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सम्मान प्रदर्शन करने के लिए, किन्तु मन्दिर में उनके बीच एक मूलनायक के नाम से स्वीकार किया जाता है। धन्य जैनियों के द्वारा वही मूलनायक परिवेष्ठित होकर मुख्य पूजा पाते हैं । वे ही मूलनायक कहकर मन्दिर में प्रधान देवता कहे जाते थे। मंदिर में जिनेन्द्र की उच्चासना ही जैनधर्म का परम्पचागत न्याय है । नवमुनि गुफा में पाश्वनाथ को मूलनायक के रूप में पूजा की जाती है । यह २४ जैन तीर्थंकरों के मानसिक विकार और इन्द्रियोंको जय करनेसे ही जैन धर्मावलम्वियोका नमस्य हुआ है। जैन लोगोंने सन्यासी व्रतको शांतिमय जीवनका प्रधान पद समझकर ग्रहण किया था। जैन तीर्थंकर पद्मासन या कार्बोत्सर्ग मुद्रा में स्थित होकर शिव की मूर्ति के समान दिखाई देते है । यह सादृश्य मर्थहीन नहीं है । किन्तु यही सादृश्य को केन्द्र कर हम कह सकते है कि जैनियो के यौगिक चालम्बनको अबलम्व करके शिव की प्रतिमूत्ति गठित हुई है।
यह इन्ही जैनतीर्थंकरो के भिन्नर चिन्ह है । प्रत्येकका यक्ष और यक्षिणी या शाशन देवता और ज्ञान प्राप्त वृक्ष भी भिन्न भिन्न हैं। कितने ही जिनेन्द्र उनके वश के प्रतीक को चिन्ह के रूप में ग्रहण करने से अनूमित होते हैं । दृष्टान्त स्वरूप इक्ष्वाकु पक्ष ऋषभ के प्रतीक रूप में व्यवहार करते थे ।
ऋषभनाथके इसी वंश में जन्मलेने के कारण वृषम उनका चिन्ह हुआ है । उसी प्रकार मुनिसुव्रत और नेमिनाथ का 'चन्ह क्रमशः कूर्म भीर शस्त्र है ।
प्रथम तीर्थंकर मौर यादि जिन ऋषभनाथ के संबध में किम्बदन्तियाँ प्रोर भ्राख्यायिकायें है जो उनमें सत्यासत्य जानने का उपाय नहीं है। जैनियो के इतिहासमें भी इन्ही ऋषभनाथ या वृषभनाथको ही जैनधर्मका संस्थापक मानते हैं ऐसह वर्णन किया जाता है। दिगम्बरो का आदि पुरान और हेमचन्द्र - १०७