________________
दक्षिण कोशल प्रोर गगराडी । ये छ. राष्ट्र कभी एक चक्रवर्ती के अधीन रहते थे तो कभी स्वाधीन हो जाते थे । उस जमानेकी परिस्थिति और राजकीयविकासका यह हाल था। मगर अचरज की बात यह है कि इन राष्ट्रोंको सस्कृति और सभ्यता एक थी और एक ही मासे और एक ही क्रमके अनुसार इनका विकास होता रहता था ।
वस्तुत गगासे लेकर गोदावरी तक और पूर्वी समुद्र से लेकर दण्डकारण्य तक उत्कल विस्तृत था, कालक्रम से दक्षिणकोशल का कुछ प्रश उससे अलग हो गया और शेषका नाम त्रिकलिंग पड गया । इस नामको लेकर प्लीनी मँगास्तिनिस आदि विदेशी पर्यटकाने अपने अपने भ्रमणवृत्तान्तोमे उत्तर कलिंग, मध्य कलिंग और दक्षिण कलिंग का नामोल्लेख किया है ।
'उत्कलमे जैनधर्म'- कहनेका अर्थ व्यापक होना चाहिये । देश के भाचार-विचार, सस्कृति, धर्मग्रथ, काव्यपुरणादि साहि त्यिक ग्रन्थ, शिल्प, स्थापत्य प्रादि बातो पर किसी भी धर्मके प्रभावका विचार अवश्य होना चाहिये । यह युक्ति सिर्फ उत्कल के लिय नही, वल्कि किसी भी राज्य या प्रदेश के लिये लागू है । किन्तु उससे पहले उस धर्मके संस्थापक प्रचारक और धर्म की नीति के बारेमे विचार करना भी प्रावश्यक है। किसी भी धर्मकी प्रतिष्ठा, प्रचार, परिवृद्धि, प्रकाश और पराकाष्ठा उस धर्मकी महत्ता, उसके प्रचारको के साधुस्वभाव, विशिष्ट निर्मल जीवन तथा उच्च प्रादर्श प्रसग के क्रम अपने आप सामने श्रा जाते है । इस बात को सामने देखकर जंनधर्म की गवेषणा या अनुशीलन करते चलेगे तो हमे ईसाके पहले घाठवी सदी तक या और पीछे जाना होगा। भारत के इतिहासके वारेमें हमें ईसा के जन्म से पहले सातवी सदी तकका पूरापूरा विवरण ठीक रूप ३- कूर्मपुराण
-१६