________________
रथयात्रा ऋषभदेव के रथोत्सव से मिलती-सी है, इसका उल्लेख पहले ही किया जा चुका है। उल्लेखनीय है कि यह रथयात्रा श्रीकृष्ण जी की घोषयात्रा नहीं है। घोषयात्रा में फिर बाहुडा (लोटना) नहीं होता है।
कल्पवृक्ष की साम्यता के बारे में भी पहले कहा जा चुका है। यहां यह भी कहा जा सकता है कि श्री जगन्नाथ जी का नीलचक्र श्री ऋषभदेव के धर्मचक का ही सतास्वरूप है । ऋषभदेव की पूजा जहा कही भी होती है उसे पक्रक्षेत्र कहा जाता है। प्राबू पहाड़ के क्षेत्र को इसीलिए बक्रक्षेत्र के नाम से पुकारा जाता है। यहाँ तक कि केंदूमर जिला स्थित मानन्दपुर सबडिविजन के जिस स्थान में पहले ऋषभदेव का पूजापीठ या उस स्थान को भी पक्रक्षेत्र के नाम से पुकारा जाता है। पुरी को चक्रक्षेत्र के नाम से पुकारने मे वैष्णव धर्म का प्रभाव जहां तक भी हो, पर जैन ऋषभदेव के पूजापोठ होने के कारण ही पुरी का ऐसा नाम पड़ा इस में सवेह नही है। इन सारे प्रमामो पर मभीरता पूर्वक चितम करने पर श्री जगन्नाथ जी को प्रानुष्ठानिक रूप से जैन प्रतिमा ही मानना पड़ेगा।
नवमारत मार्च, १३५५ का अंक देखें।