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कलिंगको लाये गये थे। जैन शास्त्रमें है कि केवल चक्रवर्ती सम्राट ही कल्पवृक्ष लगानेके योग्य है । जिससे साफ मालूम पड़ता है कि जैन सम्राट खारवेल कल्पवृक्ष लानेके सर्वथा ही योग्य थे । राजत्वका काफी समय खारवेलने युद्धयात्रा और राज्यजयमें ही बीताया। जैन धर्मके उपासक होते हुऐ भी खारवेलने कैसे हिंसात्मक मार्ग अपनाया ? यह सोनेके बात है। जैन धर्मका मूलमन्त्र अहिंसा और जीवदया उनके राजनतिक और साम्राज्यवादी जीवनमें किसी प्रकार प्रभाव डालने में समर्थ नहीं हुआ ? इसका क्या कारण है ? यही खारवेन के व्यक्तिगत जीवन में एक प्रधान विशेषता है । भारतके जेन सम्राटोने हिंसाको जैन धर्मका मूलमन्त्र स्वीकार करते हुए भी और उससे अपनेको अनुप्राणित करते हुए भी उन्होने अपने राजसबधी लोकधर्म की पालना भी ठीक-ठीक ही की ! जैन राजस्व का यही प्रादर्श है !
जैन सम्राट महापद्म उग्रसेन श्रौर मौर्य साम्राज्यके प्रतिष्टाता चन्द्रगुप्त मौर्य प्रादि राजानोंने जीवन भर सग्राम की भावेष्टनी में कालयापन किया है, जिससे मालूम पडता है कि उनकी महिसा राजनीति में बाधक नही थी । म्रपरन्तु जैन सम्राट गण अपनेको विजयी वीर प्रमाणित करनेको प्राकाक्षी
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थे । खारवेलका मार्ग भी वही था । यद्यपि आप सच्चे जैन रूप में ही पैदा हुये थे । प्रापका जन्म जिस वशमें हुआ था; वह 'चेति' वंश भी जैन धर्मका परिपोषक था । अशोक की तरह खारवेलने जीवन के मध्यान्हमें एक धर्म छोड़ कर दूसरे धर्मको नहीं अपनाया । ई० पू० २६१ क कलिंग युद्धमें अशोक के व्यक्तिगत जीवन में एक महान् परिवर्तन होने के साथ साथ उनका राजनैतिक जीवन धमावभापन्न हो गया था । अशोक *- कल्पवृक्ष से भाव किच्छिक दान देने का होना चाहिये ।
1991