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करने में असमर्थ हो कर खुद बस के भक्त बन गये थे। इसी बीच क्षीरधर नामका राजा इस दतके लिये पांडुराज पर माक्रमण करके खुद युद्ध में मरगया था । अंतमें जब वह राज्य छोड़ सन्यासी बने तब स्वयं पाराजने कलिंगराज गुहशिव के जरिये इस दंत को कलिंग में वापस भेज दिया था। गुहशिव इस दत के लिये अपने दतपुर में ही क्षोरघर के भतीजे के द्वारा अवरुद्ध हुए, इधर उज्जयिनी के राजकुमार ने पाकर कलिंगराजकुमारी हेममालासे शादी की। गुहशिवने उन दोनों के हाथ दत का भार सौपा, दोनो का नाम हुमा दतकुमार पौर दतकुमारी, दोनो दत को लेकर जहाज में सिंहल गये। इस हिसाब से मालूम होता है कि ३११ ई० में यह दत सिंहल पहुंचा था। यह भी सिंहलके एक शिलालेखसे समर्थित होता है।
दन्तका इसके बादका इतिहास बहुत लम्बा है। उससे मालूम होता है कि दत नाना स्थानो मे गया है। कलिंगसे सिंहल, सिंहल से ब्रह्मदेश और उसके बाद रोमन कैथिलिक मिशनरियो के हाथ गोमा में पहुचा है। और वही मिशनरियो के द्वारा लिहाई पर चुरकर समुद्र में गया है । लेकिन सभी कहते है कि असली दात हमने छिपा रखा है । दत जिधर भी गया है या जिसने भी लिया है वह एक नकली दत है । इसलिये ज्यादा लोग विश्वास करते है कि असली दत अब भी कलिग या पुरी में मौजूद है और जगन्नाथ जी के पेटमें ब्रह्मरूपमें है। प्राजके जगन्नाथ चतुर्षा जरूर है या सुदर्शनको छोड़ शेषा है-जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा । इत तोन मूर्तियो के पेट में दंतके तीन भाग ब्रह्मरूपमें रखे है या और कुछ है-इसके बारेमें कोई ठीक ठीक कह नहीं सकता। कुछ भी हो, इससे स्पष्ट है कि दक्षिण भारत में जो सिंहलो दंतका गल्प है वह पूर्ण रूपसे बुद्धदत का गल्म नही है। कलिंगमें जैनोंके जिस जिनशासन पीठके होने की बात