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भाव तीन वर्ष पुराने शस्य (धान) से हैं जो उपज न सके 1 उसके चावलो द्वारा यज्ञ करना चाहिये । किन्तु इतने में हो यह प्रालोचना समाप्त न हुई । तीसरे व्यक्ति के द्वारा उसका समाधान कराने के लिये वे दोनो एक राजाके पास गये । उन की सभा में अनेक युक्ति एवं तर्क विवेचना के बाद नारद का मत यथार्थ रूपमे गृहीत हुआ । इसप्रकार पर्वतने पराजित होने पर दूसरे राजाके सहारेसे पशु हिंसा द्वारा यज्ञ करने के नये मत का प्रचार किया । नारद अहिंसा के प्रचार में लगे रहे । इस तरह हिंसा धौर प्रहिंसा के रूप के भेद से एक वेद की दो शाखाये बनी । प्रापस में यह दो शाखायें प्रशाखाम्रो भौर पल्लवी के सम्भार से परिवर्तित होकर पुरातन वट वृक्ष के प्ररोह की तरह स्वतन्त्र वृक्ष के रूप में परिणत होकर ब्राह्मण और जैन के नामसे अभिहित हुई । क्रमशः उभय गोष्टी की उपासना श्रीर आचार की प्रणाली भिन्न होने लगो और दोनो एक ही वृक्षके दो प्ररोह थे. यह बात स्मृति के बाहर चली गयी । यद्यपि जैन भी इस बातको मानते हैं कि भ० ऋषभदेवज) के ज्ञानसे प्रार्ष वेद रचे गये थे और नारद-पर्वत सवाद के समय तक भ० ऋषभ देवका प्रहिंसाधर्मं प्रचलित था । प्रतएव विश्वार से यह प्रतीत होता है कि मूल में ब्राह्मण और जैन- दोनो धर्म एक परिवार के है । जैनधर्म बौद्धधर्म से अधिक प्राचीन है। बौद्धोके धर्मग्रन्थो में लिखा हुआ है कि भज्ञातृपुत्र महावीरके शिष्यों ने अनेक वार म० बुद्धके साथ शास्त्रार्थ किया था । बुद्ध ने स्वय ही अनेक क्षेत्रों में निर्ग्रन्थ तथा प्राजीवको के मत का विरोध किया था। भ० महाबीरके सन्यासी होने के पहले से ही जैनधर्म प्रचलित था। पहले भनेको की धारणा ऐसी थी कि बौद्ध
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(1) Sacred Book of the East (Jain Sutras ( by Dr. Jacobi. Introduction,