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● दो शब्द *
'सुपवत-विजय-चक्र- कुमारीपवते ॥१॥ १४
खण्डगिरि-उदयगिरि के प्रसिद्ध और प्राचीन हाथीगुफा शिलालेख के उक्त वाक्य में स्पष्ट कहा गया है कि कुमारी पर्वत से जैनधर्म का विजयचक्र प्रर्वतमान हुआ था । उसी शिलालेख से यह भी सिद्ध है किं कलिंग में अय-जिन ऋषभ की विशेष मान्यता थी- उनकी मूर्ति कलिंग की राष्ट्रीय निधि मानी जाती थी, जिसे नन्दराजा पाटलि पुत्र ले गये थे। किंतु खारवेल कलिङ्ग राष्ट्र के उस गौरव चिन्ह को
विजय करके वापस लाये थे । 'मार्कण्डेयपुराण' की तेलुगु आवृत्ति से स्पष्ट है कि कलिङ्ग पर जिस नन्दराजा ने शासन किया था वह जैन था। जैन होने के कारण ही वह अमजिनकी मूर्ति को पाटलिपुत्र ले गया था। इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि कलिङ्ग में जैन धर्म का अस्तित्व एक अत्यन्त प्राचीन काल से है। स्वयं तीर्थंकर ऋषभ और फिर अन्त में तीर्थकर महावीर ने कलिंग में विहार किया और जैन धर्मचक्र का प्रवर्तन कुमारी पर्वत की दिव्य चोटी से किया। भ० महावीर के समय में उनके फूफा जितशत्रु कलिंग पर शासन करते थे। उनके पश्चात् कई शताब्दियों तक जैन धर्म का प्रभाव कलिंग के मानव जीवन पर बना रहा; परन्तु मध्यकाल में वह हतप्रभ हुआ। फिर भी उसका प्रभाव कलिंग के लोक जीवनमें निःशेष न हो सका। आज भी लाखों सशक-प्राचीन श्रावक (जैन) ही हैं। पूज्य स्व० म० शीतल प्रसाद जी ने कलिंग, जिसे आज कल उड़ीसा कहते हैं, उसमें ही 'कोटशिला' जैसे प्राचीन तीर्थ का पता लगाया था, किन्तु उसका उद्धार आज तक नहीं हुआ है ! मत कहना होगा कि निस्संदेह कलिंग अथवा उड़ीसा जैन धर्म का प्रमुख केन्द्रीय प्रदेश रहा है और उसने वहां के जन जीवन को अहिसा के पावन रंगमें रंगा है । यद्यपि आज उड़ीसा में एक भी जैनी नहीं है, फिर भी उसका प्रभाव अब भी जीवित है। उड़ीसा सरकार के प्रधान मन्त्रीमा श्री डॉ० हरेकृष्ण मेहताब इस प्रभाव से अपरिचित नहीं है। वह स्वयं अहिंसा के एक जीवित प्रतीक हैं। उनसे जब अ० विश्व जैन मिशन ने यह निवेदन किया कि कुमारी पर्वत पर कलिंग की पूर्व परम्परा के अनुसार, एक हिसा सम्मेलन बुलाया जाय, तो उन्होंने इस सुझाव को पसंद