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इसलिए, शिवालिपि में चनने "कामलो" (घर) नामले भनिहित किया गया है। बौद्ध पोरोन शास्त्रमे चक्रको अर्थ में व्यावहार किया गया है परन्तु प्रहापासखारवेल. को अक्रधर नामसे.मम्महित करने का यह मतलब है किजनता धर्ममें उनकी जगह-बहुत ऊची थी- सिर्फ:बतमा ही नही उता. को. गुप्तचक्रकी पदवी भी दी गई है। . . . . __ खारवेलको जैन-प्रमाणित करने के लिए झवीमुफा शिलालिपि * में और भी बहुत प्रमाण है। शिलालिसिसे यह भी मालूम होता।' है कि राजत्वक प्रायवे सालमे वह यवनराजको युद्ध में मुहतोड़ । जवाव देवेके लिए मथुरा तक गये थे। मथुरा में उन्होने ब्राह्मणाः । जैन श्रमण, राजभृत्य और वहां के अधिवासिमो को भोजमेंपाण्यापित किया था। मथुरासे , लौटने के बाद, कलिममें भी -इसी तरह एक भोजका आयोजन हुमाया 1
इस वर्णनाम बौद्ध और पाजीवको का नाम नही पाया, जाता है । इससे यह मालूम होखा है कि उस समय कलिग के समान ही मथुरा में भी जैन और हिन्दू धर्म के प्राधान्यसे; बौद्ध धर्मका अस्तित्व नहीं था। कदाचित होता भी तो उनकी प्रतिष्ठा वहा पर नहीं थी, बल्कि उसके पनपने के लिए ब्रहा अनुकूल परिस्थिति ही नही थी। उत्तर भारतमामधुम्ही बना धर्मका केन्द्रम्थल था। इसलिये खारवेलको बहा पर यवनराज: की उपस्थिति और प्राधिपत्य प्रसा.. हुआ। अत : स्वधर्मकी निषक्ता के लिए उनको मथुख तक जाना-
पाखारचेलको माक्रमण से बह्मक प्रषिवासी मालकिन नहीं थे। अधिक जानर धर्मावलम्बीयो क मानव बर्द्धन के लिये खारवेसमानत्वपूर्ण काम सराहनीय था। __ मथुगसे वापस पाने के समय लारवेल खातीज्ञा लोकार नहीं पडा था । गुल्म और लताकीणं कल्प-वृक्ष भी उनके द्वारा