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________________ हुमा था। इन संघों में जैन साधकों के समान लोग संपवय रूपमें सभी सबमें बराबर हो रहकर लोगोंकी सेवा करते थे, arefoot प्रयोग और बांट इस लोकसेवा का मुख्य अवलम्बन था। इन संघों के साधक मोर सिद्धोंको थेय या स्थविर कहते थे। बेर या थेरपुस के माने होते है स्थविर पुत्र या साधु, 'पुत' बौद्धशब्द है मोर 'साधु' जेनशब्द है । इसीसे उत्कल का 'साधव' शब्द बना है । बौद्धधर्मके प्रचार के बाद ये साधु देश विदेश में थेरपुत्तके नामसे परिचित थे । ईसासे पूर्व दूसरी, तीसरी सदीयो में इन बेरपुतोके मिश्रमें होनेका प्रमाण हे । यत्रतत्र पहुँच कर मरीजों की सेवा करना इनका मुख्य काम था, प्रग्रजी Therapeutics (थेरापिउटिक्स) का प्रर्थ होता है भेषजविद्या । यह सभी जानते हैं । यह थेरापिउटिक्स शब्द प्राचीन प्राकृत थेरपुत्तिक से बना है । यहाँ रूमाल रखना चाहिये कि यह एक ग्रीक शब्द है जो उस जमाने में मिश्र से प्राया था । एसीन्स ईसा के जन्म के पहले पालेस्टाईन में इन घेरपुत्तो के समान कुछ लोग दलबद्ध होकर बसते थे, जिनको एसीन्स कहते थे । ये उनके समान थे । लेकिन इनकी एक खास विशेषता थी । ये मिलकर खेती करते थे लेकिन दोलत पर किसीका स्वतंत्र अधिकार न था । सबका हिस्सा बराबर था। यह एक बिद्दिष्ट जनविधि है । खुरधा के भोइवशीय राजानो ने बहु काल के बाद भी पुरी जिलेके ब्राह्मशासनो में १५९० ई० से रूपष्टरूपमें इस नीति का प्रयोग किया है, अब भी ग्रामकोठ' तथा देवोत्तर प्रादि में उस साम्यभाव का सकेत जीवित है । १- ग्रामकोठ- गाँव में जो काम समूहिक भित्तिमें होता है और जिस पर गांव का हरएक प्रादमी समान अधिकार रखता है ।
SR No.010143
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Shah
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1959
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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