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________________ 'मिलता है कि पूर्वी भारतमें गौतमबुद्ध नामका कोई नामी पुरुष हमा था, जिसने वैदिक यागयज्ञ और जातिभेद के खिलाफ सपना मत प्रकाशित किया था, बस, मालोचना उसी बास्ते पर पागे बढ़ी। तब माना जाता था कि बौदधर्म से बैनधर्म की उत्पत्ति हुई है। पर्मन पण्डित जैकोबी और उनके मतको मानने वालोंने धीरे-धीरे इस धारणाका खण्डन किया,उनके मतमें बैनधर्म पहलेसे था। तथापि वह भी शाक्यमुनि बोवधर्म के समान वैदिकधर्मका विरोधी बताया गया था। लेकिन दसअसल यह धारणा गलत है । पडित लक्ष्मीनाराणजी ने भी भ. पार्श्वनाथ तथा उनकी साधनाके प्रति सकेत करके प्रालोचना करते हुए जैनधर्मको इस प्राचीनता तथा परम्परा के बारेमें बहुत सी सूचनाएं दी हैं । वस्तुतःजैनधर्म ससारमें मूल प्रध्यात्म धर्म है। इस देश वैदिक धर्मके माने के बहुत हो पहलेसे यही में जैनधर्म प्रचलित था। खूब सभव है कि प्राग्वैदिकोंमें, शायर द्राविडोमें यह धर्म था। बादमे इस धर्मकी साधनामें एक दिशा सभोग-स्पृहा का नाश करने के लिए कृच्छ.साधनाका मार्ग मोर दूसरी विशामें अतिरिक्त संभोग से ऊबकर त्याग करने का मार्ग प्रकाशित हो चुका था। शाक्यमुनि बुद्धने इन दोनोके वीचका मार्ग अपनाया था भौर वे अन्तिम जनधर्मके संस्कारकसे भारत में है। वह अपने को साफ २ 'जिन' भी कहते थ । शाक्यमुनि इतने बरक्यो हुए :इस मध्यम मार्गके कारण 'जिन शाक्यमुनि'लोक प्रियबने। यहा कहा जासकता है कि उनके द्वारा सस्कृत नमाव 'गीता' में गृहीत है। उदाहरणके तौर पर देखिये गीता बोलती है कि: "पुक्ताहार बिहारस्य पुक्तचेष्टस्य कर्मसु । गुस्तापाययोषस्य योगो भवषि सहा. गीता-पष्ठ अध्याय, १७ वा श्लोक।
SR No.010143
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Shah
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1959
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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