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बढाकर लाये, जिसे नन्दराजा ने बनवाया था । राजत्व के छटवें वर्षमें वह अपनी प्रजा पर सदय हुये थे । इस वर्ष उन्होंने पौर मौर जानपद जनसंघोको विशेष अधिकार प्रदान किये थे । इस से स्पष्ट है कि खारबेल यद्यपि एक सम्पूर्ण स्वत्वाधिकारी सम्राट् थे, फिर भी उनकी प्रजाको राजकीय प्रबधमे समुचित अधिकार प्राप्त था । उसी वर्ष खारवेलने दुखीजनोके दुखोका विमोचन करने के लिए उल्लेखनीय प्रयास किया था। महिसा धर्मका प्रकाश उनके जीवन में होना स्वाभाविक था
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अपने राजत्व के सप्तम् वर्ष में खारवेल प्रपनी प्रायुके इकतीस वर्ष पूर्ण कर चुके थे । उनके शिलालेख से ध्वनित होता है कि उसी वर्ष में उनका विवाह धूमधाम से सम्पन्न हुआ था । उनकी महारानी मोड़ीसा निकटवर्ती प्रदेश वज्रके राजवश की राजकुमारी थीं। पाठवें वर्ष में उन्होने मगध पर प्राक्रमण किया भौर वह ससैन्य गोरथ गिरि (वाराबर हिल्स) तक पहुच गये थे । जैन 'महापुराण' में भरत चक्रवर्ती के दिग्विजय प्रसग में भी गोरथसिरिका उल्लेख मिलता है । सम्राट् भरत भी वहा सेना लेकर पहुंचे थे । उनके प्रभावसे जिस प्रकार मागधकुमार देव स्वतः शरणमें प्राया, उसी तरह खारवेलका शौर्य भी अपना प्रभाव दिखा रहा था । गोरथगिरि विजय और राजगृह के घेरे की शौर्यबार्ता सुनते ही यवनराज देमित्रियस ( Demetris) के छक्के छूट गये । खारवेल को माया देखकर वह अपना लावलश्कर लेकर-मथुरा छोड़कर भाग गया। कितना महान् पराक्रम था खाखेलका । उनका देशप्रेम और भुजविक्रम निस्सदेह श्रद्वितीय था।
राजधानीको लौटकर खारवेलने अपने राजत्वकाल के हव वर्षमें महान् उत्सव व दानपुण्य किया । उन्होने 'कल्पतरू' बनाकर सभीको किमिfच्छक दान दिया। घोड़े, हाथी, रथ आदि भी योद्धानोंको भेंट किये । ब्राह्मणो को भी दान दिया । मोर
1851