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यह है जैनियाँका जो विभागका संकेत मय प्रतीक। जनमतके अनुसार जीव श्रेणों में विभक्त है । यथा:-बारकी, तियंच, मनुष्य और देवता । जिनकी प्रासुरी वृत्ति है और नरकोमेवास करते है वे नारकी है, पशु पक्षी या कीट-पतगादि के रूपमे जन्म लिया वे हैं तिर्यच,नर देहीं जीव है,ौरजो सूक्ष्म शरीरी वे है देवता। जैनियो की कल्पनन और दृष्टि से जीव, स्वर्ग, मयं पाताल सर्वत्र व्याप्त है । जैनियोकी सर्वभूत दयाका यही तात्पर्य है । स्वस्तिक इसीका प्रतीक है।
यह स्वस्तिक जनधर्म ग्रन्थों और मदिरों में अधिक दिखाई पडता है। जैनियोंकी अक्षत पूजामें यह चिन्हें आज भी दिखाई पड़ता है। स्वस्तिकके ऊपर तीन बिन्दु त्रिरत्न "सभ्यम् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मौज्ञमार्ग"का संकेत करते हैं। निरत्नके ऊपर अधमात्रा है और उसके ऊपर चन्द्रविन्दु का चिन्हें है । इसमें जीवका मोक्ष या निर्वाण की कल्पना स्फूर्त हुई है। इसमें तनिक भी संदेह नही कि स्वस्तिक जैनियोंका प्रादि चिन्ह है ।
जैन लोग देव पर्यायके जीवों को चार 'मांगो में पियक्त करते है। यथाः-१ भवनपति, व्यन्तरं, ३ ज्योतिष, वैमानिक। वे पाताल, मर्त्य, अन्तरीक्ष और स्वर्ग के अधिपति है। खण्डगिरिमें आज भी एक पाताल को और एक मर्थ की गुफा विद्यमान है।
" जैन तीर्थंकरो की कोत्ति अतुलनीय है। तीर्थकर है जो ससार रूपी घाट के पार पहुँचातेहैं अर्थात् जीवनकी नौका चलाने के लिये ठीक मार्ग बताते हैं। संवतीर्थकर क्षत्रिय परितु वे सन्यासी बनकर जगत्का श्रेष्ट मादर्श मार्ग दिखाते हैं। ऋषभ,
(५) 'नव भारत' जुलाई १९१० से अगृहीत. . (6) The Heart of Jainism by Mrs. Sinclair
Stevenson, P. 105.