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उपासक थे। अन्यथा कलिंग प्रषित करने के उपलक्षमें महापपने समग्र बातिके, देखके सपा स्वय अपने इष्टदेवको सुदूर पाटलीपुत्र नेजाने का प्रयास नहीं किया होता। यदि वह जैन धर्मावलम्बी न होते तो वह विनमूतिको नष्ट कर देते । परन्तु हाषीगुफा शिलालेखसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि सारखेलके मगषपर अधिकारकरने के समय सकप्रति ३.. वर्षोंक दीर्घ- . कालमें उपरोक्त मूर्ति पाटलीपुत्र में सुरक्षित रही थी।
नन्दराषाके कलिंग पर अधिकार करनेके बाद भी बैनधर्म उत्कलसे पन्तहित नहीं हुमा बा पौर नहीं ही उत्कलीयोंके द्वारा प्रबहेलित हुपा था । बल्कि विभिन्न राजवशोंकी पृष्टपोषकताके कारण भ. महावीर विनेन्द्रकी शान्तिपूर्ण मोर मैत्रीमय वाणी कलिंगके कोने-कोने में प्रचारित हुई थी। यह एक तथ्य है कि प्रशोकके समयमें मोर उसके बादमें मीनिंग बैनधर्मका प्रमुख केन्द्रस्वल था। 'चेति' राजवंक्षके साहचर्य
और सहानभूतिमई संरक्षणसे इस धर्मके संप्रसारणमें विशेष साहाय्य मिला था। बब उत्कल के इतिहास में महामेघवाहन कलिंगाधिपति खारवेलका माविभाव हुमा तब जैनधर्मको सिप पग्रगति प्रतिरोध खड़ा करना सभव ही न था। खरवेल स्वयं जैनधर्मके उपासक और प्रधान पृष्ठपोषक थे। हाथीगुंफा शिलालिपिसे यह प्रमाणित होता है कि नन्दराज कलिंग विषयके बाद जिस कलिंग जिनको यहा से लेगये थे, खारवेल उसी मूर्तिको पपने राजत्वकालके द्वादशवें वर्ष मग प्रौर मगध पर अधिकार करके कलिंगमे वापस लौटाकर लाये थे। इस सुअवसर पर शोभायात्रा निकालने की तैयारी की थी। खारवेलकी विराट सैन्यवाहिनी पौर कलिगके असंख्य नागरिकोने उस महोत्सबमें योगदान दिया था और कलिंग सम्राज्यके सम्राट् ही स्वयं उसके समर्थक एवं उत्सवको सुन्दर रूपसे सपन्न करने के लिये