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राजः स बर्द्धराजः 'स: 'इन्द्रराजः सः धर्मराज 'पश्यन न सुप विशेष कुशल' सर्व पक देवायतन संस्कार कारक प्रतिहत शाह वलः चक्रवरा प्राय वसुकुल विनर्गतो महाविजयो स्वेल श्रीः ।"
इस उद्धृत प्रकरण मे खारवेलको चौरित्रक महनीयताका परिचय भी दिया गया है । वह क्षमाशील, धर्म परिवर्द्धन के आधार और इन्द्र के समान न्यायविशारद थे । धार्मिक निष्ठांके ' केन्द्र खारवैल आध्यात्मिकता विकासके लिये सदाहित श्रीर कल्याण साधनमे लिप्त थे । उन्हें "सर्व पाषड पूजक " के नामसे प्रभिहित किया गया है। यहां इस उल्लेखमे प्रशोक के धर्मानुशीलन वृतिst छायासो मालूम होती है । अशोक की तरह खारवेल भो सबही धर्मीको समान दृष्टिसे देखते थे। केवल इतना ही नहीं वल्कि जैन होते हुए भी वह अन्य धर्मोके प्रति सम्मान प्रदर्शन करते थे । शिलालिपिका "सबय देवायतन संस्कार कारक" लेख इस मतको पुष्ट करता है। इसके साथ ही अपने राजत्वकाल में निस्संदेह खारवेल कलिगको श्री वृद्धि के लिए भी खुले हाथसे धन व्यय करते थे । यह विषय शिलालिपिसे पाया जाता है। सिर्फ जैनो के लिए श्रात्मनियोग नही करते थे, वेल्कि साम्राज्य की सभी प्रजाओ के सुख सावन के ''लिए काम करते थे। सामाजिक आचार-विचार में कोई कड़ी 'नीति नही थी ।
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दुर्भाग्यसे समय की प्रतिकूलताके कारण उस समय के मंदिर अब नही है, नहीं तो खारवेलकी महानताके वारेमे वे गवाही देते और उनके धर्मभावको साक्षात् कर दिखाते !
सचमुच खारवेल जंनधर्म के उज्वल मालोक स्तम्भ थे । उनकी पृष्ठपोषकतासे जैनधर्म अपनी स्थिति में अटल था । -६८