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हो कर उनसे शादी करना चाहती थी, लेकिन कलिंग के राजा और दूसरे राजे भो प्रभावती को पाने के लिये लालयित ये फल स्वरूप लड़ाई छिड़ी, राजा प्रसेनजित ने लडाई के लिये पार्श्वनाथ की सहायता मांगी। प्राखिर पार्श्वनाथ ने लडाईमें कलिंग को हरा कर प्रभावती से शादी की । खण्ड़गिरि में अनन्तगुफा को पार्श्वनाथ की मूर्ति के ऊपर एक साथ है, यह उत्कलीय पार्श्वनाथ का एक खास चिन्ह है । महेन्द्र पर्वत की पार्श्वनाथ मूर्ति सहस्रसर्पों के फनो से प्राच्छादित है।
श्रमण भगवान महावीरजी ईश्वी पू० ५५७ में अपने जीवन की ४२ साल की उम्र में तीर्थंकर बने थे । ७२ सालकी उम्र में ईश्वी ० पू० ५२७ में उन्होने निर्वाण प्राप्त किया था । जृम्भिक नाम के गाव मे उन्होने केवल ज्ञान प्राप्त किया था मौर बारह वर्ष तक गंभीर चिन्ता श्रौर अन्तह ष्टि के साथ जीवन बिताने के बाद उनको ज्ञानलाभ हुआ, तीर्थंकरोमें उनका स्थान सर्वोत्तम है । कल्पसूत्र, उत्तरपुराण, त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र मोर बर्द्धमान चरित प्रादि जैनग्रन्थो में उनको जीवनी का विस्तृत वर्णन है। जैनधर्म में उनका स्थान प्रप्रतिहत मोर अद्वितीय है । २४ तीर्थं करो में श्रेष्ठ तीर्थंकर के रूपमें उनकी गिनती होती है । इसलिये उनका लाञ्छन 'सिंह' रहा है ।
जैनो के २४ तीर्थंकरों में से १४ तीर्थंकरोने मगध, भग तथा बंग में देहत्यागकर निर्वाणलाभ किया है। एक समय जैन धर्म पश्चिम भारतमें भी व्याप्त था, फिरभी मगध, अग, जग और कलिंग इस धर्मके मुख्य क्षेत्र थे । मगध तथा कलिंग के सम्राज्यका धर्म बन जाने के कारण देश में इस धर्मका महत्व जितना बढगया था बौद्धधर्मका महत्व उतना नही बढ़ा था ।
किसी भी धर्मके सुदूर विस्तारकी प्रतिष्ठा के लिये कमसे कम चार-पाच सदियोकी अपेक्षा है । शाक्यसिंह का वेदविरोधी
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