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वह एक जैन ग्रहस्थ के श्रावक धर्म के अनुरूप दूसरे देशोसे बना लाकर अपने साम्राज्यकी उन्नति करते थे। शायद इसलिये दाक्षिणत्यको धन रत्नका भडार समझकर, उत्तर भारतको छोडकर उन्होंने दक्षिण भारतका प्राक्रमण किया था। हाथी गुंफा शिलालिपमे यह भी मालूम होता है कि खारवेलकी उत्तर भारत विजय की खबर सुनकर पाड्य राजाको अमूल्य रल उपहार देना पडे थे। शिलालिपमें और भी यह है कि उन्होने विदयाधरोको जोतकर उनसे भी धन उपहार लिखे थे !
इन सब दृष्टियोसे विचार करनेसे हम मालूम होता है कि । अशोक और खारवेल में क्या विभिन्नता थी? कलिंग विजयके बाद अशोकको हमेशाके लिये राज्य जय-लिप्सा छोडना पड़ी। सिर्फ उतना ही नहो उनक समसामयिक राजा और बुजुर्मोको भी दिग्विजय न करनेको उन्होने अनुरोध किया था । परन्तु अशोक को तरह खारवेलने सामाजिक उत्सवोका उच्छेद नही किया, अपितु प्रजाके माथ मिलकर वहत्त्योहार प्रादि मनाते थ।
प्रजात्राको धमानुचिन्ता और पूजा पद्धति में उन्होने किसो, प्रकार के प्रतिबंधको सृष्टि नही को थो। सामाजिक उत्सवों के लिये वह अकठिन मनसे करोड़ो रुपय खर्च करते थे। जिन उत्सव क लिय हरसाल कईवार शोभायात्रा की तैयारी होती थी और खारवेल को भी उसमें भाग लेना पडता था। इन शोभायात्रायोमे सम्राटकी सवारी पोर राजछत्र प्रादिका प्रदर्शन भी पाडम्बरके साथ होता था। धर्म निरपेक्ष खारवेल किसी भी गुण मे अशाकसे कम नही थे । परन्तु सहिष्णना खारवेलमें ज्यादा थी। किमी साप्रदायिक मामलेमें वह कभी भी अपने । को, सतप्त नहीं करते थ । परन्तु हरेक धर्मकी अभिवृद्धि उम कोकामना थी। जैवमको सुप्रतिष्ठित करने को उद्देश्यमे उनकी कर्मतस्प
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