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किया जिसके लिए मिशन उनका आभारी है और लिखा कि इस वर्ष तो नहीं, किन्तु सभव है कि सन् १६६० में ऐसा अहिसा सम्मेलन बुलाया जा सके । मा० प्रधान मंत्री का यह आश्वासन अहिंसा के लिये एक विशेष महत्व का है।
कलिंग में जैनधर्म के लिये एक दूसरी गौरवशाली बात यह भी है कि वहाँ के सर्वश्रेष्ट और लोक प्रसिद्ध शासक कलिंग चकवर्ती सम्राट् खारवेल जैन धर्मानुयायी थे। कलिंग के राजवंश में जैनधर्म कई शताब्दियों तक मान्य रहा था । खारवेल जैसे वीर विजेता के आगमन की वार्ता को सुनते ही विदेशी यवन दमत्रयस (Demiterius) मथुरा छोड कर भाग गया था । सचमुच भारतीय स्वाधीनना के सरक्षक वीर खारवेल थे । किन्नु यह एक बडी कमी थी कि इन महान वीर शासक और कलिंग देशमें जैनधर्म के प्रभाव की परिचायक कोई भी पुस्तक हिन्दी में न थी । इस कमी की पूर्ति करने का विचार कई बार सामने आया, पर समय पर ही सब काम होते हैं ।
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संभवतः सन् १६५७ में किसी समय कटक के वयोवृद्ध विद्वान् डॉ० श्री लक्ष्मीनारायण जी साहू ने हमें लिखा कि वह 'उडीसा में जैन घ' विषयक थीसिस लिख रहे हैं, जिसके लिए उनको कई ग्रंथों की आवश्यकता है। मिशन का अन्तर्राष्ट्रीय जैन विद्यापीठ इस प्रकार की शोध को सफल बनाने के लिये ही है । अतः साहू जी को साहित्य भेजा गया और उनको पूरा सहयोग दिया गया । श्रखिर उनकी थीसिस पूरी हुई और उत्कल विश्वविद्यालय ने उसे मान्यता देकर साहू जी को डॉक्टर की उपाधि से विभूषित किया । यद्यपि उन्होंने इसे उडिया भाषा में लिखा था और उड़ियाभाषी जनों का अभाव होते हुए भी उसका प्रकाशन कटक से सुन्दर रूप में हुआ देखकर हमें लगा कि उडिया भाइयों में अपनी प्राचीन धर्म सस्कृति के प्रति कितना गहन आदर भाव है। इसी समय हमने डॉक्टर साहू को लिखा कि वह इसे हिन्दी भाषा में लिखें तो यह मिशन की विद्यापीठ द्वारा मान्य की जाकर प्रकाशित हो सकती है। हिन्दी का विशेष ज्ञान न रखते हुए भी उन्होंने हमारे सुझाव को स्वीकार किया और अपने मित्रों के सहयोग से इसे हिन्दी का रूपान्तर देकर राष्ट्रभाषा को गौरव न्वित किया है । अप्रेल ५८ को भोपाल के अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा सम्मेलन में