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के कारण पुरी, भुवनेश्वर तथा प्रल मन्दिरों में कल्पका रोपण किया गया है। ऐसा न होता तो मन्दिरके भीतर बटवृक्ष रोपण करने का कोई भी दूसरा प्राध्यात्मिक कारण नहीं था ।
प्रादि तीर्थकर ऋषभदेव हिन्दू पुराणों में विष्णु और शिव अवतार माने जाते हैं। उन्होंने अपने मुखमें पपर भरकर शेष जीवन कैलाश शिखर पर बिताया था अन्त में अब वंशवन में धवाग्नि प्रज्वलित हुई उसी में वे दम्ब हो गए । यह घटना फागुन कृष्ण १शी के दिन,हुई। इसीलिए जैनसोग इस तिष का पालन करते है। कालक्रम में हिन्दुभो ने भी इस तिरोभाव दिवस को एक व्रत माना मोर वे उसे व्रत विशेष के रूपमें मानते चले आ रहे है । यही व्रत शिव चतुर्दशी का जागर (उजागर) के नामसे प्रसिद्ध हमा। ऋषभदेव शिव अन्शीभूत थे यह व्रत उसका एक अच्छा प्रमाण है । इस व्रतकी प्रानिक प्रवृनि जो भी हो, पर है यह एक जैन पर्व ही जो हिन्दू प्राचारमें मोत प्रान हो गया है।
पडोसा जैनधर्मका एक प्रधान पीठस्पन है। यहा के प्रत्येक ग्रामम शिवालयको स्थापना है। इन मन्दिरोंके पुजारी ब्राह्मणेतर (परिघा)जातिके ही लोग होते हैं। उत्कलकी पुरपल्लियो में शिव चतुदशो एक प्रधान पर्व है । सुदूर अतीत से बैन पद्धति को का हिन्दूधर्म ने प्रात्मसात किया है ।
डासा का "विचित्र रामायण" एक पल्ली काव्य (लोक काव्य ) है अथवा इसे एक काव्य भी कहा जासकता है। इससे भी सीताके मुख से कविने किसी अलक्ष्य बटकी प्रार्थना करामी है।" उडीसा के कवि की इस मौलिकतामे मो जैवत्वका प्रभाव सन्निहित है। त्रिशूल और वृषन शिव के पिर साथी है। प्रादि तीर्थकर ऋषभदेव ने भी यही चिन्ह धारण किया था। ऋषभ ५ है वा ज्वट । हे बटश्रेष्ठ ।। मेरी विनती स्वीकार करा ।