Book Title: Udisa me Jain Dharm
Author(s): Lakshminarayan Shah
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission

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Page 138
________________ सक रवर्तन होता है; कुठाय; वरद, मोदक पौर पमय, दिगम्बर संकेत-मज्ञात ४. श्री या लक्ष्मी (धनदेवी) वाहन-गज (श्वे०) श्वेताम्बर सकेत.- नलिनी, दिगम्बर स केत-चतुर्बाहुः पुष्प पौर पद्म ५. देव- शांतिदेव ; वाहन-पद्म (श्वे०) श्वेताम्बर स केतचतुर्बाहु ; वरद, जपमाला,कमडलु मौर कलस दिगम्बर सकेतप्रज्ञात। इस प्रकार जैनकलामें मायोजित देवी देवतापोंका विव. रण है । अब हम यहाँ पर जैनकला पर मालोचनात्मक दृष्टिपात करना भी प्राबश्यक समझते हैं । निस्सन्देह भारतीय संस्कृतिके दीर्घ इतिहास में जैनकला और संस्कृति एक अविच्छेद्य अङ्ग है। लिखित किताव छोड़कर जितने तरह के स्थापत्य और भास्कयं केबीच जैन कलाव सस्कृति का परिचय मिलता है,उसे विश्लेषण करने से जनधर्मके बारेमे बहुतसे तथ्य मालूम होजाते है । कलाही एक तरहकी सार्वजनिक भाषा है । जिसके माध्यममेजनसाधारण धर्म के बारे में बहुत बातें जान सकते है । इन विविधि प्रकारके कला कार्य विविध धर्मावलम्बी बहुतसे अमीरों और राजाओं की अनुकूलतासे रचित होने के कारण मौर स्पष्ट न होनेसे जैन सस्कृति और दर्शन के बारे में कोई बात बताना मासान नहीं हो सकती। भारत के जिन स्थानों में जैन धर्मने प्रसार लाभ किया था उनमे से विन्ध्य पहाड के उत्तर भाग या दाक्षिणात्य के कुछ जगह समग्र मध्य प्रदेश और मोड़िसा प्रधान है । भासाम, वर्मा, काशमोर, नेपाल, भूटान, तिब्बत मोर कच्छ वगैरह स्थानो ने जैन सस्कृति का कोई उल्लेख योग्य स्मारक नहीं है। समाज में धर्म को अमर मौर जनप्रिय करने के लिए शिल्पियोने जो उल्लेखनीय सहयोग दिया और कार्य किया है वह सचमुच चिरस्मरणीय रहेगा शिल्पियो ने अपनी सब तरह की

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