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प्राचीनदीके दोनों तटों पर "विजयप्रसाद' बनवाकर अपनी दिग्विजय को चिरस्थायो बना दिया। दसवें वर्ष में उन्होंने अपने सैन्यको पुन. उत्तर भारतकी मोर भेजा था एवं ग्यारहवें वर्ष में . उन्होने मगध पर आक्रमण किया था जिससे मगधवासियों में मातङ्क छा गया था । यह माक्रमण एक तरह से अशोक के कलिग अाक्रमणके प्रतिशोध रूपमें था । मगधनरेश वृहस्पतिमित्र खारवेलके पैरोमें नतमस्तक हुए थे। उन्होने अङ्ग और मगधकी मूल्यवान भेंट लेकर राजधानी को प्रयाण किया था। इस भेटमें कलिगके राजचिन्ह और कलिग जिन (ऋषमदेव) की प्राचीन मूर्ति भी थी, जिसको नन्दराज मगध लेगया था। खारवेल ने उस अतिशय पूर्ण मूर्तिको कलिग वापस लाकर बडे उत्सव से विराजमान किया था। उस घटनाकी स्मृतिमे उन्होने विजय स्तंभ भी बनवाया था और खूब उत्सव मनाया था, जिससे उन्होने अपनी प्रजाके हृदयको मोह लिया था।
इसीवर्ष खारवेलके प्रतापको मान मानकर दक्षिणके पाण्डयनरेशने उनका सत्कार किया और हाथी प्रादि को मूल्यमय भेंट उनकी सेवामे प्रेषित की थी। इसप्रकार अपने बारहवर्षके राजत्वकाल में वह अपने साम्राज्यका विस्तार कर लेते है और उत्तर एवं दक्षिण भारत के बडे बड़े नरेशो को परास्त करके अपना प्रातङ्क चतुर्दिकमें व्याप्त कर देते है । निम्सदेह वह सार्थक रूपमे कलिगके चक्रवर्ती सम्राट् सिद्ध हो जाते है ।
किन्तु अपने राजत्वकालके १३ व वर्ष में सम्रट खारवेल राजनिासासे विरक्त होकर धर्मसाधना की ओर भत्र है। कुमारी पर्वत पर जहा भ० महावीरने धर्मोपदेश दिया था, वह जिनमदिर बनवाते है और अर्हत् निषधिका का उद्धार रते है। एक श्रावकके प्रत्तोका पालन करके शरीर और शाके भेदको लक्ष्य करके प्रात्मोन्नति करने में लग जाते है नको