत्रा संस्कृत के कैवल्पसे पाया है, विचारणीय प्रश्न है कि हिंदुनो से मुक्ति मोक्ष शब्दादि की तरह जैनधर्म का कैवल्य शब्द भी एकार्थ वाचक है। वस्तुत यह कैवल्य शब्द जैनधर्म का ही है जिसे उड़ियाने प्रपना बना लिया है। क्योकि प्राचीन हिंदू अथोभे मोक्ष के अर्थ में कहीं भी कैवल्य शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। जिन जिन तिथियों में तीर्थङ्करोंके गर्भावस्थान,जन्मतपस्या, ज्ञानप्राप्ति और मोक्ष प्राप्ति हुई है, इन्द्रादि देवगण उन्ही तिथियो में उत्सव मनाते हैं। जैनधर्मी लोग भी पृथ्वी पर उन्ही तिथियो मे चैत्रयात्रा करते है। चत्य निर्मित रथ के ऊपर जिन देव की प्रतिमा रखकर नगर मे परिक्रमा कराने को विधि की चैतयात्रा करते हैं । सुसज्जित हाथी और गीतबादित्रो के साथ इस उत्सवका परिपालन होता है। प्रभिधान राजेन्द्र अनुमान विवरण में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है। (बट-मूल में, हाथ जोड कर व्याकुल हृदय से सीता ने प्रार्थना की) मपनी परोपकारी वृति के कारण चतुर्दश लोक में तुम्हारी ख्याति है। मेरी सास पोर मेरे श्वसुर, अयोध्या में मगल से रहें, पत्र घुन को साथ लेकर भरत वीर सुखपूर्वक राज्य पालन करते रहें। अयोध्या निवासी सभी नर नारी प्रानन्द पूर्वक रहें, मैं हाथ जोड़ कर विनती करती ह, शत्रो का उपद्रव उनको न हो। में विधवा और गणिता न होऊ और युग युग तक जीवित रहू ।। मेरे पिता परम पद की प्राप्ति करें, इससे अधिक पीर तुमसे क्या मागू। विचित्र रामायण। ६ पुरुषार्थ शून्याना गुणना प्रति प्रसव कैवल्य स्वरूप प्रतिष्ठा वाचित शलि हत Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रथयात्रा ऋषभदेव के रथोत्सव से मिलती-सी है, इसका उल्लेख पहले ही किया जा चुका है। उल्लेखनीय है कि यह रथयात्रा श्रीकृष्ण जी की घोषयात्रा नहीं है। घोषयात्रा में फिर बाहुडा (लोटना) नहीं होता है। कल्पवृक्ष की साम्यता के बारे में भी पहले कहा जा चुका है। यहां यह भी कहा जा सकता है कि श्री जगन्नाथ जी का नीलचक्र श्री ऋषभदेव के धर्मचक का ही सतास्वरूप है । ऋषभदेव की पूजा जहा कही भी होती है उसे पक्रक्षेत्र कहा जाता है। प्राबू पहाड़ के क्षेत्र को इसीलिए बक्रक्षेत्र के नाम से पुकारा जाता है। यहाँ तक कि केंदूमर जिला स्थित मानन्दपुर सबडिविजन के जिस स्थान में पहले ऋषभदेव का पूजापीठ या उस स्थान को भी पक्रक्षेत्र के नाम से पुकारा जाता है। पुरी को चक्रक्षेत्र के नाम से पुकारने मे वैष्णव धर्म का प्रभाव जहां तक भी हो, पर जैन ऋषभदेव के पूजापोठ होने के कारण ही पुरी का ऐसा नाम पड़ा इस में सवेह नही है। इन सारे प्रमामो पर मभीरता पूर्वक चितम करने पर श्री जगन्नाथ जी को प्रानुष्ठानिक रूप से जैन प्रतिमा ही मानना पड़ेगा। नवमारत मार्च, १३५५ का अंक देखें। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. उड़ीसा की जैन-कला भुवनेश्वर से दक्षिण-पश्चिम दिशामें खण्डगिरि और उदयगिरि नामक दो छोटे-छोटे पहाड है । उनकी ऊँचाई क्रमश १२३ फोट और ११.फोट है। उदयगिरिके नीचे एक वैष्णव मठ भी है। ये पहाड छोटी-छोटी गुफामो से परिपूर्ण हैं । उदयगिरि व खण्डगिरिमे १६ तथा उनके निकटमें ही नीलगिरि नामक पहाड में ३ गुफाये देखनेको मिलती है । २० वी शताब्दीसे प्राय: १६ सौ वर्षों पूर्व ही अधिकाश गुफायें जैन सम्राट् खारवेल और उनके परिवार वालों के द्वारा निर्मित की गई थी। शवधर्मका केन्द्र स्थान भुवनेश्वर इसके इतने निकट है कि जैनधर्म किस प्रकार अपने स्थानमें जम सका, इस प्रश्न का लोगो के मनमें उठना स्वाभाविक ही है । ईसा पूर्व पहली शताब्दी में शवधर्म खूब सम्भव है कि कलिंग में नहीं फैला हो तथा ऐसा मालूम पडता है कि जैनधर्म की वृद्धि में रुकावट डालनेके लिये ब्राह्मण धर्म के परिपोषक वर्गने भुवनेश्वर को मन्तमें प्रचारके उपयुक्त स्थान समझकर ग्रहण किया हो । खण्डगिरि और उदयगिरि मादिमें स्थित गुफामोंका स्था. पत्य दक्षिण भारतमें वास्तव में एक दर्शनीय वस्तु है । इसीके कारण प्रतिवर्ष भारतसे सैकड़ो ऐतिहासिक विद्वानो तथा पर्यटको का यह आकर्षण केन्द्र रहा है । उदयगिरि की गुफामो के मध्यमें रानी हसपुर नामक गुफा हो सबसे बडी है । इसकी बनावट भी बडी सुन्दर है । इसको रानी गुफा भी कहा जाता -२८ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इसकी कोठरियां दो पक्तियों में सबी हुई है। गुफाका दक्षिण-पूर्व पाश्वं खुला हुमा है । नीचेकी पंक्तियों में पाठ एवं ऊपर की पति में छ. प्रकोष्ठ है । इसके ऊपर की मंजिल में स्थिति विस्तीर्ण बरामदा वास्तविक रानी गुफाका एक प्रधान विशेषत्व रखता है। यह बीस फीट लम्बा है। इन्हीं बरामदों में प्रतिहारियोंकी प्रतिमूर्तियां प्रति स्पष्ट रूपमें खोदी गई है। नीचे के मजले में स्थित प्रहरी एक सुसज्जित सैनिक के समान दिखाई पड़ता है। बरामदे की एक विशेषता यह भी है कि वहां पर बैठने के लिये अनेक छोटे छोटे उच्चासन निर्मित किये गये हैं। पश्चिम भारत की प्राचीन गुफामो में इसी तरह के मासन दिखाई पड़ते है। बरामदे की छतको साधने के लिये बहु सख्या में प्रस्तर स्तभ बनाये गये है। किन्तु दुर्भाग्य-वश उनमें से अधिकाश स्थम्भ जीर्ण-शीर्ण हो गए है । रानी गुफासे केवल तीन ही प्राचीन स्तम्भ समय की गतिके विरुद्ध संग्राम कर बयेष्ठ क्षतविक्षत होकर अबतक भी बचे हुए है। गुफामों के भीतर प्रवेश करने के लिये भी द्वार बनाये गये हैं । बडी-बडी गुफामो के निमित्त एक से अधिक द्वार निर्मित किये गये है। ऐसा हमें देखने को मिलता है । इन्ही द्वारों में ऊपर के भागमें जैनधर्मके नाना प्रकार के उपाख्यान खोदे हुए थे। ये उपाख्यान प्रति प्राञ्जल रूप में वर्णित हो सकते है। किन्तु उस सम्बन्धमें गवेषण करके प्रत्येकका तथ्य सग्रह करना सहज नहीं है। प्रत्येक चित्रमें सामजस्य-सा मालूम पड़ता है, किन्तु ऊपर के मजलेमें शिल्पकारने जिस रीतिसे दृश्योका वर्णन किया है, नीचे के मजले में ठीक उसी रीतिसे नहीं किया गया है। दोनों मजलेमें मापसमें एक विराट पार्थक्य बोध होता है इस मजलेके दृश्योमें एकत्व मालूम पडता है। खुदी हुई मूर्तियों के बोचमें परस्पर सम्बन्ध भी प्रति स्पष्ट मालूम पड़ता है । मूत्तियो Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तविक जीवित जागृत प्रतिमा-सी मालूम पड़ती है । "नीचे के मजले में मूर्तियां इतनी उच्चकोटि की नहीं है उनमें धप्राकृतिकता मोर अपरिकल्पता पूर्ण मात्रामे मालूम पड़ती है । . किन्तु रानी गुफा में स्थापित मूर्तियों से वे अवश्य प्राचीन हैं, किन्तु स्थान विशेष के कारण हमे वहा खूब उच्च कोटि के स्थापत्य भी देखने को मिलते है इसलिए नीचे की मजले की कला ऊपर मजले की अपेक्षा अधिक पुरानी है। इसमें भूल नही है । रानी गुफा के दूसरे मजले में स्थित मूर्तियो की कलामें हम जो पार्थक्य देखते हैं, वह पार्थक्य समय की दूरताके लिये नहीं मालूम पड़ता है बल्कि भिन्न २ शिल्पकारो की नियुक्ति के द्वारा इस पार्थक्य ( समानता) की सृष्टि हुई है। नीचे के मजले के लिये जो शिल्पकार नियुक्त किये गये थे, वे मालूम पडता है । कुछ निकृष्ट घरण के थे । इस विषय पर आवश्यक प्रत्यक्ष प्रमाण मिलना सहज नही । इस विषय में सर जौन मार्शलका कहना है कि ठीक मंचपुरी गुफा के समान नीचे का मजला और ऊपर का मजला निर्माण करते समय का व्यवधान बहुत थोडा था, ऐसा मालूम पडता है कि गुफाकी कला तथा उसकी स्थापना के ऊपर अवश्य ही मध्य भारतीय तथा पश्चिम भारतीयो का प्रभाव पडना स्वाभाविक है । इस प्रभावके द्योतक हम जीवित दो प्रमाण पाते हैं। ऊपर के मजले में स्थित एक द्वार रक्षक, जो ग्रीक है अथवा वह यवन वेषभूषा मे सुसज्जित हुआ है । उसीके निकट में एक सिंह तथा उसके श्रारोही की गठन मैं भी पश्चिम एशिया के कुछ चिन्ह दृष्टिगोचर होते हैं । किन्तु नीचे के मजले में स्थित प्रहरी का रूप तथा परिपाटी मे अविकल भारतीय ढंग मालूम पडता है, कारण यहा शिल्पकी निपुण्यता अपरिपक्व है। वह भारतीय नियमानुसार सीमाबद्ध है। -१०० 4 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्द्धवृत्त में शेष मंचपुरी और स्वर्गपुरी या वैकुण्ठपुरी नामकी दो गुफाएं हैं। इन गुफाओं में जो शिलालेख है, उसका ऐतिहासिक मूल अपरिमेय है, कारण चक्रवर्ती सम्राट् खारवेल के हाथीगुफा के शिलालेख के साथ उनका सम्पर्क है । मंचपुरी गुफा के सम्मुख एक विस्तृत प्रागण है । उसी के पास में बरामदा तथा दक्षिण पार्श्व में स्थित बरामदे में दो-दो मूर्तिया हैं । प्रधान बरन्डे की छत के सम्मुख नाना प्रकार की मूर्तिया खोदी गई है । वे सब वर्त्तमान प्रस्पष्ट हो गई हैं । प्रकोष्ठ के मध्य में जाने के लिये जो पांच द्वार निर्दिष्ट हैं उन्ही द्वारो तथा पाश्वं स्तभो में वृक्ष, लता, पुष्प आदि का चित्रण प्रति सुन्दर रूप में प्रकित है । इन शिलालेखो से मालूम पडता है कि सब गुफाएँ महामेघवाहन कदम वा कुजप के द्वारा निर्मित हुई थी । ये निश्चय ही खारवेल के बशधर होगे । फर्गुसन ने इस गुफा को पातालपुरी नाम दिया है । मंचपुरी या पातालपुरी के पश्चात् स्थित पहाड में स्वगंपुरी गुफा बनी है। मित्र और फर्गुसन के अनुयायो इनको बैकुण्ठपुरी भी कहते है । इसके विराट प्रकोष्ठ के पास एक बरामदा है । दक्षिण पार्श्व में एक छोटा प्रकोष्ठ है। बरामदे की छत प्रनेकाश में टूट गई है । इसलिये स्तंभ या प्रहरी की मूर्ति यादि थी, यह नष्ट हो गई है । उसमें स्थित शिलालेख मे मालूम पडता है कि कलिंग के जैन-संन्यासी तथा महत के लिय राजा लाक की दुहिता हाथी साहस की पौत्री के द्वारा निर्मित हुई थी । यह थी खारवेल की प्रधान रानी । गणेशश-गुफा के भीतर की दिवाल पर गणेश जी की प्रतिमूर्ति खोदी हुई है । इस गुफा में दो प्रकोष्ठ और एक बरामदा है। गुफा में प्रवेश करने के दोनो पार्श्व में दो हाथियो की -१०२ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृतिमा निर्मित की गई है। हाथी पदम् प्रणाल लेकर प्रस्तुटित, पदके ऊपर खड़े हैं। बरामदे की छत को स्थिर रखने के लिये जो स्तभ थे, वे अनेक टूट फूट गये हैं। वाम पारवं के, स्तम में ४. फुट की ऊंचाई पर एक प्रहरी मूत्ति खोदी गई है। प्रहरी के पैर वस्त्र से ढंके हुए नहीं है । वे दाहिने हाथ में एक पी लेकर खड़े हुए हैं। उनके मस्तक के ऊपर एक यक्ष की मूर्ति है । युफा को दो भागों में विभक्त करने के लिये एक दीवाल है। प्रत्येक प्रकोष्ठ में दो दार है । द्वार के ऊपर भाग में रेलिंग है । रानी गुफा में जिस तरह के चित्र खोदे गये है, यहाँ पर भी उसी तरह रेलिंग में अति सुन्दर दृश्य और चित्रांकन किया गया है। प्रथम दृश्य में एक वृक्ष तथा एक पुरुष बिछोने के ऊपर सोया प्रतीत होता है । निकट मे एक स्त्री पुरुष के पादमदन करने के समान मालूम पडती है । किन्तु दूसरा दृश्य दूसरे प्रकार का है। वहा पर युद्ध का वर्णन किया गया है। शेष दृश्य में फिर एक पुरुष है । एक स्त्री के साथ बातचीत करते हुए देखते है । ये उपाख्यान रानी गुफा के ऊपर दृश्य के प्रायः समान है । वहा पर मालुम पड़ता है कि कोई अपहता नारी को उद्धार करने का विषय प्रदर्शित किया गया है। सैनिक वर्ग विदेशी मालूम पड़ते है। भवदेव सूरोके पाश्वनाथ चरित्र में वर्णित हुआ है कि तीयंकर पाश्र्वनाथ ने किसी कन्याका कलिंग के यवन राजा के हाथ से उदार किया था। इस गल्प में यदि कुछ सत्यताहो सकती है, तब निश्चय ही गणेश मुफाके कठिन प्रस्तर के ऊपर रूप रेखा होगी। कारण गणेश गफा जैनियों की कीर्ति होने के कारण जैनधर्म के किन्हीं भी तीथंकर का जीवन वहां पर चित्र के प्राकार में उपासकों के सामने प्रदर्शित होना प्रति स्वाभाविक है। उदयगिरि के मध्य भाग में,धानर Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुफी, हाथों गुफा, वाघ गुफा और जम्वेश्वर गुफा विद्यमान, है। पहाड के पृष्ठ भाग को काटकर समतल किया गया है। समतल स्थान के केन्द्र स्थल में एक क्षुद्र मंडप है। इस मंडप में अनेक समय से छोटे २ मन्दिरों का भग्नावशेष भी मालूम पड़ता है । धान पर की गुफा १४ फीट लम्बी और उसके लिये तीन प्रवेश द्वार है। बरामदे में बैठने के लिए बदोबस्त किया गया है । वाम पार्श्व में स्थित स्तभ के शरीर में सैनिकों की मूत्ति खोदी हुई है । सैनिक के मस्तक पर एक हाथी की मूर्ति भी दिखाई पड़ती है। हाथी गुफा का गठन पति असाधारण है। इसमें कोई निर्दिष्ट प्राकार नहीं है। हाथी के ४ प्रकोष्ठ और स्वतत्र बरामदा भी था। गुफा का अन्तर्देश ५२ फीट लम्बा और २८ फीट चौडा है। द्वार की ऊंचाई ११३ फोट है । इसमें खारवेल का विश्व विख्यात शिलालेख है । इसशिलालेख में उनका जीवन चरित्र लिपिबद्ध हुआ है। समय २ पर यह शिलालेख मसम्पूर्ण के समान बोध होता है। हाथी गुफा के पश्चिम में ८ गुफाएं हैं । इसके ठीक ऊपर पार्श्व में सर्प गुफा अवस्थित है। यह गफा सर्प के फण के समान दीखतो है । सपंफण जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ का प्रतीक है । यह गुफा बहुत छोटी है। इसकी ऊंचाई केवल ३ फोट है। यहां पर दो शिलालेख है । वे बिना भूल हुए पढना सभव नही, क्योकि अनेक प्रक्षर नष्ट हो गये हैं। सर्पगुफा के उत्तर पश्चिम को ओर व्याघ्र गुफा है । इसका अग्रभाग शार्दूल की मुखाकृति के समान दिखाई पडता है। व्याघ्र गुफा केवल ३१ फीट ऊंची है तथा द्वार में स्थित शिला लिपि के द्वारा मालूम पडता है कि वह गुफा जैन ऋषि सुभूति की थी। जम्वेश्वर गुफाकी ऊँचाई केवल ३ फीट ईच है । इस Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रानीगुफा में उत्कीर्ण दृश्य। R AN ... .., ऊपर को मंजिल में उत्कीर्ण जैन उपाख्यान RSS स ऊपर की मंजिल में उकीर्ण जैन उपाख्यान के दृश्य। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M MAL नीचे की मजिल मे एक दरबान की मूर्ति .33 me/ Desolonom/ N ManAN * / Panta ऊपरी मन्जिल में उत्कीर्ण जैन उपाख्यान Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोटो हाथी गुफा खएडगिरि उदयार .. ... , - भचपुरी या स्वर्गपुरी गुफा (बन्डगिरि उदयगिरि) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ardeesekshiRNE N video बरामदे मे दक्षिण पार्श्व पर नारी दरबान CAMER : खडगिरि उदयगिरि पर्वत पर उत्कीर्ण तोथेकर मूर्तियाँ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दि. जैा मन्दिर कटक की धात्मय जिन प्रतिमाये । Tara Rapp चउद्वार मदिर मे जिन मूर्ति । 3 (पाम मे डॉ० साहुको माता श्री अन्नम् बैठी है) १ अन्ना EME50/ Hima E Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० पार्श्वनाथ की मूर्ति (कटक के जैन मदिर में स्थित) me : SAR प्रथम और अन्तिम तीर्थकर की मतियाँ (दि. जैन मदिर कटक) श्री स्वप्नेश्वर शिवमन्दिर मे म० ऋषभदेव की मूर्ति Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ yam R . antaraa ORK . adminine भ० पद्मप्रभ की मूर्ति (जन मठ कटक) NREAK Prabar R SHARRERARMISH RASE नी PRANRNERRORE DRON M 400080804 SES 6 श्री सहस्रकट जिन चैत्य (क्टक के जैन मदिर में) चरद्वार माताजी के मन्दिर मे ऋषभदेव की मर्ति (शैवमान्यता। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० पार्श्वनाथ की मूर्ति (अयोध्या-नीलगिरि जिला बालासोर) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सxvdo Raicti तीर्थकर एव शासनदेवी को मूर्तियाँ। (अयोध्या-नीलगिरि जिला बालासोर से प्राप्त) भ० पार्श्वनाथ की मूर्ति भ० ऋषभ की मति (अयोध्या-नीलगिरि जिला बालासोर से) (अयोध्या-नीलगिरि जिला बालासोर से प्राप्त) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतस पुर से उपलब्ध जैन मूर्ति भ० ऋषभ, भ० पार्श्वनाथ और भ, महावीर की पापाण मूर्तियाँ। (मयूरभज मे प्राप्त) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटक का प्राचीन दि० जैन मदिर Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W कटक के प्राचीन दि० जैन मंदिर मे विराजमान तीर्थङ्कर ४० के चैत्य 1 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से ऊपर जाने पर पहले खण्डगिरि गुफामें प्रवेश करना पड़ता है । गुफाकी निचली मंजिलमें जो प्रकोष्ट है, उसकी ऊँचाई ६ फीट २ इन्च है । प्रोर ऊपरी मंजिल की ऊचाई ४ फीट इन्व है। इसके अलावा नीचे की मंजिल में एक छोटी टूटी-फूटी गुफा है । ऊपरी मंजिल के प्रकोष्ट के निकट में एक छोटी कोठरी मालूम पडती है । उस छोटी गुफा में पतित पावन की मूर्ति कित है। खण्डगिरि गुफाके दक्षिण तरफ धानगढ नामक एक दूसरी गुफा है। उस गुफा में स्थित शिलालेख भाजतक भी पढ़ा वही गया है । यह माठवी या नवी शताब्दी में लिखा गया है ; ऐसा अनुमान किया जाता है। इसके दक्षिण दिशा की पोर नवमुनि गुफा, बारभुजि गुफा और त्रिशूल गुफा है । नवमुनि गुफा में दो प्रकोष्ठ हैं। इस गुफा में १० वी शताब्दी का एक शिलालेख है। इसमें जैनमुनि शुभचन्द्र का नाम उल्लेख किया है । गुफा के दक्षिण पार्श्व में स्थित जैनियोके २४ वें तीर्थंकर की मूर्ति खोदी गई है । यही नवमुनि गुफाकी विशेषता है । जैनधर्म में हम लोग साधारणत २४वें तीर्थंकर का सधान पाते है । उनकोही नवमुनिगुफामें रूपदान किया गया है। सबो की एतिहासिक स्थिति तथा प्रमाण पाना संभव नहीं है। उन की जोवनी अनेक समय से कल्पनिक और रहस्य जनक है । यह बात हमें जैनशास्त्र से प्रतीत होती है । बहुत दिनो तक जीवित रहकर ये तीर्थंकर जैनधर्मकी अहिंसा वाणी का प्रचार किये थे | इन्ही २४ सो के जीवन काल की घटना को एकत्रित करने पर भारत का प्राचीन ऐतिहासिक काल ऐतिहासिक बुग से भी भागे बढ जायगा । इसलिये कितने तीर्थंकर समसामयिक थे ऐसे कितनो का विचार है, पर वह ठीक नही है । जैनधर्म में ये तीर्थंकर सदा पूजनीय है। जैन तीर्थ स्थानो मैं जो २४ तीर्थंकरो की स्थापना हुई है, उनको एक प्रकार —१०६– Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मान प्रदर्शन करने के लिए, किन्तु मन्दिर में उनके बीच एक मूलनायक के नाम से स्वीकार किया जाता है। धन्य जैनियों के द्वारा वही मूलनायक परिवेष्ठित होकर मुख्य पूजा पाते हैं । वे ही मूलनायक कहकर मन्दिर में प्रधान देवता कहे जाते थे। मंदिर में जिनेन्द्र की उच्चासना ही जैनधर्म का परम्पचागत न्याय है । नवमुनि गुफा में पाश्वनाथ को मूलनायक के रूप में पूजा की जाती है । यह २४ जैन तीर्थंकरों के मानसिक विकार और इन्द्रियोंको जय करनेसे ही जैन धर्मावलम्वियोका नमस्य हुआ है। जैन लोगोंने सन्यासी व्रतको शांतिमय जीवनका प्रधान पद समझकर ग्रहण किया था। जैन तीर्थंकर पद्मासन या कार्बोत्सर्ग मुद्रा में स्थित होकर शिव की मूर्ति के समान दिखाई देते है । यह सादृश्य मर्थहीन नहीं है । किन्तु यही सादृश्य को केन्द्र कर हम कह सकते है कि जैनियो के यौगिक चालम्बनको अबलम्व करके शिव की प्रतिमूत्ति गठित हुई है। यह इन्ही जैनतीर्थंकरो के भिन्नर चिन्ह है । प्रत्येकका यक्ष और यक्षिणी या शाशन देवता और ज्ञान प्राप्त वृक्ष भी भिन्न भिन्न हैं। कितने ही जिनेन्द्र उनके वश के प्रतीक को चिन्ह के रूप में ग्रहण करने से अनूमित होते हैं । दृष्टान्त स्वरूप इक्ष्वाकु पक्ष ऋषभ के प्रतीक रूप में व्यवहार करते थे । ऋषभनाथके इसी वंश में जन्मलेने के कारण वृषम उनका चिन्ह हुआ है । उसी प्रकार मुनिसुव्रत और नेमिनाथ का 'चन्ह क्रमशः कूर्म भीर शस्त्र है । प्रथम तीर्थंकर मौर यादि जिन ऋषभनाथ के संबध में किम्बदन्तियाँ प्रोर भ्राख्यायिकायें है जो उनमें सत्यासत्य जानने का उपाय नहीं है। जैनियो के इतिहासमें भी इन्ही ऋषभनाथ या वृषभनाथको ही जैनधर्मका संस्थापक मानते हैं ऐसह वर्णन किया जाता है। दिगम्बरो का आदि पुरान और हेमचन्द्र - १०७ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का 'त्रिषष्टि शालाका पुरुष चरित्र' में यह वर्णन किया गया है। भागवत पुराण और अग्नि पुराणादि में वृषभवान की विष्णुका प्रवतार कहा गया है। किन्तु प्रकृत में देखने पर ऋषभदेव का शिवके साथ बहुत सादृश्य दिखाई पड़ता है । 'किन्तु ऋषभनाथ जैनधर्मके प्रचारक न थे, ऐसा सन्देह होने का कोई कारण नही है । इसलिए बैलको उनका चिन्ह तथा गौमुखे यक्षको बैलकी प्राकृतिपर और दक्षिणी चक्रेश्वरीको वैष्णो के समान दिखाने की चेष्टामें शिल्पीने मालूम होता है कल्पना की कि ऋषभनाथ शिव और विष्णु से बडे हैं । ऋषभनाथ की प्रतिमा के सम्पर्क मे जैनियो के शास्त्रो मे विशेष वर्णन कुछ नही है । तो भी प्रवचन सारोद्धारसे मालूम पडता है कि बैल जैनियो का प्रथम प्रतीक था । धर्मचक्र उनका दूसरा प्रतीक है । उन्होने न्यग्रोध या वटवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया था । उनकी प्रतिमूर्ति के दोनो पार्श्व मे क्रमशः भरत बाहुबली नामसे दो पूजक होते है । इन चौबीस तीर्थ रोका विशेष परिचयनिम्न प्रकार प्रढिमे: १ तीर्थङ्कर ऋषभदेव व माद्रिनाथ, जन्मस्थान-बिनीताती पिता-नाभिराजा माता मरुदेवी, विमान- सर्वार्थसिद्ध, वर्णसुवर्णाभ, केवलवृक्ष न्यग्रोध, लाञ्छन- वृष यक्ष गोमुख, पक्षीचक्रेश्वरी प्रतिचक्र, चउरिधारक- भरत मोर बाहुबली निर्वाण स्थल- कैलाश (अष्टापद) गर्भ झषाढ़ बढी २ जन्म व तप चैय बदी ६ केवल ज्ञान फाल्गुन वदी ११ निर्वाण माघ वदी १४ २ तीर्थंकर-मजितनाथ जन्मस्थान- अयोध्या, पिता- जितशत्रु माता विजयमाता विमान विजय, वर्ण-स्वर्णीस, केवलक्ष-शान सप्रखड लाछन- गज, यक्ष महायक्ष, यक्षी - अजित वाला (20) रोहिणी (दि०) चउरीधारक सगर-बक्री, निर्वाण स्थान स०शि० गर्भ जेठ वदी १५, जन्म व तप माघ सुदी १०, केवल ज्ञान - १०८ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (दि०) चबंरीधारक- त्रिपिष्टराज, मि० स्थल स०वि० गर्भ जेठ वदी ८, जन्म व तप फा० बदी ११, केवल ज्ञान साथ बदी १५ निर्वाण श्रावण सुदी १५ १२ तीर्थंकर-वासुपूज्य, जन्मस्थान- चम्पापुरी, पिता-वसुपूज्य माता जया, विमान प्रणत देवलोक, वर्ण- रक्ताभ, केवलबुलपाटलिक व कदम, लाखन- महिषी, यक्ष-कुमार, यक्षी-प्रचण्ड (श्वे०) चण्ड (श्वे०), गान्धारी (दि०), परीवारक -द्विपिण्ड वासुदेव, नि० स्थान मन्दारगिरि गर्भ प्रषाडवदी ६ जन्म व तप फा० वदी १४ केवलज्ञान मादों बदी २ निर्वाण भादोसुदी १४ १३ तीर्थंकर विमलनाथ, जन्मस्थान-काम्पिल्यपुर (फरखावार) पिता - कृतवर्माराज, माता- श्यामा, विमान महाशर देवलोक, वर्ण-स्वर्णाभ, केवलबुक्ष- जम्बू, लाखन- बराह, यक्ष- सम्मुख (श्वे०) श्वेतम् ( दि० ), यक्षी - विजया (श्वे०), विदिता (दवे०) रोति ( दि०) चबरीधारक स्वयम् वासुदेव, नि० स्थान ० शि० गर्भ जेठ बदी १० जन्म व तप माघ सुदी १४ केवल ज्ञान माघ सुदी ६ निर्वाण प्राषाढ़ बदी ६ १४ ती. अनतजित प्रथवा अनन्तनाथ जन्मस्थान- प्रयोध्या, पितासिंहसेन, माता सुयशा, विमान प्रणत देवलोक, वर्ण-स्वर्णाभ, केवलवृक्ष अशोक या मश्वत्थ, लांछन-श्वेन (श्वे०) भल्लुक ( दि० ), यक्ष-पाताल, यक्षी - प्रांकुशा (श्वे०), अनन्तमति ( दि.), चवरीधारक - पुरुषोत्तम वासुदेव, नि० स्थान स०शि० गर्भ कार्तिक वदी १ जन्म व तप जेठ वदी १२ केवल ज्ञान क्षेत्र वदी १५ निर्वाण चैत्र वदी ४ १५ तीर्थंकर - धर्मनाथ, जन्मस्थान रत्नपुरी, पिता-भानुराज, माता सुव्रता, विमान- विजय, वर्ण स्वर्णाभ, केवलवक्ष दषिपति या सप्तच्छद, लांछन- वज्रदंड, यक्ष- किन्नर, यक्षी - पन्नगा देवी (श्वे०), कन्दपी (श्वे०) मानसी (दि०), चवरीधारक -१११ - Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरिक वासुदेव नि० स्थान स०शि० गर्भ वैसाख सुदौर 'जन्म -तप माघ सुदो १३ केवल ज्ञान पोह सुदी १५ निर्वाण जेठ सुदो ४ १६ बीर्थङ्कर शातिनाथ, जन्मस्थान हस्तिनापुर, पिता-विश्व. सेन,माता मचिरा या ऐरा विमान-सर्वार्थ सिद्ध,वर्ण-स्वर्णाभ, केवल वृक्ष-नदी,लाछन-मृग,यक्ष-गरुड (श्के०),किंपुरुष (दि०) यक्षी-निर्वाणी (श्वे०). महामानसी (दि.)चवरीधारक. पुरुष दन्तराज, मि० स्थान स० शि० गर्भ भादो वदी ७ जन्म व तप जेठ वदी १४ केवल ज्ञान पोह सुदी १० निर्वाण जेठ वदी १४ १७ तीर्थङ्कर-कुन्थुनाथ, जन्मस्थान-गजपुर, पिता-सुरराज, माता-श्रीराणी, विमान-सर्वार्थसिद्ध वर्ण-स्वर्णाभ, केवलवृक्ष तिलकतरु या भिल्लक, लाछन-प्रज यक्ष-गन्धर्व, यक्षीअच्युता (श्वे०)वला (श्वे.), विजया (दि०),नवरीधारक. कुनाल, नि० स्थान स. शि. गर्भ श्रावण वदी १० जन्म व तप वैसाख सुदी १ केवल ज्ञान चैत्र सुदी३ निर्वाणवैसा०सु०१ १८ तीर्थङ्कर अरहनाथ, जन्मस्थान गजपुर, पिता-सुदर्शन, माता देवीराणी, विमान सर्वार्थसिद्ध, वर्ण-स्वर्णाभ, केवल. वृक्ष-पाम्र, लाछन-नन्द्यावर्त (श्वे०) मीन (दि.) यक्ष-यक्षेत (दि०), श्वेन्द्र (दि०), यक्षी-धरणी देवी (श्वे०), अजिता (दि०), तारा (दि०),चवंरीधारक.गोविन्दराज, नि० स्थल स. शि० गर्भ फागुन सुदी ३ जन्म व तप मगसर सुदी १४ केवल ज्ञान कार्तिक सुदी १२ निर्वाण चैत्र सुदी ११ १९ तीर्थङ्कर-मल्लिनाथ, जन्मस्थान-मिथिला या मथुरा, पिता-कुभराज, माता-प्रभावती.विमान-जयन्त देवलोक,वर्णनीलाभ, केवलवुक्ष-अशोक, लाछन-कलस, यक्ष कुवेर; यक्षी-वैराती श्वे०) धरण प्रिया(श्वे);पपरा जिता[दि.] -११२ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ऊंरीधारक – सुलुमराज; नि० स्थान स० शि० गर्भ. चैत्र - सुदी १ जन्म व तप मगसर सुदी ११ केवल ज्ञान पोह बदी २ निर्वाण फागुन सुदी ५ २०. तीर्थंकर मुनिसुव्रत; जन्मस्थान – राजगृह; पितासुमतिराज; मात - पद्मावती; विमान अपराजित देव लोक, वर्ण–कृष्णाभ, केवलवृक्ष- चम्पक, लाछन कूर्म; यक्ष - बरुण; यक्षी – नरदत्ता (श्वे०) बाहुलीपाणि (दि०), चउरीधारक प्रजित नि० स्थान स० शि० गर्भ श्रावण वदी २ जन्म व तप वैसाख वदी १० केवल ज्ञान वैसाख वदी ६ निर्वाण फागुन वदी १२ २१ तीर्थंकर_नमिनाथ; जन्म स्थान- मिथिला पिता - विजय राज, माता- विप्राराणी, विमान - प्रणत देवलोक, वर्ण- पीताभ, केवलवृक्ष- वकुल, लाछननीलोत्पल, ( श्वे० ) प्रशोकवृक्ष ( दि०) यक्ष- भृकुटि ( श्वे ० ) नंदिण ( दि० ), यक्षी - गांधार (श्वे०) चामुडी ( दि० ) चउरीधारक ( विजय राज ) नि० स्थान स० शि० गर्भं ग्रासीज वदी २ जन्म व तप आषाढ़ वदी १० केवल ज्ञान मगसिर सुदी ११ निर्वाण वैसाख वदी १४ २२ तीर्थंकर_नेमीनाथ, जन्मस्थान सौरीपुर वा द्वारका; पिता समुद्रविजय; माता शिवादेवी, विमान घराजिता, वर्ण-कृष्णाभ, केवल वृक्ष महावेणु वेतसा ; लाछन- शख, यक्ष - गोमेघ ( श्वे० ) सर्वाहण - ( दि०) पुष्पयान दि) यक्षी - अमा, अम्बिका कुष्माणिडनी, चउरीधारक उग्रसेन, नि० स्थान गिरिनार ( रैवतक), गर्भ कार्तिक सुदी ६ जन्म व तप श्रावण सुदी ६ केवल ज्ञान प्रासोज सुदी १ आषाढ सुदी ८ २३ तीर्थंकर पार्श्वनाथ, जन्मस्थान_वाराणसी; पिता - ११० Q Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वसेन साजा, माता-वामादेवी,, विमान प्रणत देवलोका वर्ण-नीलाम, केवलवृक्ष-देवदारु या धातकी; लाछनसर्प, यक्ष-पार्श्व (श्वे०) वा धरजेन्द्र (दि.) यक्षी-पद्मा वती, चउरीधारक-अजितराज, नि० स्थान स० शिखिर गर्भ वैसाख वदी २ जन्म व तप पो. वदी ११ केवल ज्ञान चैत्र बदी ४ श्रावण सुदी ७ २४. तीर्थंकर महावीर वा बधमान; जन्मस्थान-कुड़ग्राम पिता-सिदार्थराज या भेयास वा यशस्वी; मातात्रिशला; विदेहदत्ता वा प्रियकारिणी, विमान-प्रणत देवलोक, वर्ण-पीताभ, केवलवक्ष-शाल , लॉछन -सिंह; यक्ष-मातग, यक्षो-सियिका, चउरीधारक-प्रेणिक या बिम्बसार नि० स्थान पावापुर गर्भ अषाढ़ सुदी ६ जन्म व तप चैत्र सुदी १३ केवल ज्ञान मगसिर वदी १० बैसाख सुदी १० निर्वाण कार्तिक वदी १५ २४ यक्ष मा शासन देवतामों का विशद वर्णन (जैनधर्म के अभ्युत्थान के साथ२ भारतियो का लोकविश्वास और साहित्यिक परपरामे यक्ष लोगो का एक गोष्टीगत भावमें यहा अस्तित्व था। जन विश्वासके मुताबिक इन्द्रदेव चौबीस तीर्थकरो की सेवा के लिये २४ यक्षो को शासन देवता के स्वरूप नियुक्त करते हैं। प्रत्येक तीर्थकरके दाहिने पाव में यक्षमति की प्रतिष्ठाकी जाती है) १ यक्ष (शासन देवता)-गोमुख, श्वेताबम्र संकेत-वरदामुद्रा जयमाला और कुठार दिगम्बर संकेत-मस्तकपर धर्मचक्र का प्रतिरूप, वाहन-वृक्ष (श्वे.), गज (दि.), तीर्थकरऋषभदेव या आदिनाथ, २ यक्ष (शासन देवता)-महाक्ष, श्वेताम्बर सकेत-चतुर्मुख और प्रष्टबाहु, वरदा,गदा, जयमाला,पाश,निबु, अभय, अंकुश, -११४ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रा, फल और जयमाला, बाहन कूर्म, तीर्थकुर - सुविधिनाथ या पुष्पदंत १० यक्ष ( शासन देवता) ब्रह्मा, श्वेताम्बर, सकेत - चतुर्मुख त्रिनेत्र, अष्टबाहु निबुफल, गदा, पार्श्व, अभय, नकुल, ऐश्वर्य सूचक, दण्ड, कुश, और जयमाला, दिगम्बर सकेत- चतुर्मुख त्रिनेत्र, अष्टबाहु, धनु, यष्ठि, ढाल, खडग, और वरदा मुद्रा, वाहन - पद्म तीर्थङ्कर शीतलनाथ ११ यक्ष ( शासन देवता ) ईश्वर ( दि०) वा यक्षेत ( श्वे० ) श्वेताम्बर सकेत - त्रिनेत्र, चतुर्वाहु, नेवला, जयमाला, यष्ठि और फल दिगम्बर सकेत - त्रिनेत्र, चतुर्बाहु त्रिसूल, यष्टि, जय+ माला और फल, वाहन वृषभ तीर्थकर श्रेयशनाथ, १२ यक्ष ( शासन देवता) कुमार, श्वेताम्बर सकेत चतुर्बाहु, निंबु, शर, नकुल और धनु दिगम्बर सकेत त्रिशिर, षड हस्त, धनु, नकुल, फल, गदा और वर मुद्रा, बाहन - श्वेतहस, तीर्थंकरवासुपूज्य १३ यक्ष ( शासन देवता ) सम्मुख (श्वे) या श्वेतम्मु ( दि०) श्वेताम्बर सकेत - षडानन, द्वादशवाहु, फल, थालिना शर, खडग, पाश जयमाला, नकुल, चक्र. बघन फल, अंकुश मौर अभय मुद्रा, दिगम्बर सकेत- चतुर्मुख, अष्टबाहु, कुठार, चक्र, तलवार, ढाल और यष्टि आदि वाहन मयूर, तीर्थंकर विमलनाथ १४ यक्ष ( शासन देवता ) पाताल, श्वेताम्बर सकेत त्रिमुख, षडवाहु, पद्म, खडग, पाश, नकुल फल, और जयमाला. दिगम्बर सकेत - त्रिमुख, बडबाहु, अकुश वर्च्छा, धनु, रज्जु, लगल, फल और त्रिफला विशिष्ट सापका एक चन्द्रातप. वाहन सुसु तीर्थंकर अनंतजित था अनंतनाथ, १५ यक्ष ( शासन देवता ) किन्नर श्वेताम्बर सकेत – त्रिमुख, षडवाहु, निव; ऐश्वर्य सूचक, दण्ड, अभय, नकुल, पद्म प्रौर - ११६ - Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्माला; दिगम्बर सकेत भिमुख, पदबाहु, माबिज अंकुश, जयमाला मोर सरद मुद्रा, वाहन-कर्म (श्केल)-मीन (दि०) तीर्थकर-बर्मनाथ; १६. यक्ष (शासन देवता)-गरुड (वे.)मा, किपुरुष(दि.) श्वेताम्बर सकेत-निव, पदम, नकुल और जयमाला दिगंबर संकेत---सर्प,पाश और मनुष, बम्हना, बरह (ने..) मजा (दि.)तीपंकर-शांतिमाय, २५. यम(शासन देवता)-गन्धर्व, श्वेताम्बर सकेस- स्तुबाहु घरद मुद्रा, पाश , निंबु , अंकुश, दिगम्बर सकेत....सर्प, पाया और धनुष, वाहन-विहगम , (दि०)हस (श्वे.)तीयंकर कुमनाम १८. यक्ष (शासन देवता)-यक्षेत (स्वे.) का स्वेद्ध (दि.) श्वेताम्बर सकेत-पडानन द्वादशबाहु , निंबु शर, सड़म, मवा; पाश, अभय मुद्रा, मकुल, नकुल, मनु, फल, बी , अकुश और जयमाला दिगम्बर सकेत-षडानन, बादशबाहु, बज पाश; गदा, अकुश, बरदा मुद्रा, फल, शरमौर पुष्पहार; वाहन-कम्बु (दि०) मयूर श्वे.) तीर्थकर-मरनाथ १६. मक्ष ( शासन देवता) कुबेर, श्वेताम्बरसकेत-चतुर्मुख अष्टबाहु, वरदा, कुठार वर्णी, अभय , निंबु शक्ति, गदा और जयमाला, दिगम्बर सकेत--चदुर्मुख ; अष्टबाहु, ढाल, धनु, यष्टि, पब, बड़म, कालिमा, पास और धरता मुन्न, बहन गज; तीर्थकर-मल्लिनाथ २. (शासन देवतम) - वरुण; स्वेतार संकेत-चित्र याटशिर, बटाकुत केश, पष्ठबाहनिंबू, ऐश्वर्य सूचक दंड; शर, रा, कुन, पप, अनुष, भोर कुमार, दिसम्बर सकेत-त्रिनेत्र, अष्टसिर, बाटावृक्ष केष, कर्तुबह ढाका सहप फल भोर करमा मागाहमा जीर्थकर-मुस्सुिबत २६. यम (शासन देवस) भूकुटी (स्वे) या दिम दिल Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर संकेत चतुर्मुख, प्रष्टबाहु, निंबु, वर्च्छा, ऐश्वर्यं सूचक, दड, कुठार; नकुल ; वज्र, जयमाला, दिगम्बर सकेतचतुर्मुख; प्रष्टबाहु ; ढाल; खडग, धनुशर, प्रन्कुश; पद्म; यालिमा, और वरदा, वाहन - वृषभ, तीर्थंकर नामीनाथ ; २२. यक्ष ( शासन देवता ) - गोमेघ ( श्वे) या सर्वाहण ( दि०) था पुष्पजान ( दि०) श्वेताम्बर संकेत – त्रिमुख, षडबाहु; कलम्बु; कुठार ; यालिमा, नकुल, त्रिशूल; प्रोर वर्च्छा; दिगम्रर सकेत - त्रिमुख, षडबाहु, हातुडी, कुठार, यष्टि, फल वज्र और वरदा मुद्रा, वाहन मुद्रा-नर (श्वे) पुष्पस्य ( दि०) तीर्थंकर_नेमीनाथ २३ यक्ष ( शासन देवता) पाश्वं (श्वे० ) या धरजेन्द्र (दि०) श्वेता सकेत - सर्पाकार, चतुंबाहु, नकुल, सर्प निबू पोर सर्प, दिगम्बर सकेत-सर्पाकुति, सर्प, पाश और वरदा, वाहन कर्म, तीर्थंकर पार्श्वनाथ २४ यक्ष ( शासन देवता ) मातन्त्र, श्वेताम्बर सकेत - द्रविवाह नकुल, और निंबु, दिगम्बर सकेत - द्रविवाहु वरदा मुद्रा और निंबू, मस्तकोपरि चर्मचक्र सकेत, वाहन – गज, तीर्थंकरमहावीर या पार्श्वनाथ, २४ बक्ष या शासन देवियों का वर्णन [ यक्षी या यक्ष मूर्ति प्रत्येक तीबंकर के बाये चाश्वमे रखी जाती है) १ यक्षी या यक्ष- ऋषभदेव या प्रादिनाथ, श्वेताम्बर सकेत. भ्रष्टबाहु, वरदा मुद्रा शर थालिया, पाश, धनु, वज्र और अकुश, दिगम्बर सकेत - द्वादश या चर्तुबाहु, म्राठ थालियां, मिबफल, वरदा मुद्रा और दो वज्र, वाहन गरुड, यक्षी या यक्ष - चक्रेश्वरी (श्वे) या मप्रतिचक्र दि. २. यक्षी या यक्ष- प्रजितनाथ, श्वेताम्बर सकेत - वरदा मुद्रा पाश, तुरन्जफल, और प्रकुश, दिगम्बर सकेत_वरदा, अभय -११५ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रा, शंख धौर थलिमा, वाहन बीहाहन ( दि०) वृषभ श्वे ० बक्षी या यक्ष, प्रजित वाला (श्वे० ) या रोहिणी [दि०] ३. यक्षी या यक्ष-संभवनाथ, श्वेताम्बर सकैत चर्तुबाह, वरदा, जयमाला, फल और प्रभय मुद्रा, दिगम्बर संकेत-षड़ बाहु, चन्द्राकुति विशिष्ट कुठार, फल, खडख धोर वरदा, मुद्रा से सुशोभित, वाहन - मेष ( (वे ० ) मयुर ( दि० ) यक्षी — दुरितारि (श्वे ० ) या प्रज्ञप्ति (दि० ) ४. यक्षी - अभिनन्दन नाम, श्वेताम्बर सकेत — चर्तुबाहु, वरदा, पाश, सर्प, और अकुश, दिगम्बर संकेत- चतूंबाहु, सर्प पाश, जयमाला चौर फल, वाहन - हंस ( दि०) पद्म (इवे ० ) यक्षी - कलिका (श्वे ० ) वज्र शुखला (दि०) ५ यक्षी - सुमतिनाथ श्वेताम्बर संकेत चर्तुबाहु, वरदा, पार्श्व पर्प, धौर प्रकुश दिगम्बर संकेत - चर्तुबाहु, पाश जयमाला प्रोस फल, वाहन हस ( दि०) पद्म ( श्वे० ) यक्षी महाकाली (श्वे ० ) पुलवदत्ता (दि० ) ६. यक्षी पद्मप्रभ, श्वेताम्बर सकेत - चर्तुबाहु, शारद, वीणा, धनु और अभया, मुद्रा, दिगम्बर संकेत- चर्तुबाहु, खडग, बर्च्छा फल, और वरमुद्रा, वाहन नर (श्वे० ) अश्व ( दि०) यक्षी - प्रच्युता (श्वे ० ) श्यामा (श्वे०) और मनवेगा ( दि०) - ७ यक्षी – सुपार्श्वनाथ, श्वेताम्बर संकेत - बरदा, जयमाला, बच्छ, र अभयमुद्रा, दिगम्बर संकेत त्रिशूल फल, बरद और घटी, वाहन-गज (श्वे०) वृषभ ( दि०) यही ( शाता) (श्वे ० ) काली (दि०) --- ८ यक्षी - चन्द्रप्रभ, श्वेताम्बर संकेत- खडग धनु, गदा, वच्छ बौर कुठार, दिगम्बर सकेत थालिया, शर, पाश, ढाल, त्रिशूल खडग धनु, प्रादि, वाहन - मार्जा (श्वे ० ) हंस (श्वे ० ) महेश दि०) यक्षी कुटी (श्वे ० ) या ज्वालमालिना - ११६ MAZON - Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या मानसी ( दि०) १६ यक्षी - शांतिनाथ, श्वेताम्बर सफेद चतुर्बाहु, पुस्तक, पद्म, कमण्डल और पद्मिनी, मुकुल दिवम्बर, सकेत थाली, फल, खड़ग और वरद, वाहन-पदम (श्वे), केकी ( दि०) यक्षी (निर्वाणी ) ( श्वे०) या महामानसी ( दि०) १७. यक्षी कुथुनाथ बाला (श्वे०) या. अच्युता (श्वे० ) या विजया ( दि०) श्वेताम्बर सुकेत- चतुर्वाहु, तुरंज, फल, बर्च्छा, मुसलि, पद्म, दिगम्बर सकेत सख, खडगु, थाली और वरदामुद्रा, वाहन मयुर (श्वे ० ) कृष्ण, शूकर ( दि०) यक्षी बाला (श्वे०) या प्रच्युता (श्वे०) या विजया (दि०) १८ यक्षी धरनाथ, श्वेताम्बर सकेत- चतुर्वाहु, निबुफल, पद्म युगल, जयमाला - दिगम्बर सकेत-सर्प, वज्र मृग और बरदामुद्रा,' वाहन - पद्म ( श्वे ० ) हस (दि०) यक्षी - धरणी (इवे ० ) या पर१ (दि०) १६ यक्षी मल्लिनाथ, श्वेताम्बर सुकेत वरदा, जपमाला, निंबु और शक्ति, दिगम्बर सकेत - निंबु, खड़ग, शल धौर बरदा मुद्रा, वाहन - पद्म (इ० ) केशरी (दि०) यक्षी वैरोता (श्वे० ) अपराजिता ( दि०) + 470 २० यक्षी - मुनिसुव्रत, श्वेताम्बर सकेत- चतुर्वाहु, वरदा, जपमाला निंबु, त्रिशूल या कुन्भ दिवम्बर सकेत ढाल, फल, खड़ग Y 7 C और वरदामुद्रा, वाहन - मुद्रासन (०) कृष्ण सर्प (दि० ). यक्षी – नरदत्ता (श्वे०) या बहुरूपिणी (दि.) २१ यक्षी - नमीनाथ, श्वेताम्बर, सकेत- चतुर्वाह, वरदामुद्रा, खड़ग, निबुफल, पौर व दिगम्बर, सकेत- जपमाला, यष्टि, ढाल और खड़ग वाहन- हँस (श्वे०) सुस्र (दि०) यक्षी गाधारी (श्वे०) या चामुंडा (दि) २२ यक्षी नेमिनाथ, स्वेताम्वर संकेत मात्र वेन्वा पा शिशु और अकुश दिगम्बर सकेत- ग्राम्र ? पेन्था घोर शिशु, # - १११ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहन-केशरी (श्वे.) यक्षी-अम्बिका मा कुष्माण्डी (श्वे.) या पाम्रा (दि.) २३. यक्षी या यक्ष-पार्श्वनाथ, श्वेताम्बर (सकेत-पद्म पाश, फल और अकुश, दिगम्बर संकेत (क) चतुर्वाहु होनेसे अकुश, पद्म युगल (श्वे.) षड्वाहु होनेसे, पाश खडग,चक्र, वर्णी, वक्रचद्र गदा और यष्टि (ग) अष्टवाहु होनेसे पाश भादि (घ) चतुविश वाहु होनेसे शख,खडग, चक्र, वक्रचन्द्र, पद्म नीलनलिनी, धनुष, वर्णी, पाश, घटी, कुशचास, शर, यष्टि, ढाल, कुठार, त्रिशूल, वज्र, पुष्पहार, फल, गदा, पत्र, वृ त, वरदामुद्रा आदि २४ यक्षी-महावीर या वर्धमान, श्वेताम्बर सकेत-चतुर्वाहु, पुस्तक, निंबु फल, अभय मुद्रा और पुस्तक, दिगम्बर सकेतपरदामुद्रा और पुस्तक, वाहन- केशरी (श्वे०) (दि०) यक्षी सिद्धयिका नवग्रह या ज्योतिष्क देवों का वर्णन १. अंचल-पूर्व,ज्योतिष्कदेव-सूर्य, वाहन सप्ताश्व चालित थर श्वेताम्बर सकेत- पद्म युगल दिगम्बर संकेत-+ + २ अचल-दक्षिण, पूर्व विष्क-शुक्र, वाहन, सर्प (श्वे.) स्वेताम्बर सकेत-कुभ दिगम्बर सकेन-त्रिरन्ग सूत्र, सपं, पाश, भोर जपमाला ३. अचल-दक्षिण, ज्योतिष्क देव-मगल, वाहन-पृथ्वी (श्वे०) स्वेताम्बर सकेत-मुतखनन यत्र वरद, वी , त्रिशूल, गदा, दिगम्बर संकेत- केवल वो, ४. अंचल-दक्षिण; पश्चिम; ज्योतिष्कदेव-राहु, वाहनकेशरी (श्वे०) श्वेताम्बर सकेत-कुठार दिगम्बर सकेतवैजयन्ती, ५. अचल-पश्चिम; ज्योतिष्क देव-शनि, वाहन. कर्म; खेताम्बर संकेत कुठार, दिगम्बर सकेत-त्रिरन्ग सूत्र; -१२२ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. अचल-उत्तर; पश्चिम ज्योतिष्क देव.चन्द्र ; बाहन दश अश्वद्वारा पाखित प श्वेताम्बर सकेत-अमृत पूर्ण कम, दिगम्बर संकेत-अज्ञात; ७. अंचल-उत्तर; ज्योतिष्क देव-युष, वाहन-हंस (श्वे.) सिंह (श्वे.); श्वेताम्बर संकेत-पुस्तक; खडग ; ढाल, गदा, परद, दिगम्बर सकेत-अज्ञात ८. अचल-उत्तर पूर्व,ज्योतिष्कदेव-बृहस्पतिवाहन-हंस (श्वे.) पद्म (दि.) श्वेताम्बर संकेत- पुस्तक; जपमाला; यष्टि, कमडल, वरद; दिगम्बर सकेत-पुस्तक; कमंडल, और जपमाला; अचल-शासन के लिये खास अचल नहीं है, जेतिष्क देव-केतु, वाहन-गोखर सर्प (श्वे०); श्वेताम्बर सकेतगोखर सर्प, दिगम्बर संकेत... प्रज्ञात भूतनी (सरस्वती) और षोडश विद्यादेवी का वर्णन (यह विश्वास किया जाता है कि श्रुतदेवी या सरस्वती समस्तविद्या की प्रधिष्ठात्री हैं। दूसरे देव देवियो के पहले उनकी पूजा समाज होती है। कार्तिक मास शुक्ल पंचमी तिथी में जैन लोग उनकी माराधनाके लिये एक विशेष उत्सव प्रायोजन करते हैं और उनसे यह उत्सव ज्ञान पचमी कही जाती है) १. देवी-श्रुतदेवी या सरस्वती वाहन-हस (श्वे. )केकी (दि.) श्वेताम्बर सकेत-चतुर्वाह; पद्म (वरदा या वाद्ययत्र सितार) पुस्तक, जपमाला, दिगम्बर सकेत-श्वेताम्बर संकेतका सदृश १. देवी-रोहिणो, वाहन-गो (श्वे०) श्वेताम्बर सकेत-शख; जपमाला; धनुष और शर; दिगम्बर सकेत-कुंम; शख,पदम भोर फल ३. देवी-प्रजापनि; वाहन-मयूर (श्वे.) श्वेताम्बर संकेतपद्म; वज़, चिरद; निंबुफल; दिगम्बर सत-खड़ग और थानी Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. देवी वज्राकुश, वाहन-मज ( स्वे०) विमान (दि०) श्वेताम्बर स केत-खण्डग; बज्र ; ढाल; वर्च्छा, वरद, निंबु फल, अंकुश, दिगम्बर स केत प्रकुश, और वाद्य यंत्र सितार ५. देवीप्रतिपत्र (श्वे ० ) या अम्बुनदा ( दि०) वाहनगरुड (०), मयूर ( दि०), श्वेताम्बर सकेत चतुवहु मैं थाली, दिगम्बर से केत-खडग और वर्च्छा, ६ देवी - पुरुषदत्ता - बाहन - महिष ( श्वे० ) ; मधूर ( दि०) श्वेताम्बर स के खढग; ढाल, वरद और निबुफल, दिगम्बर स के वज्र और पद्म -- ७. देवी काली, वाहन - मृग ( दि० ) ; पद्म ( श्वे० ) ; श्वेताम्बर संकेत द्विवाहु होनेसे वरद धौर गदाधारण चतुर्वाहु होनेसे जपमाला, गदा, वज्र और अभयमुद्रा, दिगम्बर स के खडग और (यष्टि से हस्त प्रशोभित ) G.. देवी-महाकाली ; वाहन - नर ( श्वे ० ), शव दि० ) ; बेलाम्बर सकेत - जपमाला, बज्र घटी प्रोर श्रभय; दिगम् बरस के पद्म ६, देवी- गौरी; वाहन - कुभीर (श्वे ० ) ( दि०) ; श्वेताम्बर सकेत - चतुर्बाहु ; वरद, गदा, जपमाला; स्थल पद्म; दिगम्बर स के पद्म १०. देवी गान्धारी, वाहन-पद्म ( श्वे०) कूर्म ( दि०) : - श्वेताम्बर सकेत यष्टि; वज्र, वरद, प्रभय; मुद्रा, दिगम्बर स के खडग और थाली • , - ११. देवी - महा ज्वाला या मालिनी, वाहन मार्जार (श्वे ० ) शुकर ( श्वे०), महिष ( दि० ), श्वेताम्बर स केव वह अस्त्रधारी, दिगम्बर स क्रेत-ध; ढाल; बड़ग मोर वाली १२. देवी - मानवी; वाहन-पद्म ( श्वे० ) : शुकर ( दि०) । श्वेताम्बर स केत- चतुर्बाहु, वरदा; जयमाला मौर बृक्षशाला - १२४ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिक-पश्चिम,किपाल-बउण,वाहन शिशुमार(दि.)(श्वे०) मीन (श्वे.)श्वेताम्बर सकेत-पाश और प्रतिरूपक स्वरूप के-सागर धारण दिगम्बर स केत-मुक्ता,शवाल से खीचित और पाश धारण ६. दिक उत्तर-पश्चिम दिकपाल-वायू, वाहन-मृग (श्वे.) (दि०) श्वेताम्बर स केत-वज्र मोर वैजयती,दिगम्वर स केत काष्ठास्त्र ७. दिक-उत्तर, दिकपाल-कुवेर, वाहन-नर (श्वे०) रथ(दि.) श्वेताम्बर स केत रत्न और मुद्गर दिगम्बर स केत-द्विवाहु बनना चतुर्वाहु पुष्पक विमानमें पारोहण ८. दिक-उत्तर पूर्व-दिकपाल-ईशान,वाहन-वृषभ (श्वे०) (द०) श्वेताम्बर स केत-धनु, त्रिशूल, सर्प, दिगम्बर स केत धनुष, त्रिशूल, सर्प मौर खपरी, ८. दिक- प्रवीचल, दिकपाल-ब्रह्मा, वाहन-हस (श्वे.) ज्वेताम्बर सकेत-चतुर्वाहु, पुस्तक और पद्म, दिगम्बर स केत १०. दिक-पाताल, दिकपाल नाग, वाहन-पद्म (श्वे.) श्वेताम्बर स केत-हायमें सर्प धारण दिगम्बर सकेत-अज्ञात कतिपय विक्षिप्त देववेवियोका वर्णन १. देव-हरिनेगमेषीया नैगमेश (सन्नाग जन्मवर प्रदानकारी) वाहन अज्ञात, श्वेताम्बर स केत- छागबशिर दिगम्लर सकेत अज्ञात २. देव-क्षेत्रपाल [क्षेत्ररक्षाकारी) वाहन-श्वान (श्वे०) श्वेताम्बर सकेत-अटा, केश, सर्प, पवित्र, उपवीत, विशवायु अस्त्र से सज्जित षड्वाहु होनेसे मुद्गर पाश. डम्बरु, धनुष, अकुश और गैरिकधारण, दिगम्बर स केत-अज्ञात ३. देव-गणेश चतुनीथ, वाहन मूषिक (श्वे०) श्वेताम्बर स केत-हस्तो को सख्या, दोसे चार, ६, ७, १२ पौर ११२ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक रवर्तन होता है; कुठाय; वरद, मोदक पौर पमय, दिगम्बर संकेत-मज्ञात ४. श्री या लक्ष्मी (धनदेवी) वाहन-गज (श्वे०) श्वेताम्बर सकेत.- नलिनी, दिगम्बर स केत-चतुर्बाहुः पुष्प पौर पद्म ५. देव- शांतिदेव ; वाहन-पद्म (श्वे०) श्वेताम्बर स केतचतुर्बाहु ; वरद, जपमाला,कमडलु मौर कलस दिगम्बर सकेतप्रज्ञात। इस प्रकार जैनकलामें मायोजित देवी देवतापोंका विव. रण है । अब हम यहाँ पर जैनकला पर मालोचनात्मक दृष्टिपात करना भी प्राबश्यक समझते हैं । निस्सन्देह भारतीय संस्कृतिके दीर्घ इतिहास में जैनकला और संस्कृति एक अविच्छेद्य अङ्ग है। लिखित किताव छोड़कर जितने तरह के स्थापत्य और भास्कयं केबीच जैन कलाव सस्कृति का परिचय मिलता है,उसे विश्लेषण करने से जनधर्मके बारेमे बहुतसे तथ्य मालूम होजाते है । कलाही एक तरहकी सार्वजनिक भाषा है । जिसके माध्यममेजनसाधारण धर्म के बारे में बहुत बातें जान सकते है । इन विविधि प्रकारके कला कार्य विविध धर्मावलम्बी बहुतसे अमीरों और राजाओं की अनुकूलतासे रचित होने के कारण मौर स्पष्ट न होनेसे जैन सस्कृति और दर्शन के बारे में कोई बात बताना मासान नहीं हो सकती। भारत के जिन स्थानों में जैन धर्मने प्रसार लाभ किया था उनमे से विन्ध्य पहाड के उत्तर भाग या दाक्षिणात्य के कुछ जगह समग्र मध्य प्रदेश और मोड़िसा प्रधान है । भासाम, वर्मा, काशमोर, नेपाल, भूटान, तिब्बत मोर कच्छ वगैरह स्थानो ने जैन सस्कृति का कोई उल्लेख योग्य स्मारक नहीं है। समाज में धर्म को अमर मौर जनप्रिय करने के लिए शिल्पियोने जो उल्लेखनीय सहयोग दिया और कार्य किया है वह सचमुच चिरस्मरणीय रहेगा शिल्पियो ने अपनी सब तरह की Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलासृष्ठि के द्वारा प्रत्येक धर्मकी जो भावपूर्ण अवतारणा की है वह इस युग के ऐतिहासिको के लिए इतिहास लेखन के सारे उपादान देती है। जैन धर्म, वौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म के रूपायन के बीच ऐसा एक अटूट ऐक्य और पद्धति का एक है, जिस से एक से दूसरे को जुदा कर देने के लिए सीमा रेखा' काटना बिल्कुल प्रासान नहीं है। जिस शिल्पीने जैनमूर्ति या चैत्य बनाया है, उसीने कही बौद्ध धर्म की अनेक प्रतिमायें और विहारो का निर्माण किया है, क्योंकि दोनों धर्मं परस्पर एक साथ प्रचारित प्रौर प्रसारित होने से रचित शिल्प कला में कला की पद्धति प्राय एक ही तरह की देखने को मिलती है। प्रा. ऐतिहासिक संस्कृति पीठों में जैन धर्म के स्मारक देखने को न मिलने पर भी मोहनजोदारो से मिले हुए चिन्ता मग्न नग्न पुरुष - मूर्तियो को जनतीर्थङ्कर कहा जा सकता है । हडप्पा से मिले हुए नग्न पुरुष मूर्ति के साथ अङ्ग गठन से विहार प्रदेश के लाहोनिपुर प्रान्त से मिले हुए नग्न जेन मूर्ति का मैल एसा अधिक है कि हड़प्पा के प्राचीन मूर्ति को जैन कला कहकर ही ग्रहण किया जा सकता है । उस विषय में इतना अनुमान किया जा सकता है कि बहुत प्राचीनकाल से एतिहासिक युग में भारतीय कला धोरे धीरे प्रवेश कर देश काल और सामयिक सामाजिक वेष्टनी के बीच नए नए रूप में प्रकाशित हुई है । इस रूपायन में अलग अलग धर्म और उसका प्रतीक और प्रतिमा का विभिन्न परिधान, प्रायुव और बाहन वगैरह से जो सूचना मिलती है वह एक निरवच्छिन्न ऐक्य का निर्देश देती है। जैन और बौद्ध धर्म के पृष्ट पोषक तत्कालीन धनी भोर राजाम्रो के निर्देश से इस कला का प्रकाश न होने से आज हमें कोई एतिहासिक प्रमाण विभिन्न धर्म के मिल नही सकते हैं । -१२८ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर्य युग में जो सब जेऩ स्थापत्य और भास्कर्य के रूपायन देखने को मिलते हैं, उनमें से बिहार के बराबर और नागार्जुन पहाड़ में बनी हुई कई गुफायें (गुहा) उल्लेखनीय है । ऐतिहासिको ने प्रमाणित किया है कि इन गुफाओंों को तत्कालीन मौर्य राजानो ने खुदवाया था । उनके समय में और कई जैन मन्दिर तेयार हुए थे । 1 सुद्ध युग मे जैनकीर्ति रहने वाले उल्लेख योग्य स्थानो मे ओडिसा की खडगिरि गुफा और उदयगिरि गुफा सर्व प्रधान हैं । चेदिवशज खारवेल के अनुशासन प्रशस्ति यहा खोदित हुई हैं । खीष्ट पूर्व पहली मती में यह अनुशासन खोदित होने की बात, खोदित लिपि से प्रमाणित हैं । सम्राट खारतेल नन्दराजा द्वारा अपहृत 'जैन' मूर्तिको मगध अधिकार करके फिर ले प्राए थे । राजा खुद तीर्थकरो के प्रति अनुरक्त रहने से बे और उनकी रानी दोनो ने खुशी के साथ इन सन्यासियो के विश्राम के लिए खडगिरि की गुफाये खोदित कराई थीं । इस गुफा की निर्माण रीति चंत्य निर्माण रीति से अलग है छोटे छोटे चैत्य मे रहने वाले विशाल कक्ष ( Hall ) यहाँ देखने को नही मिलता । हाथी गुफा में खोदे हुए एव मंचपुरी गुफा के नीचे के महल मे होने वाले भास्कर्यं दुसरी जगह होने बाले स्वल्प स्फीति भास्कर्य से कुछ अनुन्नत होने पर भी उसको स्वाधीन गति और रचना की ओर से यह वरदूत भास्कर्य से अधिक दृढता ( Force ) के साथ खोदा हुम्रा है, यह अच्छी तरह जान पड़ता है । ई ० ० पू० पहली शताब्दी तक अनत गुफा, रानी गुफा श्रौर गणेश गुफाओ को भास्कर्य मे जैन धर्म की सूचना उल्लेख योग्य है । प्रनन्त गुफा में चार घोड़ े लगे हुए गाडी में जो मूर्ति देखने को मिलती है भौर जिसे सूर्य देव नाम से पुकारते -१२६ ww Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिसित मतोच पधर्म वमे वात-विहित-गोपूर-पाकेर. निसेवम पटि सखार यति कलिग नगरी खिवीरे"सितल तड़ाग प्राडियो च वधापयति सवूयान पटि सपन च कारयति पनतिसाहि"सत सहसेहि पकतियो-रजयति'"दुतिय च वसे अचि. तयिता सातकनि पछिमदिसं हय-गज-नर-रप-बहुल दंड पठापयति कलिंग"गताय च सेनाय वितासेति प्रसक नगरम् . ततिये पुनवसे धव-वेद-बुधो दप नत-गोत-वादित-सदसनाहि उसव समाज-कारापनाहि च कीडापयति नगरीम् । तथाचवुये वसे विजाघराधिवास अरकतपुरम् २ कलिंग पुव-राजानाम् धमेन व निति ना व पसासति सवत धमकुटेन'५ भीततसिते च निखित-छत-भिङ्गारे हितरतन-सापतेये सव. रठिक-भोजक पादे वन्दापयति पचमे च दानिवसे नंदराज तिव 13 Prinsep-मते' 14. B. Lsl Indraji-'पधम' 15. Dr. B. M. Batua-'गभीरे' 16.Dr. K. P Jayaswal-'पणती, साहि' 17. Indraj!-भूलसे इजयनि' पढा था । 18 K P. Jayaswal और Barna-'सतकणिम् 19 K. P. Jayas wal-'कहुवेनास'और D. C: Sircarकहभैण' 20 D. C. Sircar-'असिक नगर' 21. Indraji-'ततियेच, 22. Indr]1-'इथ' Barua, Jayaswal पोर Sircar-'तथा' 23 D. C. Sircar- 'अहतपूर्व' 24. D. C. Sircar--'कलिंग पुद-राज' 25. Indrall-- 'यमकृटस' K. P. Jayaswal-'दितिधमकृट' 26. D.C. Sircar-'सतेय' Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - ससतमोघाटितम् तनुसूलियवाटाप णाडि नगर पवेसयति सतसहसेहि च खनापयति पासितो च भठेवसे राजसिरिसद. सयतो सद-कर वण अनुगह अनेकानि सतसहसानि विसजति पोर-जानपद सतमे च वसं प्रसि-छत-धज-रध-रखि-तुरगसत-घटॉनि सदति सदसन सद-मंगलानि कारयति सतसह सेहि। अठमे च३२वसे महता 3 सेनाय मधुर अनुपणे / गोरधार घातापयिता राजगहान पपोडोग्यति३४एनिन च कम पदान पनादेन-सभीत-सेन-वाहने विषमचितु मधुर अपयातो यवनराज सवधर वासिन च सदगहतिन च म पान भोजन च पान भोजन च सदराज भिकान च / सवगह पतिकान च शव ब्रह्मणां न च पान भोजन ददाति / कलिंग जिन पलवभार 27. Indrajl और Jayaswal-,तिदससतम्' Barua और Sirear-तिवसमत' 28. D.C Sircar-'राजमेय' 29 DC Sircar--'सतम' 30 B. M Barua--'वसे' 31. DC Sircar-इस पवित का अलग पाठ किया है और उनका पाठ अधरा है।। 32 Prinsep- 'च" पढा ही नहीं है। 33. Barua -'महति सेनाय' 14 Prinsep-राजगउम् उपपीडापयति' Indrajl राजगह नताम् पीतापयति' Jayas wal-'राजगहम-उपपीतापयति' Sircar 'राजगह उपपीतापयति' 35. Jayaswal- 'कमापदान' 36. B. M. Barua-'येवन उदो' Jayaswal-'यवन राज' 37. Jayaswal दिमित' या 'जिमिति' 38. Barua-'कलिंग याति' -136 -